आत्मदशक - ॥ समास दूसरा - निस्पृहव्यापलक्षणनाम ॥

 देहप्रपंच यदि ठीकठाक हुआ तो ही संसार सुखमय होगा और परमअर्थ भी प्राप्त होगा ।


॥ श्रीरामसमर्थ ॥
पृथ्वी पर मानव शरीर । छोटे बडे भरे अपार । पलटते मनोविकारानुसार । क्षण क्षण में ॥१॥
जितनी मूर्ति उतनी प्रकृति । सरीखी न रहती आदि अंति । नियम ही नहीं देखें कितनी । क्या कहकर ॥२॥
कई एक म्लेंच्छ हुये । कई एक फिरंगाने में लुप्त हुये । देश भाषा से रुद्ध हुये । कई एक ॥३॥
थोड़ा सा बचा महाराष्ट्र देश । राजकारण में लोग व्यस्त । भोजन के लिये नहीं अवकाश । उदंड काम ॥४॥
उलझे बहुत युद्धप्रसंग में । उस कारण उन्मत्त हुये । रात दिन करने लगे । युद्धचर्चा ॥५॥
व्यापारी को व्यासंग लगा । अवकाश खत्म हुआ। पेट धंधे में ही व्यस्त हुआ । निरंतर ॥६॥
षट्दर्शन नाना मत । पाखंड बढ़े बहुत । पृथ्वीपर यत्र तत्र । उपदेश देते ॥७॥
स्मार्थी और वैष्णवी ये । बचे खुचे ले गये सारे । देखो तो गड़बड़ ऐसे । उदंड हुई ॥८॥
कई कामना के भक्त । जगह जगह हुये आसक्त । युक्त अथवा अयुक्त । देखता कौन ॥९॥
इस गड़बड़ में गड़बड़ बहुत । किस किसने बढाया अपना पंथ । उसे वैदिक लोक । देख ना पाते ॥१०॥
उस में भी हरिकीर्तन । वहां खींचे गये बहुत जन । प्रत्यय का ब्रह्मज्ञान । देखें कौन ॥११॥
इस कारण ज्ञान दुर्लभ । पुण्य से हुआ अलभ्य लाभ । विचारवंतों के लिये सुलभ । सभी कुछ ॥१२॥
विचार समझा कहना ना आये । उदंड आती अड़चने ये । उपाय सोचो तो अपाय । आडे आते ॥१३॥
इनमें भी जो तीक्ष्ण । व्यर्थ ना जाने दें एक क्षण । धूर्त तार्किक विचक्षण । सभी को माने ॥१४॥
नाना जिनस उदंड पाठ । कहने लगा धड़ाधड़ । बिकट से की सरल बांट । सामर्थ्य बल से ॥१५॥
प्रबोध शक्ति के अनंत द्वार । जाने सभी के अभ्यंतर । निरूपण से तद्नंतर । चटक लगे ॥१६॥
सभी मत मतांतरे । प्रत्यय बोलकर सपाट करे । प्रथा त्याग स्वच्छ सुथरे । जनों में वेध लगाये ॥१७॥
निश्चित भेदक वचन । अखंड देखे प्रसंगमान । उदास वृत्ति का आवरण । चुपचाप उठ जाता ॥१८॥
प्रत्यय बोलकर उठ गया जो । चटक लग गई लोगो को । नाना मार्ग छोड़ उसको । शरण आते ॥१९॥
मगर वह कहीं दिखे ना । किसी स्थान पर मिले ना । वेष देखो तो हीनदीना । जैसा दिखे ॥२०॥
उदंड करे गुप्त रूप से । भिखारी समान स्वरूप से । वहां यश कीर्ति प्रताप है। मर्यादा लांघे ॥२१॥
स्थान स्थान पर भजन कराये । स्वयं वहां से निकल जाये । मत्सर मत की उलझने । लगने न दे ॥२२॥
गुफा में जाकर रहे । वहां कोई भी ना देखे । सबकी चिंता वहन करे । सर्वकाल ॥२३॥
बीहड स्थल कठिन लोग। वहां रहे नेमस्त । सृष्टि के सकल लोग । खोजते आते ॥२४॥
वहां किसी की चले ना । अणुमात्र अनुमान होये ना । समुदाय कर राजनीति में । लोग लगाये ॥२५॥
लोगों से लोग बढ़ाये । जिससे अमर्याद हुये । भूमंडल में सत्ता चले । गुप्त रूप मे ॥२६॥
ठाई ठाई समुदाय उदंड । मनुष्यमात्र होते आकृष्ट । चारों ओर फैले उदंड । परमार्थबुद्धि ॥२७॥
उपासना का गजर । जगह जगह पर अपार । प्रत्यय से प्राणीमात्र । मुक्त किये ॥२८॥
जाने ऐसी युक्तिया अनेक । जिससे सयाने होते लोग। जहां वहां प्रत्यय हो सुदृढ । प्राणी मात्रों को ॥२९॥
ऐसी कीर्ति करके जाये। तभी संसार में आये । दास कहे स्वभाविकता से । कहा संकेतरूप में ॥३०॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसवादे निस्पृहव्यापलक्षणनाम समास दूसरा ॥२॥

N/A

References : N/A
Last Updated : December 09, 2023

Comments | अभिप्राय

Comments written here will be public after appropriate moderation.
Like us on Facebook to send us a private message.
TOP