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अध्याय ६

श्रीनरसिंहपुराण - अध्याय ६

अन्य पुराणोंकी तरह श्रीनरसिंहपुराण भी भगवान् श्रीवेदव्यासरचित ही माना जाता है ।


सूतजी बोले - ब्रह्मन् ! परमात्मा भगवान् विष्णुसे जिस प्रकार देव, दानव और यक्ष आदि उत्पन्न हुए, वह जगतकी सृष्टिका वृत्तान्त मैंने आपसे कह दिया । अब ऋषियोंके निकट जिस उद्देश्यको लेकर पहले आपने मुझसे प्रश्न किया थाकि ' वसिष्ठजी मित्रावरुणके पुत्र कैसे हो गये ? ' उसी पुरातन पवित्र कथाको कहूँगा । भरद्वाजजी ! आप एकाग्रचित्त हो, विशेष सावधानीके साथ उसे सुनिये ॥१ - ३॥

सम्पूर्ण धर्म और अर्थोंके तत्त्वको जाननेवाले, समस्त वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ तथा समग्र विद्याओंके पारदर्शी ' दक्ष ' नामक प्रजापतिने अपनी तेरह सुन्दरी कन्याओंको, जो सभी कमलके समान नेत्रोंवाली और समस्त शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न थीं, कश्यप मुनिको दिया था । उनके नाम बतलाता हूँ, आप लोग इस इस समय मुझसे उनके नाम जान लें - अदिति, दिति, दनु, काला, मुहूर्ता, सिंहिका, मुनि, इरा, क्रोधा, सुरभि, विनता, सुरसा, खसा, कद्रू और सरमा, जो देवताओंकी कुतिया कही गयी हैं - ये सभी दक्षप्रजापतिकी कन्याएँ हैं । इनको दक्षने कश्यपजीको समर्पित किया था । विप्रवर ! अदिति नामकी जो कन्या थी, वही इन सबमें श्रेष्ठ और बड़ी थी ॥४ - ८॥

अदितिने बारह पुत्रोंको उत्पन्न किया, जो अग्निके समान कान्तिमान् एवं तेजस्वी थे । उन सबके नाम बतला रहा हूँ, आप मुझसे उन्हें सुनें । उन्हींके द्वारा सर्वदा क्रमशः दिन और रात होते रहते हैं । भग, अंशु, अर्यमा, मित्र, वरुण, सविता, धाता, विवस्वान् , त्वष्टा, पूषा, इन्द्र और बारहवें विष्णु हैं । ये बारह आदित्य तपते वर्षा करते हैं ॥९ - १११/२॥

अदितिके मध्यम पुत्र वरुण ' लोकपाल ' कहे गये हैं; इनकी स्थिति वरुण - दिशा ( पश्चिम ) - में बतलायी जाती हैं । ये पश्चिम दिशामें पश्चिम समुद्रके तटपर सुशोभित होते हैं । वहाँ एक सुन्दर सुवर्णमय पर्वत हैं । उसके शिखर सब रत्नमय हैं । उनपर नाना प्रकारकी धातुएँ और झरने हैं । इनसे युक्त और नाना प्रकारके रत्नोंसे परिपूर्ण वह सुन्दर पर्वत बड़ी शोभा पाता है । उसमें बड़े - बड़े दरें और गुहाएँ हैं, जहाँ बाघ और सिंह दहाड़ते रहते हैं । वहाँके अनेकानेक एकान्त स्थलोंपर सिद्ध और गन्धर्व वास करते हैं । जब सुर्य वहाँ पहुँचते हैं, तब समस्त संसार अन्धकारसे पूर्ण हो जाता है । उसी पर्वतके शिखरपर विश्वकर्माकी बनायी हुई एक ' विश्वावती ' नामकी शोभनपुरी है, जो बड़ी, दिव्य तथा सुवर्णसे बनी हुई है और उसमें मणियोंके खंभे लगे हैं । इस प्रकार वह पुरी रमणीय एवं सम्पूर्ण भोग - साधनोंसे सम्पन्न है । उसीमें अपने तेजसे प्रकाशित होते हुए ' वरुण ' नामक आदित्य ब्रह्माजीकी प्रेरणासे इन सम्पूर्ण लोकोंका पालन करते हैं । वहाँ उनकी सेवामें गन्धर्व और अप्सराएँ रहा करती हैं ॥१२ - १९॥

एक दिन वरुण अपने अङ्गोंमें दिव्य चन्दनका अनुलेप लगाये, दिव्य आभूषणोंसे विभूषित हो ' मित्र ' के साथ वनको गये । ब्रह्मर्षिगण सदा जिसका सेवन करते हैं, जो नाना प्रकारके फल और फूलोंसे युक्त तथा अनेक तीर्थोसे व्याप्त है; जहाँ ऊर्ध्वरेता मुनियोंके आश्रम दृष्टिगोचर होते हैं तथा जो प्रचुर फल - फूल और जलसे पूर्ण हैं, उस सुन्दर सुरम्य कुरुक्षेत्र तीर्थमें पहुँचकर वे दोनों देवता चीर और कृष्णमृगचर्म धारण करके तपस्या करने लगे । वहाँपर वनके एक भागमें निर्मल जलसे भरा हुआ एक सुन्दर सरोवर हैं जो बहुत - सी झाड़ियों और बेलोंसे आवृत्त है; अनेकानेक पक्षी उसका सेवन करते हैं । वह भाँति - भाँतिके वृक्षसमूहोंसे आच्छन्न और कमलोंसे सुशोभित है । उस सरोवरकी ' पौण्डरीक ' नामसे प्रसिद्धि है । उसमें बहुत - सी मछलियाँ और कछुए निवास करते हैं । तप आरम्भ करनेके पश्चात् वे दोनों भाई - मित्र और वरुणदेवता एक दिन वनमें विचरण करते और स्वेच्छानुसार घूमते हुए उस सरोवरकी ओर गये ॥२० - २५॥

वहाँ उन दोनोंने उस समय श्रेष्ठ एवं सुन्दरी अप्सरा उर्वशीको देखा, जो अपनी अन्य सहेलियोंके साथ स्नान कर रही थी । वह सुमुखी अप्सरा उस निर्जन वनमें विश्वस्त होकर हँसती और गाती थी । उसका वर्ण गोरा था । कमलके भीतरी भागके समान उसकी कान्ति थी । उसकी अलकें काली - काली और चिकनी थीं, आँखें कमल - दलके समान बड़ी - बड़ी थीं, होठ लाल थे, उसका भाषण बहुत ही मधुर था । उसके दाँत शङ्ख, कुन्द और चन्द्रमाके समान श्वेत, परस्पर मिले हुए और बराबर थे । उस मनस्विनीकी भौंहें, नासिका, मुख और ललाट - सभी सुन्दर थे । कटिभाग सिंहके कटिप्रदेशकी भाँति पतला था । उरोज, ऊरु और जघन - ये मोटे और घने थे । वह मधुर भाषण करनेमें चतुर थी । उसका मध्यभाग सुन्दर और मुस्कान मनोहर थी । दोनों हाथ लाल कमलके समान सुन्दर एवं कोमल थे । शरीर पतला और पैर सुन्दर थे । वह बाला बड़ी ही विनीता थी । उसका मुख पूर्णचन्द्रके समान आह्वादजनक और गति मत्त गजराजके समान मन्द थी । उर्वशीके उस दिव्य रुपको देखकर वे दोनों देवता विस्मयमें पड़ गये । उसके लास्य ( नृत्य ), हास्य, ललितभाव - मिश्रित मन्द मुसकान और मधुर सुरीले गानसे तथा शीतल - मन्द - सुगन्धित मलयानिलके स्पर्शसे एवं मतवाले भौंरोंके संगीत और कोकिलोंके स्पर्शसे एवं मतवाले भौरोंके संगीत और कोकिलोंके कलरवसे उन दोनोंका मज और भी मुग्ध हो गया । साथ ही उर्वशीकी तिरछी चितवनके शिकार होकर वे दोनों ही वहाँ स्खलित हो गये ( उनके वीर्यका पतन हो गया ) । मुनिसत्तम ! इसके बाद निमिके शापवश वसिष्ठजीका जीवात्मा अपने शरीरसे पृथक् होकर ( मित्रावरुणके वीर्यमें आविष्ट हुआ ) ॥२६ - ३३॥

' वसिष्ठ ! तुम मित्रावरुणके पुत्र होगोगे ' - इस प्रकार विश्वेदेवोंने ( निमिके शुक्रमें ) आकर कहा था तथा ब्रह्मजीका भी यही कथन था; अतएव मित्रावरुणके तीन स्थानोंपर गिरे हुए वीर्यमेंसे जो भाग कमलपर गिरा था, उसीसे वसिष्ठजी हुए । उन दोनों देवताओंका वीर्य तीन भागोंमें विभक्त होकर कमल, जल और स्थलपर ( घड़ेमें ) गिरा । कमलपर गिरे हुए वीर्यसे मुनिवर वसिष्ठ उत्पन्न हुए, स्थलपर गिरे हुए रेतससे अगस्त्य और जलमें गिरे हुए शुक्रसे अत्यन्त कान्तिमान् मत्स्यकी उत्पत्ति हुई । इस तरह उस कमलपर बुद्धिमान् वसिष्ठ, कुम्भमें अगस्त्य और जलमें मत्स्यका आविर्भाव हुआ; क्योंकि मित्रावरुणका वीर्य तीनों स्थानोंपर बराबर गिरा था । इसी समय उर्वशी स्वर्गलोकमें चली गयी । वसिष्ठ और अगस्त्य - इन दोनों ऋषियोंको साथ लेकर वे दोनों देवता पुनः अपने आश्रममें लौट आये और पुनः उन दोनोंने अत्यन्त उग्र तप आरम्भ किया ॥३४ - ३७ ॥

तपस्याके द्वारा सनातन परम ज्योति ( ब्रह्मधाम ) - को प्राप्त करनेकी इच्छावाले उन दोनों तपस्वी देवेश्वरोंसे ब्रह्माजीने आकर यह कहा - ' महान् कान्तिमान् और पुत्रवान् मित्र तथा वरुण देवताओ ! तुम दोनोंको पुनः वैष्णवी सिद्धि प्राप्त होगी । इस समय संसारके साक्षीरुपसे तुम लोग अपने अधिकारपर स्थित हो जाओ ।' यों कहकर ब्रह्माजी अन्तर्धान हो गये और वे दोनों देवता अपने अधिकृत पदपर स्थित हुए ॥३८ - ४०॥

ब्राह्मण ! इस प्रकार महात्मा वसिष्ठजी और बुद्धिमान् अगस्त्यजी जिस तरह मित्रावरुणके पुत्र हुए थे, वह सब प्रसङ्ग मैंने आपसे कह दिया । यह वरुणदेवता - सम्बन्धी पुंसनाख्यान पाप नष्ट करनेवाला है । जो लोग पुत्रकी कामनासे शुद्ध व्रतका आचरण करते हुए इसका श्रवण करते हैं, वे शीघ्र ही नेक पुत्र प्राप्त करते हैं - इसमें संदेह नहीं है । जो उत्तम ब्राह्मण हव्य ( देवयाग ) और कव्य ( पितृयाग ) - में इसका पाठ करता है, उसके देवता तथा पितर तृप्त होकर अत्यन्त सुख प्राप्त करते हैं । जो वह पृथ्वीपर सुखपूर्वक प्रसन्नताके साथ रहता है और फिर विष्णुलोकको प्राप्त करता है । वेदवेत्ताओंके द्वारा प्रतिपादित इस पुरातन उपाख्यानको, जिसे मैंने कहा है, जो लोग सादर पढ़ेंगे और सुनेंगे, वे शुद्ध होकर अनायास ही विष्णुलोकको प्राप्त कर लेंगे ॥४१ - ४५॥

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ' पुंसवन ' नामक छठा अध्याय पूरा हुआ ॥६॥

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Last Updated : July 25, 2009

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