तत्त्वान्वय का - ॥ समास दसवां - गुणभूतनिरूपणनाम ॥

श्रीसमर्थ ने इस सम्पूर्ण ग्रंथ की रचना एवं शैली मुख्यत: श्रवण के ठोस नींव पर की है ।


॥ श्रीरामसमर्थ ॥
पंचभूतों से चले जग । पंचभूतों की ही गड़बड़ । पंचभूतों का होने पर विलय । फिर क्या बचे ॥१॥
वक्ता से पूछे श्रोता । भूतों की बढाई महत्ता । और त्रिगुणों का क्या हुआ । कहिये स्वामी ॥२॥
अंतरात्मा पांचवां भूत । त्रिगुण उसके अंगीभूत । सावध कर चित्त । देखो भली तरह ॥३॥
भूत याने जितने हो गये । त्रिगुण भी इसमें आये । खंडित हुआ इससे । मूल आशंका का ॥४॥
भूतों से अलग कुछ भी नहीं । भूतजात ये सर्व ही । एक दूसरे से भिन्न नहीं । हो कुछ भी ॥५॥
आत्मा से ही उपजा पवन । पवन से प्रकट हुआ अग्न । अग्नि से जीवन । कहते यों ॥६॥
जीवन सर्वत्र फैल गया । उसे रविमंडल ने सुखाया । वन्हि वायु से हुआ । भूमंडल ॥७॥
वन्हि वायु रवि न होने पर । फिर शीतलता होती अपार । उष्णता उस शीतलता के भीतर । इसी न्याय से ॥८॥ ‍
सारे मर्म को मर्म किया । तभी तो इतना विकसित हुआ । देहमात्र भी तयार हुआ । मर्म के कारण ॥९॥
सभी शीतल ही रहते । फिर प्राणीमात्र मर जाते । सभी उष्ण ही होते । तो झुलस जाता सब कुछ ॥१०॥
भूमंडल सूखकर घनीभूत होता । रवि किरणों से वह सूख जाता । तब देव ने सहज ही रचाया । उपाय इसका ॥११॥
इस कारण किया पर्जन्यकाल । ठंडा हुआ भूमंडल । आगे उष्ण कुछ शीतल । शीतकाल जानिये ॥१२॥
शीतकाल से हुये त्रस्त लोक । पाला पडा वृक्षादि पर । इसकारण आगे कौतुक । उष्णकाल का ॥१३॥
उसमें भी प्रातःकाल । मध्यान्हकाल सायकाल । शीतकाल उष्णकाल । निर्माण किये ॥१४॥
ऐसे एक के बाद एक किये । निश्चित रूप में क्रम लगाये । जीवित रहे इसीलिये । प्राणीमात्र ॥१५॥
नाना रसों से रोग कठिन । इस कारण औषधि की निर्माण । परंतु सृष्टि का विवरण । समझना चाहिये ॥१६॥
देहमूल रक्त रेत । उस आप से बनते दांत । ऐसी ही भूमडल में प्रचीत । नाना रत्नों की ॥१७॥
सभी का मूल जीवन से बंधा । जीवन से चले सकल धन्धा । जीवन के बिना हरि गोविंदा । प्राणी कैसे ॥१८॥
जीवन से मुक्ताफल । शुक्रसमान तेजोमय । हीरे माणिक इंद्रनील । हुये तेजस्वी ॥१९॥
महिमा किसकी करे कथन । हुआ सारा ही कर्दम । अलग अलग चयन । करे किस प्रकार ॥२०॥
परंतु कहा है कुछ एक । मन को समझने को विवेक । जनों में तार्किक लोक । समझते है सब कुछ ॥२१॥
सारा समझे यह तो होये ना । शास्त्र शास्त्रों में पटेना । अनुमान से निश्चय होये ना । कुछ भी ॥२२॥
अगाध गुण भगवंत के । शेष वर्णन न कर सके वाणी से । वेद विधि भी अधूरे । देव बिन ॥२३॥
आत्माराम सब को पाले । सारा त्रैलोक्य संभाले । उस एक के बिना धूल है। सबकी ॥२४॥
जहां आत्माराम नहीं । शेष न रह सके कुछ भी । त्रैलोक्य के प्राणी सर्व ही । प्रेतरूपी ॥२५॥
आत्मा न रहने पर आता मरण । आत्मा के बिना कैसा जीवन । भले विवेक का करो आकलन । अंतर्याम में ॥२६॥
समझना जो विवेक का । वह भी आत्मा के बिना कैसा । कोई एक जगदीश का । भजन करें ॥२७॥
उपासना प्रकट हुई । फिर यह विचारणा समझ में आई । इसकारण से चाहिये करनी । विचारणा देव की ॥२८॥
उपासना का महान आश्रय । उपासना बिना निराश्रय । उदंड किये तो भी जय । प्राप्त नहीं ॥२९॥
समर्थ नहीं पीछे जिसके । तो कोई भी देता मार उसे । इसकारण अति तत्परता से । भजन करें ॥३०॥
भजन साधन अभ्यास । इससे प्राप्त होता परलोक । दास कहे यह विश्वास । रखना चाहिये ॥३१॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे गुणभूतनिरूपणनाम समास दसवां ॥१०॥

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Last Updated : December 09, 2023

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