तत्त्वान्वय का - ॥ समास छठवा - वायुस्तवननिरूपणनाम ॥

श्रीसमर्थ ने इस सम्पूर्ण ग्रंथ की रचना एवं शैली मुख्यत: श्रवण के ठोस नींव पर की है ।


॥श्रीरामसमर्थ ॥
धन्य धन्य यह वायुदेव । इसका विचित्र स्वभाव । वायु के कारण सकल जीव । व्यवहार करते जनों में ॥१॥
वायु के कारण श्वासोच्छ्वास । नाना विद्याओं का अभ्यास । वायु कारणवश । चलन होये शरीर का ॥२॥
चलन मुड़न प्रसारण । निरोधन और आकुंचन । प्राण अपान व्यान उदान । समान वायु ॥३॥
नाग कूर्म कृकल वायो । देवदत्त धनंजयो । ऐसे ये वायु के स्वभावो । होते है उदंड ॥४॥
वायु ब्रह्मांड में प्रकट हुआ । ब्रह्मांड देवताओं को प्रदान किया। वहां से पिंड में प्रकट हुआ । नाना गुणों से ॥५॥
स्वर्गलोक में सकल देव । वैसे ही पुरुषार्थी दानव । मृत्यलोक के मानव । विख्यात राजा ॥६॥
नरदेह में नाना भेद । अनंत भेद के श्वापद । वनचर जलचर आनंद । से क्रीडा करते ॥७॥
उन सभी में वायु खेले । खगकुल सारा उडे । उठतीं वन्हि के लपटे । वायु के कारण ॥८॥
वायु मेघ से नभ भरता । साथ ही पीटकर दूर भगाता । कारोबारी वायु जैसा । नहीं कोई ॥९॥
मगर उस आत्मा की सत्ता । व्यवहार करे शरीर में तत्त्वतः । परंतु ऐसी समर्थ की व्यापकता । की नहीं तुलना ॥१०॥
फौज गिरी से भी घने । मेघों के उठे लोककाज के लिये । गरज गरज कर बिजली कडके । वायुबल से ॥११॥
चंद्र सूर्य नक्षत्रमाला । ग्रहमंडल मेघमाला । इस ब्रह्मांड में नाना कला । वायु ही के कारण ॥१२॥
एकाकार हुये चुन न सके । मिश्रित हुये सो अलग न होये । वैसे ये उलझने सारे । समझे कैसे ॥१३॥
वायु बहे सरटि से । असंभाव्य गिरते ओले जिससे । जीव भी गिरते वैसे । नीर के समान ॥१४॥
वायु रूप में कमल कला । वही आधार जल का । उसी जल के आधार से धरा । भूगोल को शेष ने ॥१५॥
शेष को पवन का आहार । आहार से फूले शरीर । तभी फिर उठाया भार । भूमंडल का ॥१६॥
महाकूर्म का शरीर विशाल । रखा उलटा ब्रह्मांड । ऐसा यह बडा शरीर । भी रहा वायु के ही कारण ॥१७॥
वराह ने अपने दांतों से । पृथ्वी को पकडा था ऐसे । इतनी शक्ति उसे । वायुबल से ॥१८॥
ब्रह्मा विष्णु महेश्वर । चौथा स्वयं जगदीश्वर । वायुस्वरूप विचार । विवेकी जानते ॥१९॥
तैंतीस कोटि सुरवर । अठ्यासी सहस्र ऋषेश्वर । सिद्ध योगियों के समूह अपार । वायु के ही कारण ॥२०॥
नौ कोटि कात्यायानि । छप्पन कोटि चामुंडिनी । साढे तीन कोटि भूत खानि । वायु रूप में ॥२१॥
भूत देवता नाना शक्ति । वायुरूप उनके व्यक्ति । नाना जीव ना जाने कितनी । भूमंडल में ॥२२॥
पिंड ब्रह्मांड को प्रदान किया । बाह्य कुंचक को भी दिया । सभी जगह प्रदान किया । समर्थ वायु ॥२३॥
ऐसा यह समर्थ पवन । हनुमंत है जिसका नंदन । रघुनाथ स्मरण में तनमन । हनुमंत का ॥२४॥
हनुमंत वायु का प्रसिद्ध । पिता पुत्र में नहीं भेद । इस कारण दोनो अभेद । पुरुषार्थ विषय में ॥२५॥
हनुमंत को कहते प्राणनाथ । इस गुण से यह समर्थ । प्राण बिन सकल व्यर्थ । होता है ॥२६॥
मार्ग में मृत्यु आई हनुमंत को । तब रोधित किया था बायु को । अस्वस्थ किया सभी देवों को । प्राणांत की स्थिति आई ॥२७॥
सभी देवों ने मिलकर । किया वायु का स्तवन । वायु ने प्रसन्न होकर । मुक्त किये ॥२८॥
इसकारण प्रतापी महान् । हनुमंत ईश्वरी अवतार । इसका पुरुषार्थ सुरवर । देखते ही रह गये ॥२९॥
देव थे कारागृह में । अवचित देखा हनुमंत ने । संहार कर आस पास लंका के । दुर्गति कर छोडा ॥३०॥
प्रतिशोध लिया देवों का । मूल खोजा राक्षसों का । बडा कौतुक पुच्छकेतु का । आश्चर्य लगे ॥३१॥
रावण था सिंहासन पर । ठूंसे मारे वहां जाकर । लंका में निरोध करें । उदक कैसा ॥३२॥
देव को मिला आधार । देखा महान पुरुषार्थ । मन में रघुनाथ । की करुणा करते ॥३३॥
सारे दैत्यों का संहार किया । देव को तत्काल मुक्त किया । प्राणिमात्र सुखी हुये । त्रैलोक्यवासी ॥३४॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे वायुस्तवननिरूपणनाम समास छठवां ॥६॥

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Last Updated : December 09, 2023

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