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चतुःषष्टितमदशकम्

दशमस्कन्धपरिच्छेदः - चतुःषष्टितमदशकम्

श्रीनारायणके दूसरे रूप भगवान् ‍ श्रीकृष्णकी इस ग्रंथमे स्तुति की गयी है ।


आलोक्य शैलोद्धरणादिरूपं प्रभावमुच्चैस्तव गोपलोकाः ।

विश्र्वेश्र्वरं त्वामभिमत्य विश्र्वे नन्दं भवज्जातकमन्वपृच्छन् ॥१॥

गर्गोदिते निर्गदितो निजाय वर्गाय तातेन तव प्रभावः ।

पूर्वाधिकस्त्वय्यनुराग एषामैधिष्ट तावद् बहुमानभारः ॥२॥

ततोऽवमानोतदततत्त्वबोधः सुराधिराजः सहदिव्यगव्यः ।

उपेत्य तुष्टाव स नष्टगर्वः स्पृष्ट्वा पदाब्जं मणिमौलिनां ते ॥३॥

स्नेहस्नुतैस्त्वां सुरभिः पयोभिर्गोविन्दनामाङ्कितमभ्यषिञ्चत् ।

ऐरावतोपाहृतादिव्यगङ्गापाथोभिरिन्द्रोऽपि च जातहर्षः ॥४॥

जगत्त्रयेशे त्वयि गोकुलेशे तथाभिषक्ते सति गोपवाटः ।

नाकेऽपि वैकुण्ठपदेऽप्यलभ्यां श्रियं प्रपेदे भवतः प्रभावात् ॥५॥

कदाचिदन्तर्यमुने प्रभाते स्नायन् पिता वारुणपूरुषेण ।

नीतस्तमानेतुमगाः पुरीं त्वं तां वारुणीं कारणमर्त्यरूपः ॥६॥

ससम्भ्रमं तेन जलाधिपेन प्रपूजितस्त्वं प्रतिगृह्य तातम् ।

उपागतस्तत्क्षणमात्मगेहं पितावदत् तच्चरितं निजेभ्यः ॥७॥

हरिं विनिश्र्चित्य भवन्तमेतान् भवत्पदालोकनबद्धतृष्णान् ।

निरीक्ष्य विष्णो परमं पदं तद् दुरापमन्यैस्त्वमदीदृशस्तान् ॥८॥

स्फुरत्परानन्दसप्रवाहप्रपूर्णकैवल्यमहापयोधौ ।

चिरं निमग्नाः खलु गोपसङ्घास्त्वयैव भूमन् पुनरुद्धृतास्ते ॥९॥

करबदरवदेवं देव कुत्रावतारे

परपदमनवाप्यं दर्शितं भक्तिभाजाम् ।

तदिह पशुपरूपी त्वं हि साक्षात् परात्मा

पवनपुरनिवासिन् पाहि मामामयेभ्यः ॥१०॥

॥ इति गोविन्दाभिषेकवर्णनं नन्दानयनवर्णनं च चतुःषष्टितमदशकं समाप्तम् ॥

पर्वतको उठाना आदि आपके भारी प्रभावको देखकर समस्त गोपोंने आपको जगदीश्र्वर माना और नन्दरायसे आपकी जन्मकुण्डलीका फल पूछा ॥१॥

तब आपके पिता नन्दने स्वजन -वर्गको आपका वह प्रभाव कह सुनाया , जिसे मुनिवर गर्गाचार्यने बताया था । उसे सुनकर गोपोंका आपके प्रति पहलेसे भी अधिक अनुराग और अत्यन्त समादरका भाव बढ़ गया ॥२॥

तदनन्तर जिन्हें अपमान मिलनेसे तत्त्वका बोध हो गया था , वे देवराज इन्द्र देवलोकाकी गौ सुरभिके साथ आपके पास आये । उनका सारा गर्व गल गया था । अतः उन्होंने अपने मणिमय मुकुटसे आपके चरणारविन्दका स्पर्श करके स्तवन किया ॥३॥

उस समय सुरभि देवीने स्नेहके कारण झरते हुए अपने दूधसे आपका अभिषेक किया और गौओंके इन्द्रके रूपमें आपका नाम ‘गोविन्द ’ रखा । इन्द्रने भी अत्यन्त प्रसन्न होकर ऐरावतके द्वारा लाये गये आकाशगङ्गाके जलसे आपका अभिषेक किया ॥४॥

त्रिभुवनके स्वामी आप गोकुल -पतिका इस प्रकार अभिषेक होनेपर वह गोपोंका बाड़ा —— आपके प्रभावसे उस लक्ष्मीको प्राप्त हुआ , जो स्वर्ग और वैकुण्ठमें भी अलभ्य है ॥५॥

एक दिन आपके पिता नन्दजी प्रातःकाल स्नान करनेके लिये जब यमुनाजीके जलमें प्रविष्ट हुए , तब वरुणका एक सेवक उन्हें अपनी पुरीमें पकड़ ले गया । तब कारणवशात् मनुष्यरूप धारण करनेवाले आप उन्हें ले आनेके लिये वरणु देवताकी नगरीमें गये ॥६॥

वहॉं जलाधिपति वरुण बड़े वेगसे उठकर आपका उत्कृष्ट पूजन किया । फिर आप अपने पिताको साथ लेकर तत्काल अपने घर लौट आये वहॉं आनेपर पिताने आपके चरित्रका आत्मीय गोपजनोंके समक्ष वर्णन किया ॥७॥

विष्णो ! तब ‘आप साक्षात् श्रीहरि हैं ’— ऐसा निश्र्चय करके इन गोपोंके मनमें आपके धामको देखनेकी तृष्णा बढ़ गयी । यह देख आपने उन सबको अपना वह परमधाम दिखाया , जो दूसरोंके लिये दुर्लभ हैं ॥८॥

भूमन् ! उच्छलित परमान्द -रसके प्रवाहसे परिपूर्ण उस कैवल्यमहासागरमें वे गोपसमूह चिरकालतक डूबे रहे । फिर आपने ही उन्हें वहॉंसे उत्थापित किया ॥९॥

देव ! आपने दुसरे किस अवतारमें इस तरह हाथपर रखे हुए वेरके समान अपना अलभ्य परमपद भक्तजनोंको दिखलाया था । अतः इस भूतलपर गोपरूपधारी आप साक्षात् परमात्मा ही हैं । पवनपुरनिवासी प्रभो ! मेरी रोगोंसे रक्षा कीजिये ॥१०॥


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Last Updated : November 11, 2016

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