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अष्टसप्ततितमदशकम्

दशमस्कन्धपरिच्छेदः - अष्टसप्ततितमदशकम्

श्रीनारायणके दूसरे रूप भगवान् ‍ श्रीकृष्णकी इस ग्रंथमे स्तुति की गयी है ।


त्रिदशवर्धकिवर्धितकौशलं त्रिदशदत्तसमस्तविभूतिमत् ।

जलधिमध्यगतं त्वमभूषयो नवपुरं वपुरञ्जितरोचिषा ॥१॥

ददुषि रेवतभृभृति रेवतीं हलभृते तनयां विधिशासनात् ।

महितमुत्सवघोषमपूपुषः समुदितैर्मुदितैः सह यादवैः ॥२॥

अथ विदर्भसुतां खलु रुक्मिणीं त्वयि देव सहोदरः ।

स्वयमदित्सत चेदिमहीभुजे स्वतमसा तमसाधुमुपाश्रयन् ॥३॥

चिरधृतप्रणया त्वयि बालिका सपदि काङ्क्षितभङ्गसमाकुला ।

तव निवेदयितुं द्विजमादिशत् स्वकदनं कदनङ्गविनिर्मितम् ॥४॥

द्विजसुतोऽपि च तूर्णमुपाययौ तव पुरं हि दुराशदुरासदम् ।

मुदमवाप च सादरपूजितः स भवता भवतापहृता स्वयम् ॥५॥

स च भवन्तमवोचत कुण्डिने नृपसुता खलु राजाति रुक्मिणी ।

त्वयि समुत्सुकया निजधीरतारहितया हि तया प्रहितोऽस्म्यहम् ॥६॥

तव हृतास्मि पुरैव गुणैरहं हरति मां किल चेदिन१पोऽधुना ।

अयि कृपालय पालय मामिति प्रजगदे जगदेकपते तया ॥७॥

अशरणां यदि मां त्वमुपेक्षसे सपदि जीवितमेव जहाम्यहम् ।

इति गिरा सुतनोरतनोद् भृशं सुहृदयं हृदयं तव कातरम् ॥८॥

अकथयस्त्वमथैनमये सखे तदधिका मम मन्मथवेदना ।

नृपसमक्षमुपेत्य हराम्यहं तदयि तां दयितामसितेक्षणाम् ॥९॥

प्रमुदितेन च तेन समं तदा रथगतो लघु कुण्डिनमेयिवान्

गुरुमरुत्पुरनायक मे भवान् वितनुतां तनुतामखिलापदाम् ॥१०॥

॥ इति रुक्मिणीस्वयंवरम् अष्टसप्ततिमदशकं समाप्तम्॥

जिसके निर्माणमें विश्र्वकर्माद्वारा अपना सारा कला -कौशल बढ़ा -चढ़ाकर लगा दिया गया था , जिसे लोकपालोंने समस्त विभूतियॉं प्रदान कर रखी थीं तथा जो समुद्रके मध्यमें विराजमान थी , उस नवीनपुरी द्वारकाको आप अपनी प्रशस्त देहकान्तिसे सुशोभित करने लगे ॥१॥

भूपाल रेवतने ब्रह्माजीकी आज्ञासे अपनी कन्या रेवती बलरामजीको दे दी थी । तब आपने हर्षपूर्वक एकत्रित हुए यादवोंके साथ उस महान् विवाहोत्सवको सम्पन्न किया ॥२॥

देव ! तदनन्तर विदर्भराजकी कन्या रुक्मिणीको , जो आपमें अनुराग रखेनवाली थी , अकेला उसका सहोदर भाई रुक्मी चेदिराज शिशुपालको देना चाहता था ; क्योंकि अपने अज्ञानके कारण वह असाधु चेदिराजका ही आश्रय ले रहा था ॥३॥

बहुत दिनोंसे आपमें अनुराग रखेनेवाली बालिका रुक्मिणी सहसा अपना मनोरथ भङ्ग होते देखकर व्याकुल हो उठी । तब उसने कुटिल काम (मिलनेकी अभिलाषा )-द्वारा सृष्ट अपनी व्याकुलताको आपसे निवेदन करनेके लिये एक ब्राह्मणको आपके पास भेजा ॥४॥

तब वे ब्राह्मणकुमार भी आपके उस नगरमें , जिसमें दुर्जनोंका प्रवेश पाना कठिन है , शीघ्र ही जा पहुँचे । वहॉं भवतापको हरण करनेवाले स्वयं आपद्वारा सादर पूजित होनेसे उन्हें परम आनन्द प्राप्त हुआ ॥५॥

तत्पश्र्चात् वे आपसे कहने लगे ——‘भगवन् ! कुण्डिननगरमें राजकुमारी रुक्मिणी शोभा पा रही है , वह आपके लिये ही उत्कण्ठित रहनेवाली है ; परंतु (उसके मनोरथमें विघ्न पड़नेके कारण ) वह अधीर हो उठी है । इसी कारण उसने मुझे आपके पास भेजा है ’ ॥६॥

जगत्के एकमात्र अधीश्र्वर ! उसने यों कहा है —— ‘हे करुणावरुणालय ! मैं आपके गुणोंद्वारा पहले ही हर ली गयी हूँ ; परंतु इस समय चेदिराज शिशुपाल मेरा हरण करना चाहता है । अतः आप मेरी रक्षा कीजिये ’ ॥७॥

‘ यदि आप मुझ असहायाकी उपेक्षा कर देंगे तो मैं तुरंत ही प्राण त्याग दूँगी । ’ इस प्रकार सुन्दरी रुक्मिणीके वचनोंद्वारा इस सुहृद् ब्राह्मणने आपके हृदयको अतिशय स्नेहकातर बना दिया ॥८॥

तब आप इन ब्राह्मणसे बोले —— ‘अये सखे ! मेरी अभिलाषा उससे भी अधिक है । इसलिये अयि विप्रवर ! मैं वहॉं आकर राजाओंके देखते -देखते उस कजरारे नेत्रोंवाली प्रियतमा रुक्मिणीको हर लाऊँगा ’ ॥९॥

तत्पश्र्चात् आनन्दमग्न हुए उस ब्राह्मणके साथ रथपर सवार होकर आप तुरंत ही कुण्डिनपुरको चल दिये । गुरुमरुत्पुरनायक ! आप मेरी सारी आपत्तियोंको क्षीण कर दीजिये ॥१०॥


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Last Updated : November 11, 2016

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