हिंदी सूची|हिंदी साहित्य|अनुवादीत साहित्य|रामदासकृत हिन्दी मनके श्लोक|भीमदशक| ॥ समास चौथा - विवेकनिरूपणनाम ॥ भीमदशक ॥ समास पहला - सिद्धांतनिरूपणनाम ॥ ॥ समास दूसरा - चत्वारदेवनिरूपणनाम ॥ ॥ समास तीसरा - सिकवणनिरूपणनामः ॥ ॥ समास चौथा - विवेकनिरूपणनाम ॥ ॥ समास पाचवा - राजकारणनिरूपणनाम ॥ ॥ समास छठवां - महंतलक्षणनाम ॥ ॥ समास सातवां - चंचलनदीनिरूपणनाम ॥ ॥ समास आठवां - अंतरात्माविवरणनाम ॥ ॥ समास नववां - उपदेशनाम ॥ ॥ समास दसवां - निस्पृहवर्तणुकनाम ॥ भीमदशक - ॥ समास चौथा - विवेकनिरूपणनाम ॥ ३५० वर्ष पूर्व मानव की अत्यंत हीन दीन अवस्था देख, उससे उसकी मुक्तता हो इस उदार हेतु से श्रीसमर्थ ने मानव को शिक्षा दी । Tags : hindimanache shlokramdasमनाचे श्लोकरामदासहिन्दी ॥ समास चौथा - विवेकनिरूपणनाम ॥ Translation - भाषांतर ॥ श्रीरामसमर्थ ॥ ब्रह्म याने निराकार । गगन समान विचार । विकार नहीं निर्विकार । वही ब्रह्म ॥१॥ ब्रह्म याने निश्चल । अंतरात्मा वह चंचल । द्रष्टा साक्षी केवल । कहते उसे ॥२॥ वह अंतरात्मा याने देव । उसका चंचल स्वभाव । पालता है सकल जीव । रहकर अंतरंग में ॥३॥ उससे अलग जड़ पदार्थ । उसके बिन देह व्यर्थ । उससे ही समझे परमार्थ । सब कुछ ॥४॥ कर्ममार्ग उपासनामार्ग । ज्ञानमार्ग सिद्धांतमार्ग । प्रवृत्ति निवृत्ति नाना मार्ग । चलाये देव ही ॥५॥ चंचल बिन निश्चल समझे ना । चंचल फिर भी स्थिर होये ना । ऐसे ये विचार नाना। देखो अच्छी तरह ॥६॥ चंचल निश्चल की संधि । वहां भ्रमित होती बुद्धि । कर्ममार्ग की जो विधि । वह फिर इस ओर ॥७॥ देव इन सब का मूल । देव को न मूल न डाल । परब्रह्म वह निश्चल । निर्विकारी ॥८॥ निर्विकारी और विकारी । एक कहे वह भिखारी । विचारों की निवृत्ति होती वही । देखते देखते ॥९॥ सकल परमार्थ का मूल । पंचीकरण महावाक्य केवल । वही करें प्रांजल । पुनः पुनः ॥१०॥ पहला देह स्थूल काया । आठवां देह मूलमाया । अष्टदेहों का निरसन हुआ । तो विकार कैसा ॥११॥ इस कारण विकारी। सच जैसी बाजीगरी । एक समझे एक खरी । मानता है ॥१२॥ उत्पत्ति स्थिति संहार । इनसे अलग निर्विकार । समझने के लिये सारासार । विचार किया ॥१३॥ सार असार दोनों एक । वहां कैसे रहे विवेक । परीक्षा न जानते रंक । पापी अभागे ॥१४॥ जो एक ही विस्तारित हुआ । वह अंतरात्मा कहलाया । नाना विकारों से विकारित हुआ । नहीं निर्विकारी ॥१५॥ प्रगट ही है ऐसे । देखें अपने प्रत्यय से । क्या रहे क्या न रहे । यह भी समझें ना ॥१६॥ जो अखंड होते जाता । जो सर्वदा संहार करता । रोकडी प्रचीति में आता । जनों में ॥१७॥ कोई रोता कोई तड़पता । कोई किसी का गला पकडता । एक दूसरे पर टूट पडता । अकालग्रस्त जैसे ॥१८॥ नहीं न्याय नहीं नीति । ऐसी लोगों की आचरण रीति । और समस्त ही कहते सार । विवेकहीन ॥१९॥पत्थर त्यागकर सोना लें । मिट्टी त्यागकर अन्न खायें । और सभी को सार कहें । विवेकहीनता से ॥२०॥इस कारण यह विचार । सत्यमार्ग ही धरें । लाभ जान स्वीकार करें । विवेक का ॥२१॥ सार असार एक ही समान । वहां क्या बचा परीक्षण । चतुर लोग इस कारण । परीक्षा करें ॥२२॥ जहां परीक्षा का अभाव । वहां दे घाव ले घाव । सभी समान स्वभाव । चालाकी का ॥२३॥ ले सके वही लिया जाये । न ले सके वह त्यागें । ऊंच नीच पहचानें। इसका नाम ज्ञान ॥२४॥ संसार के बाजार में आये । कोई लाभ से अमर हुये । कोई अभागे फंस ग ये। मुद्दल खोया ॥२५॥ ज्ञानीजन ऐसा न करें । सार को ही खोजकर लें । असार पहचानकर त्यागें । जैसे वमन ॥२६॥ वह वमन करे प्राशन । फिर वह श्वान का लक्षण । वहां शुचिश्मंत ब्राह्मण । क्या करे ॥२७॥ जिन्होंने जैसा संचित किये । वे वैसे ही फल पाये । जो भी अभ्यास में पड़कर जकड़े । वे तो छूटे ना ॥२८॥ कोई दिव्यान्न खाते । कोई विष्ठा संग्रह करते । अपने पूर्वजों पर करतें । साभिमान ॥२९॥ अस्तु विवेक के बिन । बोलो यह सब थकान । कोई एक श्रवणमनन । करें ही करें ॥३०॥ इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे विवेकनिरूपणनाम समास चौथा ॥४॥ N/A References : N/A Last Updated : December 05, 2023 Comments | अभिप्राय Comments written here will be public after appropriate moderation. Like us on Facebook to send us a private message. TOP