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अध्याय ५७

श्रीनरसिंहपुराण - अध्याय ५७

अन्य पुराणोंकी तरह श्रीनरसिंहपुराण भी भगवान् श्रीवेदव्यासरचित ही माना जाता है ।


राजा बोले - ब्रह्मन् ! आप मुझसे भगवान्‍ नृसिंहके भक्तोंका लक्षण बतलाइये, जिनका सङ्ग करनेमात्रसे विष्णुलोक दूर नहीं रह जाता ॥१॥

श्रीमार्कण्डेयजीने कहा - राजन् ! भगवान् विष्णुके भक्त उनकी पूजा - अर्चा करनेमें महान् उत्साह रखते हैं । वे अपने मन और इन्द्रियोंको संयममें रखते हुए धर्ममें तत्पर रहकर सारे मनोरथोंको सिद्ध कर लेते हैं । भगवद्भक्त जन सदा परोपकार और गुरु - सेवामें लगे रहते हैं, सबसे मीठे वचन बोलते और अपने - अपने वर्ण तथा आश्रमके सदाचारोंका पालन करते हैं । वे वेद और वेदार्थका तत्त्व जाननेवाले होते हैं, उनमें क्रोध और कामनाओंका अभाव होता है । वे सदा शान्त रहते हैं, उनके मुखपर सौम्यभाव लक्षित होता है तथा वे निरन्तर धर्माचरणमें लगे रहते हैं । थोड़ा किंतु हितकारी वचन बोलते हैं, समयपर अपनी शक्तिके अनुसार सदा अतिथिकी सेवा करनेमें उनका प्रेम बना रहता है । वे दम्भ, कपट, काम और क्रोधसे रहित होते हैं । जो मनुष्य इन पूर्वोक्त लक्षणोंसे युक्त एवं धीर हैं, बहुश्रुत और क्षमावान् हैं तथा विष्णुभगवानके नामोंका कीर्तन अथवा श्रवण करते समय हर्षसे रोमाञ्चित हो जाते हैं, इसी तरह जो विष्णुपूजनमें तत्पर और भगवत्कथामें आदर रखनेवाले हैं, ऐसे महात्मा पुरुष भगवान् विष्णुके भक्त कहे गये हैं ॥२ - ७॥

राजा बोले - विद्वन् भृगुवर्य ! मेरे गुरुदेव ! आपने अभी कहा है कि जो अपने वर्ण और आश्रमके धर्ममें लगे रहते हैं, वे भगवान् विष्णुके भक्त हैं; अतः आप कृपा करके वर्णो और आश्रमोंके धर्म बताइये, जिनके पालन करनेसे सनातन भगवान् नृसिंह संतुष्ट होते हैं ॥८ - ९॥

श्रीमार्कण्डेयजीने कहा - इस विषयमें मुनियोंके साथ महात्मा हारीत ऋषिका संवाद हुआ था; उसी प्राचीन एवं उत्तम इतिहासका आज मैं तुम्हारे समक्ष वर्णन करुँगा ॥१०॥

एक समयकी बात है, धर्मका तत्त्व जाननेकी इच्छावाले समस्त मुनियोंने एक जगह आसनपर आसीन, धर्म - तत्त्ववेत्ता एवं बहुपाठी महात्मा हारीत ऋषिके पास जाकर उन्हें प्रणाम किया और कहा - ' भगवन् ! आप समस्त धर्मोंके ज्ञाता और प्रवर्तक हैं; अतः आप हमलोगोंसे वर्ण और आश्रमोंसे सम्बन्ध रखनेवाले सनातन धर्मका वर्णन कीजिये ' ॥११ - १२॥

श्रीहरीतजी बोले - पूर्वकालमें जगत्स्रष्टा भगवान् नारायण जलके ऊपर शेषनागकी शय्यापर श्रीलक्ष्मीजीके साथ शयन करते थे । कहते हैं, शयन - कालमें ही उन भगवानकी नाभिसे एक दिव्य कमल प्रकट हुआ और उस कमल - कोषमेंसे वेद - वेदाङ्गोंके ज`जानसे विभूषित श्रीब्रह्माजी प्रकट हुए । उन ब्रह्माजीने सृष्टिके लिये भगवान् नारायणकी आज्ञा होनेपर सर्वप्रथम ब्राह्मणोंको अपने मुखसे प्रकट किया । फिर क्षत्रियोंको बाहुओंसे और वैश्योंको जाँघोंसे उत्पन्न किया । अन्तमें उन्होंने चरणोंसे शूद्रोंकी सृष्टि की । फिर कमलोद्भव ब्रह्माजीने क्रमशः उन्हीं ब्राह्मणादि वर्णोंके धर्मका उपदेश करनेवाले शास्त्र और वर्णोंकी मर्यादाका वर्णन किया । द्विजवरो ! ब्रह्माजीने जो कुछ उपदेश किया, वह सब मैं आप लोगोंसे कह रहा हूँ; आप सुनें । यह धर्मशास्त्र धन, यश और आयु\को बढ़ानेवाला तथा स्वर्ग और मोक्षरुपी फलको देनेवाला है ॥१३ - १७॥

जो ब्राह्मण - कुलमें उत्पन्न हुई स्त्रीके गर्भ और ब्राह्मणके ही वीर्यसे उत्पन्न हुआ है, वह ' ब्राह्मण ' कहा गया है । अब मैं ब्राह्मणके धर्म और निवास - योग्य देशको बता रहा हूँ । ब्रह्माजीने ब्राह्मणको उत्पन्न करके उनसे कहा - ' ब्राह्मणश्रेष्ठ ! जिस देशमें कृष्णासार मृग स्वभावतः निवास करता हो, उसी देशमें रहकर तुम धर्मका पालन करो ।' मनीषियोंने जो ब्राह्मणके छः कर्म बतलाये हैं, उन्हींके अनुसार जो सदा व्यवहार करता है, वह सुखपूर्वक अभ्युदयशील होता है । अध्ययन ( पढ़ना ), अध्यापन ( पढ़ाना ), यजन ( यज्ञ करना ), याजन ( यज्ञ कराना ), दान करना और दान लेना - ये ही ब्राह्मणके छः कर्म कहे जाते हैं । इनमेसे अध्ययन तीन प्रकारका बताया जाता है - पहला धर्मके लिये, दूसरा ध्यनके लिये और तीसरा अपनी सेवा करानेके लिये होता है । ब्राह्मणको चाहिये कि योग्य शिष्योंको पढ़ाये, योग्य यजमानोंका यज्ञ कराये और गृहस्थधर्मकी सिद्धि ( जीविका चलाने आदि ) - के लिये विधिपूर्वक दूसरेका दान भी ग्रहण करे । शुभ स्थानपर रहकर, एकाग्रचित हो, प्रतिदिन वेदका ही अभ्यास करे तथा यत्नपूर्वक नित्य, नैमित्तिक और काम्य कर्मोंका अनुष्ठान करे । श्रेष्ठ ब्राह्मणको चाहिये कि आलस्य त्यागकर उचित - रुपसे गुरुजनोंकी सेवा करे ओर प्रतिदिन प्रातः काल तथा सायंकाल विधिपूर्वक अग्निकी सेवा किया करे ॥१८ - २५॥

गृहस्थ ब्राह्मण स्नान आदिके बाद प्रतिदिन बलिवैश्वदेव करे और घरपर आये हुए अतिथिका अपनी शक्तिके अनुसार भक्तिपूर्वक सम्मान करे । एक अतिथिके आ जानेपर यदि दूसरे भी आ जायँ तो उन्हें भी देखकर विरोध न माने, उनका भी यथाशक्ति सम्मान करे । सदा अपनी ही स्त्रीमें अनुराग रखे, दूसरेकी स्त्रीके सम्पर्कसे सदा दूर रहे । सदा सत्य बोले, क्रोध न करे, अपने धर्मका पालन करता रहे । अपने नैत्यिक आदि कर्मका समय प्राप्त होनेपर प्रमाद न करे । जिससे परलोक न बिगड़े - ऐसी सत्य, प्रिय और हितकारिणी वाणी बोले । इस प्रकार मैंने ब्राह्मण - धर्मका संक्षेपसे वर्णन किया । जो ब्राह्मण इस प्रकार अपने धर्मका पालन करता है, वह नित्य ब्रह्मधाम ( सत्यलोक ) - को प्राप्त होता है । विप्रगण ! इस प्रकार मैंने आपलोगोंसे यह ब्राह्मण - धर्म कहा है, यह समस्त पापोंको दूर करनेवाला है । विप्रवरो ! अब क्षत्रियादि जातियोंका पृथक् - पृथक् धर्म बताता हूँ, आप लोग सुनें ॥२६ - ३०॥

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ' ब्राह्मणधर्मका वर्णन ' नामक सत्तावनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥५७॥

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Last Updated : October 02, 2009

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