आत्मदशक - ॥ समास नववां - पिंडोत्पत्तिनिरूपणनाम ॥

 देहप्रपंच यदि ठीकठाक हुआ तो ही संसार सुखमय होगा और परमअर्थ भी प्राप्त होगा ।


॥ श्रीरामसमर्थ ॥
चारों खाणी के प्राणी होते । सारे उदक से ही बढते । ऐसे होते और जाते । अनगिनत ॥१॥
तत्त्वों का बना शरीर । अंतरात्मा संग हुआ तत्पर । खोजे उसका मूल अगर । तो वह उदकरूप ॥२॥
शरदकाल के शरीर । निचोड़ निचोड़ कर झरता नीर । उभय रेत एकत्र । मिलता रक्त से ॥३॥
अन्नरस देहरस । रक्त रेत से बंधे मूस । रस द्वय से सावकाश । बढ़ने लगा ॥४॥
बढ़ते बढ़ते बढ़ गया । कोमल से कठिन हुआ । आगे उदक फैल गया । नाना अवयवों में ॥५॥
संपूर्ण होते ही बाहर आये । भूमि पर गिरते ही रोने लगे । सभी का यही होये । ऐसा है ॥६॥
देह बढ़े कुबुद्धि बढ़े । मूल से ही सारा होता जाये । सारा ही टूटे और बढ़े । देखते देखते ॥७॥
दिनों दिन सभी के शरीर । बढ़ने लगते आगे जाकर । सूझने लगते विचार । अलग अलग ॥८॥
फल में बीज आया । उसी न्याय से वहां हुआ । सुनते देखते समझ में आया । सब कुछ ॥९॥
बीज उदक से अंकुरित होते । उदक ना हो तो उड़ जाते । एक ही जगह उदक मिट्टी रहते । तो अच्छा ॥१०॥
दोनों में रहने पर बीज । भीगकर अंकुरित होता सहज । बढते बढते आगे रीझ । उदंड है ॥११॥
इधर मूल दौड़ लगाते । उधर अग्र डोलते । मूल अग्र द्विधा होते । बीज से ॥१२॥
मूल जाते पाताल में । अग्र दौडते अंतराल में । नाना पत्र पुष्प फलों से लदते पेड ॥१३॥
फलों से श्रेष्ठ सुमन । सुमनों से श्रेष्ठ पत्ते । पत्तों से श्रेष्ठ अनुसंधान । काष्ठों का ॥१४॥
काष्ठों से श्रेष्ठ मूल बारीक । मूली से श्रेष्ठ वह उदक । उदक सूखने से कौतुक । भूमंडल का ॥१५॥
ऐसी है इसकी प्रचीति । इसलिये सबसे श्रेष्ठ धरती । धरती से श्रेष्ठ मूर्ति । आपोनारायण की ॥१६॥
उससे श्रेष्ठ अग्निदेव । अग्नि से श्रेष्ठ वायुदेव । वायुदेव से श्रेष्ठ स्वभाव । अंतरात्मा का ॥१७॥
सबसे श्रेष्ठ अंतरात्मा । उसे ना जाने वह दुरात्मा । दुरात्मा याने दूर आत्मा । हुआ उससे ॥१८॥
पास रहकर भी चूक गये । प्रत्यय के इच्छुक ना रहे । व्यर्थ ही आये और गये । ईश्वर के कारण ॥१९॥
अतः सबसे श्रेष्ठ देव । उससे होते ही अनन्यभाव । फिर इस प्रकृति का स्वभाव । पलटने लगे ॥२०॥
करे अपना व्यासंग । कदापि ना होने दे ध्यानभंग । बोलने चलने में व्यंग । पडने ही ना दे ॥२१॥
श्रेष्ठों ने जो निर्माण किया । उसे चाहिये देखना । क्या क्या श्रेष्ठ ने निर्माण किया । देखें कितना ॥२२॥
वह श्रेष्ठ जहां चेता । वही भाग्यपुरुष हुआ । अल्प चेतना से हुआ । उसे अल्पभाग्य ॥२३॥
उस नारायण को मन में । अखंड स्मरण करें ध्यान में । फिर लक्ष्मी उससे । दूर जायेगी कहां ॥२४॥
विश्व में है नारायण । उसका करते जायें पूजन । संतुष्ट करें इस कारण । कोई काया ॥२५॥
उपासना खोजकर देखी । तो वह हुई विश्वपालन कर्ती । न समझे लीला कोई भी । परीक्षा ना कर पाये ॥२६॥
देव की लीला देव के बिन । और दूसरा देखे कौन । देखे जितना उतना स्वयं । देव ही होये ॥२७॥
उपासना सकल ही ठाई । आत्माराम कहीं नहीं । इसकारण ठाई ठाई । राम की ही सत्ता चले ॥२८॥
ऐसी मेरी उपासना । अनुमान में ला सके ना । ले जाती निरंजना । के उस पार ॥२९॥
देव कारण कर्म होते । देव कारण उपासक बनते । देव कारण ज्ञानी रहते । कितने सारे ॥३०॥
नाना शास्त्र नाना मत । देव ने ही कहें है समस्त । अचूक चूक व्यवस्थित अव्यवस्थित । कर्मानुसार ॥३१॥
देव को सारा करना पड़े । उसमें से उचित उतना लें । अधिकार अनुसार चलें । याने अच्छा ॥३२॥
आवाहन विसर्जन । ऐसे ही कहा विधान । पूर्वपक्ष यहां हुआ पूर्ण । सिद्धांत आगे ॥३३॥
वेदांत सिद्धांत धादांत । प्रचीति प्रमाण निश्चित । पंचीकरण छोड़ कर हित । वाक्यार्थ देखें ॥३४॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे पिडोत्पत्तिनिरूपणनाम समास नववां ॥९॥

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Last Updated : December 09, 2023

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