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अध्याय २४

श्रीनरसिंहपुराण - अध्याय २४

अन्य पुराणोंकी तरह श्रीनरसिंहपुराण भी भगवान् श्रीवेदव्यासरचित ही माना जाता है ।


श्रीसूतजी कहते हैं - अब मैं सूर्यवंशी तथा चन्द्रवंशी राजाओंके ' वंशानुचरित ' का वर्णन करुँगा, जो श्रोताओंका भी पाप नष्ट करनेवाला है । मुने ! मैंने पहले सूर्यवंशमें उत्पन्न हुए जिन मनुपुत्र ' इक्ष्वाकु ' नामक भूपालकी चर्चा की थी, उनके चरित्रका वर्णन आप मुझसे सुनें ॥१ - २॥

महाभाग ! इस पृथ्वीपर सरयू नदीके किनारे ' अयोध्या ' नामसे प्रसिद्ध एक शोभायमान दिव्य पुरी है । वह अमरावतीसे भी बढ़कर सुन्दर और तीस योजन लंबी - चौड़ी थी । हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सैनिकोंके समूह तथा कल्पवृक्षके समान कान्तिमान् वृक्ष उस पुरीकी शोभा बढ़ाते थे । चहारदीवारी, अट्टालिका, प्रतोली ( गली या राजमार्ग ) और सुवर्णकी - सी कान्तिवाले फाटकोंसे वह बड़ी शोभा पा रही थी । अलग - अलग बने हुए मंजिल ऊँचे थे । नाना प्रकारके भाण्डों ( भाँति - भाँतिके सामानों ) - का सुन्दर ढंगसे क्रय - विक्रय होता था । कमलों और उत्पलोंसे सुशोभित जलसे भरी हुई बावलियाँ उस पुरीकी शोभा बढ़ा रही थीं । दिव्य देवालय तथा वेदमन्त्रोंके घोष उस नगरीकी श्री - वृद्धि करते थे । वीणा, वेणु और मृदङ्ग आदिके उत्कृष्ट शब्दोंसे वह पुरी गूँजती रहती थी । शाल ( साखू ), ताल ( ताड़ ), नारियल, कटहल, आँवला, जामुन, आम और कपित्थ ( कैथ ) आदिके वृक्षों तथा अशोकपुष्पोंसे अयोध्यापुरीकी बड़ी शोभा होती थी ॥३ - ८॥

वहाँ सब जगह नाना प्रकारके बगीचे और फलवाले वृक्ष पुरीकी शोभा बढ़ाते थे । मल्लिका ( मोतिया या बेला ), मालती, चमेली, पाड़र, नागकेसर, चम्पा, कनेर, चनकचम्पा और केतकी ( केवड़ा ) आदि पुष्पोंसे मानो उस पुरीका श्रृङ्गार किया गया था । केला, हरफा, रेवड़ी, जायफल और बिजौरा नीबू, चन्दनकी - सी गन्धवाले तथा दूसरे प्रकारके संतरे आदि बड़े - बड़े फल उसकी शोभा बढ़ाते थे । गीत और वाद्यमें कुशल पुरुष उस पुरीमें प्रतिदिन आनन्दोत्सव मचाये रहते थे । वहाँके स्त्री - पुरुष रुप - वैभव तथा सुन्दर नेत्रोंसे सम्पन्न थे ॥९ - ११॥

वह पुरी नाना देशोंके मनुष्योंसे भरी - पुरी, ध्वजापताकाओंसे सुशोभित तथा अनेकानेक कान्तिमान् देवोपम राजकुमारोंसे युक्त थी । वहाँ देवाङ्गनाओंके समान श्रेष्ठ एवं रुपवती वनिताएँ निवास करती थीं । बृहस्पतिके समान तेजस्वी सत्कवि ब्राह्मण उस नगरीकी शोभा बढ़ाते थे । कल्पवृक्षसे भी बढ़कर उदार नागरिकों और वैश्यों, उच्चैः श्रवाके समान श्रेष्ठ घोड़ों और दिग्गजोंके समान विशालकाय हाथियोंसे वह पुरी बड़ी शोभा पाती थी । इस प्रकार नाना वस्तुओंसे भरी - पूरी अयोध्यापुरी इन्द्रपुरी अमरावतीकी समता करती थी । पूर्वकालमें नारदजीने उस पुरीको देखकर भरी सभामें यह श्लोक कहा था - ' स्वर्गकी सृष्टि करनेवाले विधाताका वह सारा प्रयत्न व्यर्थ हो गया; क्योंकि अयोध्यापुरी उससे भी बढ़कर मनोवाञ्छित भोगोंसे सम्पन्न हो गयी ' ॥१२ - १६॥

इक्ष्वाकु इसी अयोध्यामें निवास करते थे । वे राजाके पदपर अभिषिक्त हो, पृथ्वीका पालन करने लगे । उन महान् बलशाली नरेशने धर्मयुद्धके द्वारा समस्त भूपालोंको जीत लिया था । मानिकके बने मुकुटोंसे अलंकृत अनेक छोटे - छोटे मण्डलोंके शासक राजाओंके भक्ति तथा भयपूर्वक प्रणाम करनेसे उनके दोनों चरणोंमें मुकुटोंकी रगड़से चिह्न बन गया था ॥१७ - १८॥

मनुपुत्र प्रतापी राजा इक्ष्वाकु अपने राजोचित तेजसे इन्द्रकी समानता करते थे । वे सम्पूर्ण शास्त्रोंके ज्ञानमें निपुण थे । उनका बल कभी क्षीण नहीं होता था । वे धर्मात्मा भूपाल वेदवेत्ता ब्राह्मणोंके साथ धर्म और न्यायपूर्वक इस समुद्रपर्यन्त पृथिवीका पालन करते थे । उन बलशाली नरेशने संग्राममें अपने तीखे शस्त्रोंसे समस्त भूपोंको जीतकर उनका मण्डल अपने अधिकारमें कर लिया था ॥१९ - २१॥

ब्रह्मन् ! प्रतापी राजा इक्ष्वाकुने प्रचुर दक्षिणावाले यज्ञ और नाना प्रकारके दान करके परलोकोंपर भी विजय प्राप्त कर ली थी । वे अपनी दोनों भुजाओंद्वारा पृथ्वीका, जिह्नके अग्रभागसे सरस्वतीका, वक्षः स्थलसे राजलक्ष्मीका और हदयसे भगवान् लक्ष्मीपतिकी भक्तिका भार वहन करते थे । एक वस्त्रपर खड़े हुए भगवान् हरिका, बैठे हुए लक्ष्मीपतिका और सोये हुए अनन्तदेवका निर्मल चित्र बनवाकर क्रमशः प्रातः कल, मध्याह्नकाल और संध्याकालमें तीनों समय वे महात्मा भगवान् विष्णुके उन तीनों रुपोंका गन्ध तथा पुष्प आदिके द्वारा पूजन करते और उस पटपर प्रतिदिन भगवान् विष्णुका दर्शन करके प्रसन्न रहते थे । उन्हें स्वप्नमें भी नागराज अनन्तकी शय्यापर सोये हुए, काले मेघके समान श्यामवर्ण, कमललोचन, पीताम्बरधारी भगवान् श्रीकृष्ण ( विष्णु ) - का दर्शन हुआ करता था । राजाने भगवानके समान श्यामवर्णवाले मेघमें अत्यन्त सम्मानपूर्ण बुद्धि कर ली थी । भगवान् श्रीकृष्णके नामसे युक्त कृष्णसार मृगमें और कृष्णवर्णवाले कमलमें वे पक्षपात रखते थे ॥२२ - २७॥

साधुशिरोमणे ! उस राजाके मनमें भगवान् विष्णुके दिव्य स्वरुपको प्रत्यक्ष देखनेकी अत्यन्त उत्कट अभिलाषा जाग्रत् हुई; उनकी वह तृष्णा अपूर्व ही थी । जब उनकी तृष्णा बहुत बढ़ गयी, तब वे बुद्धिमान् भूपाल मन - ही - मन सारे राज्य - भोगको निस्सार - सा समझने लगे । उन्होंने सोचा - ' जिस पुरुषने गेह, स्त्री, पुत्र और क्षेत्र आदि दुःखद भोगोंको वैराग्य और ज्ञानपूर्वक त्याग दिया है, उसके समान बड़भागी इस संसारमें कोई नहीं है ।' इस प्रकार सोच - विचारकर, तपस्यामें आसक्तचित्त हो उन्होंने उसके लिये अपने पुरोहित वसिष्ठजीसे उपाय पूछा - ' मुने ! मैं तपस्याके बलसे देवेश्वर, अजन्मा भगवान् नारायणका दर्शन करना चाहता हूँ; इसके लिये आप मुझे कोई उत्तम उपाय बताइये ' ॥२८ - ३२॥

उनके इस प्रकार कहनेपर राजाके हितमें सदा लगे रहनेवाले सर्वधर्मज्ञ मुनिवर वसिष्ठजीने तपमें आसक्तचित्त उन नरेशसे कहा - ' महाराज ! यदि तुम परमात्मा नारायणका साक्षात्कार करना चाहिये हो तो तपस्या और शुभकर्मोंके द्वारा उन भगवान् जनार्दनकी आराधना करो । कोई भी पुरुष तपस्या किये बिना देवदेव जनार्दनका दर्शन नहीं पा सकता । इसलिये तुम तपस्याके द्वारा उनका पूजन करो । यहाँसे पाँच योजन दूर सरयूके तटपर पूर्व और दक्षिण भागमें एक पवित्र स्थान है, जहाँ गालव आदि ऋषियोंका आश्रम है । वह स्थान नाना प्रकारके वृक्षों और लताओंसे व्याप्त तथा विविध भाँतिके पुष्पोंसे परिपूर्ण है । राजन् ! अपने बुद्धिमान् एवं नीतिज्ञ मन्त्री अर्जुनको राज्यका भार तथा सारा कार्य - कलाप सौंप, तत्पश्चात् गणनायक भगवान् विनायककी स्तुति एवं आराधना करके तपस्याकी सिद्धिरुप प्रयोजनकी इच्छा मनमें लेकर यहाँसे उस आश्रमकी यात्रा करो और वहाँ पहुँचकर तपस्यामें संलग्न हो जाओ । तपस्वीका वेष धारणकर, साग और फल - मूलका आहार करते हुए, भगवान् नारायणके ध्यानमें तत्पर रहकर सदा ही ' ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।' - इस मन्त्रका जप करो । यह ' द्वादशाक्षर ' - संज्ञक मन्त्र अभीष्टको सिद्ध करनेवाला है । प्राचीन कालके ऋषियोंने इस मन्त्रका जप करके परम सिद्धि प्राप्त की है । चन्द्रमा और सूर्य आदि ग्रह जा - जाकर पुनः लौट आते हैं, परंतु द्वादशाक्षर - मन्त्रका चिन्तन करनेवाले पुरुष आजतक नहीं लौटे - भगवानको पाकर आवागमनसे मुक्त हो गये । नरेश्वर ! बाह्य इन्द्रियोंको हदयमें स्थापितकर तथा मनको सूक्ष्म परात्मत्त्वमें स्थिर करके इस मन्त्रका जप करो; इससे तुम्हें भगवान् मधुसूदनका दर्शन होगा । इस प्रकार इस समय तुम्हारे पूछनेपर मैंने तपरुप कर्मसे भगवानकी प्राप्तिका उपाय बतलाया; अब तुम्हारी जैसी इच्छा हो, करो ' ॥३३ - ३४॥

मुनिवर वसिष्ठके इस प्रकार कहनेपर वे राजा इक्ष्वाकु अपने श्रेष्ठ मन्त्रीको भूमण्डलके राज्यका भार सौंपकर, पुष्पोंद्वारा गणेशजीका पूजन तथा स्तवन करके, तपस्या करनेका दृढ़ निश्चय मनमें लेकर, अपने नगरसे चल दिये ॥४५॥

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ' इक्ष्वाकुका चरित्र ' विषयक चौबीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥२४॥

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Last Updated : July 25, 2009

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