आत्मदशक - ॥ समास चौथा - शाश्वतब्रह्मनिरूपणनाम ॥

 देहप्रपंच यदि ठीकठाक हुआ तो ही संसार सुखमय होगा और परमअर्थ भी प्राप्त होगा ।


॥ श्रीरामसमर्थ ॥
वृक्ष उपजते पृथ्वी से । लकडी होती वृक्ष से । आगे लकडी भस्म होने से । फिर पृथ्वी ही होती ॥१॥
पृथ्वी से बेल होती । नाना जिनसों में फैलती । सूखकर सड़कर होप्ती । फिर से पृथ्वी ही ॥२॥
नाना फसल से नाना अन्न । मनुष्य करते भोजन । नाना विष्ठा नाना वमन । पृथ्वी ही होते ॥३॥
नाना पक्ष्यादिकों ने भक्षण किया । फिर भी आगे वैसा ही हुआ । सूखकर भस्म हो गया । पुनः पृथ्वी ॥४॥
सुनो मनुष्य मरते ही । कृमि भस्म या मिट्टी । ऐसी अनेक काया मिटती । आगे पृथ्वी ॥५॥
नाना तृण पदार्थ सड़ते । आगे वे मिट्टी बनते । नाना कीड़े मर जाते । पुनः पृथ्वी ॥६॥
पदार्थ खचाखच भरे अपार । कितना कहें विस्तार । पृथ्वी बिना आधार । है किसे ॥७॥
पेड़ पत्तियां और तृण । पशु के खाने पर बनता गोबर । खाद मूत्र भस्म मिलाकर । पुनः पृथ्वी ॥८॥
उत्पत्ति स्थिति संहार होते जिसे । वह सारे मिल जाते पृथ्वी से । जो जो आते और मिटते । पुनः पृथ्वी ॥९॥
नाना बीजों के राशी । बढकर गगन से भिडती । आगे अंत मे मिल जाती । पृथ्वी में ॥१०॥
लोग नाना धातु गाडते । बहुत दिनों बाद मिट्टी बनते । सुवर्ण और पाषाण की गति है। ऐसी ही ॥११॥
मिट्टी से होता सुवर्ण । और मृत्तिका ही होती पाषाण । महाअग्नि संग होकर भस्म । पृथ्वी ही होती ॥१२॥
सुवर्ण से जरी बनती । जरी अंत में सड जाती । रस बनकर पिघलती । पुन्हा पृथ्वी ॥१३॥
पृथ्वी से धातु उपजते । अग्निसंग रस बनते । उस रस के जग में होते । कठिन रूप ॥१४॥
नाना जलों से गध छूटे । वहा पृथ्वी का रूप प्रकटे । दिनोंदिन जल सूखे । रहती पृथ्वी ॥१५॥
पत्र पुष्प फल आते । नाना जीव खाकर जाते । वे जीव मरने पर पृथ्वी होते । नियम ही है ॥१६॥
जितना कुछ भी बना आकार । उसे पृथ्वी का आधार । आते जाते प्राणीमात्र । अंततः पृथ्वी ॥१७॥
ये सब कितना कहें । विवेक से सारा ही जानें । उत्पत्ति विनाश का समझें । मूल ऐसे ॥१८॥
आप सूखकर पृथ्वी हुई । पुनः आप में ही लय हुई । अग्नियोग से भस्म हुई । इस कारण ॥१९॥
आप हुआ तेज से । आगे तेज ने सुखाया । उसे । वह तेज उपजा वायु से । आगे वायु झपटे उसे ॥२०॥
वायु गगन से निर्माण हुआ । आगे गगन में ही विलीन हुआ । उत्पत्ति विनाश को ऐसा देखो भली तरह ॥२१॥
जो जो जहां से निर्माण होता । वह वहीं विलीन होता । इस रीति से नाश होता । पंचभूतों का ॥२२॥
भूत याने जो निर्माण हुआ । पुनः पश्चात नष्ट हुआ । आगे शाश्वत जो बचा । वह परब्रह्म ॥२३॥
वह परब्रह्म जब तक समझे ना । तब तक जन्ममृत्यु चूके ना । चत्वार खाणी के जीव नाना । होना पड़ता ॥२४॥
जड़ का मूल वह चंचल । चंचल का मूल वह निश्चल । निश्चल को नहीं मूल । देखें ठीक से ॥२५॥
हो चुका वह पूर्वपक्ष । दृश्यनिरसन याने सिद्धांत । पक्षातीत जो सर्वव्याप्त । वह परब्रह्म ॥२६॥
यह जानें प्रचीति से । संकेत दृढ करें विचार से । विचार बिन श्रम करने से । मूर्खता होगी ॥२७॥
ज्ञानी दब गया संकोच से । निश्चल परब्रह्म कैसे उसे । व्यर्थ ही गड़बड़ करे । माया में ॥२८॥
माया निःशेष नष्ट हुई । आगे स्थिति कैसी रही । विचक्षण ने विवरण कर देखनी । चाहिये स्वय ॥२९॥
निःशेष माया का निरसन । होते ही आत्मनिवेदन । वाच्याश नही विज्ञान । जानें कैसे ॥३०॥
लोगों की बातों में जो आया । वह अनुमान में ही डूब गया । इस कारण प्रत्यय को भला । पुनः पुनः देखें ॥३१॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसवादे शाश्वतब्रह्मनिरूपणनाम समास चौथा ॥४॥

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Last Updated : December 09, 2023

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