देवशोधन नाम - ॥ समास तीसरा - मायोद्भवनाम ॥

श्रीसमर्थ ने ऐसा यह अद्वितीय-अमूल्य ग्रंथ लिखकर अखिल मानव जाति के लिये संदेश दिया है ।


॥ श्रीरामसमर्थ ॥
निर्गुण आत्मा वह निर्मल । जैसे आकाश अंतराल । सघन निर्मल निश्चल । सदोदित ॥१॥
जो खंडित ही ना हो अखंड । जो उदंड से भी उदंड । जो गगन से भी व्यापक । और सूक्ष्म ॥२॥
जो दिखे ना ना भासे ना । जो उपजे ना ना नाश होये । जो आये ना ना जाये ना । परब्रह्म वह ॥३॥
जो चंचल होये ना ना ढले ना । जो टूटे ना ना फूटे ना । जो रचे ना ना खचे ना । परब्रह्म वह ॥४॥
जो सम्मुख ही सर्वकाल । जो निःकलंक और निखल । सर्वांतर आकाशपाताल । व्याप्त होकर रहे ॥५॥
अविनाश वह ब्रह्म निर्गुण । नाश पाये सो माया सगुण । सगुण और निर्गुण । मिश्रित हुये ॥६॥
इस कर्दम का विचार । करना जानते योगेश्वर । जैसे क्षीर और नीर । राजहंस चुनता ॥७॥
जड सबल पंचभौतिक । उसमें आत्मा व्यापक । वह नित्यानित्यविवेक । देखने से समझे ॥८॥
ईख का लीजिये रस । बचा सो त्यागें नीरस । वैसे जग में जगदीश । विवेक से पहचानें ॥९॥
रस नाशवान तरल । आत्मा शाश्वत निश्चल । रस अपूर्ण आत्मा केवल । परिपूर्ण जानें ॥१०॥
आत्मा समान एक हो । फिर उसे दृष्टांत से समझाओ । दृष्टांत द्वारा समझो । किसी तरह ॥११॥
ऐसी व्यापक हुई आत्मस्थिति । वहां माया कैसे आई । जैसे आकाश में उठी । लहर वायु की ॥१२॥
वायु से तेज हुआ । तेज से आप उत्पन्न हुआ । आप से आकारित हुआ । भूमंडल ॥१३॥
भूमंडल से उत्पत्ति । अनगिनत जीवों की गिनती । परंतु ब्रह्म आदिअंती । व्याप्त है ॥१४॥
जो जो कुछ निर्माण हुआ । वह सारा ही नाश हुआ । मगर मूलतः ब्रह्म वह संचारित रहा । जैसे का वैसे ॥१५॥
घट के पूर्व आकाश जैसे । घट में आकाश भासे । घट फूटने पर ना नाशे । आकाश जैसे ॥१६॥
वैसे परब्रह्म केवल । अचल और अढल । बीच में होता जाता सकल । सचराचर ॥१७॥
जो जो कुछ निर्माण हुये । वो वो पहले ही ब्रह्म व्याप्त हुये । सर्व नष्ट होने पर बचे रहे । अविनाश ब्रह्म ॥१८॥
ऐसा ब्रह्म जो अविनाश । उसी की सेवा करते ज्ञाते पुरुष । तत्त्व निरसन पर लाभ स्वयं । को स्वयं का ॥१९॥
तत्त्व से तत्त्व मिलाया । उसको देह नाम रखा । वह ज्ञाता पुरुषों ने खोजा । तत्त्व से तत्त्व ॥२०॥
तत्त्व समूह निःशेष होते ही । वहां देहअहंता लुप्त गई । निर्गुण ब्रह्म से एकता हुई । विवेक से ॥२१॥
विवेक से देह को देखा । तो तत्त्व से तत्त्व अदृश्य हुआ । मैं है ही नहीं यह आया । प्रत्यय में ॥२२॥
अपने आप को खोजा जाता । अपनी तो मायिक वार्ता । तत्त्वांर्ती बचा तत्त्वतः । निर्गुण ब्रह्म ॥२३॥
अहं बिन निर्गुण ब्रह्म । यही निवेदन का मर्म । तत्त्व के साथ गया भ्रम । मैं तू पन का ॥२४॥
मैं पन देखने पर दिखेना । निर्गुण ब्रह्म वह चंचल होये ना । स्वयं वही मगर समझे ना । सद्गुरु बिन ॥२५॥
सारासार सारा खोजा । तो असार सारा निकल गया । आगे सार शेष रहा । निर्गुण ब्रह्म ॥२६॥
पहले किया ब्रह्म निरूपित । वही सभी में व्याप्त । सकल सारे ही हुये नष्ट । बचा वह केवल ब्रह्म ॥ २७॥
होते ही विवेक से संहार । वहां चुना जाता सारासार । अपना स्वयं को अपना विचार । समझ में आये ॥२८॥
स्वयं ने कल्पित किया मैं पन । मैंपन ढूंढने पर न रहता जान । मैंपन जाने पर निर्गुण । आत्मा ही स्वयं ॥२९॥
होने पर तत्त्वों का निरसन । निर्गुण आत्मा ही मैं स्वयं । क्यों दिखायें मैंपन । तत्त्व निरसन होने पर ॥३०॥
तत्त्वों में से मैंपन गया । तो भी निर्गुण सहज ही रह गया । सोहंभाव से प्रत्यय में आया । आत्मनिवेदन ॥३१॥
आत्मनिवेदन जब होता । देव भक्त की एकता । साचार भक्त विभक्तता । त्यागकर हुआ ॥३२॥
निर्गुण को नहीं जन्म मरण । निर्गुण को नहीं पाप पुण्य । निर्गुण से अनन्य होते ही स्वयं । मुक्त हुआ ॥३३॥
तत्त्वों ने घेरा डाल लिया । प्राणी संशय में डूब गया । अपने को स्वयं भूल गया । कहे कोहं ॥३४॥
तत्त्वों में उलझकर कहे कोहं । विवेक देखें तो कहे सोहं । अनन्य होते ही अहं सोहं । अस्त हुये ॥३५॥
इसके ऊपर जो उर्वरित । वे ही स्वरूप संत । देह में होकर भी देहातीत । जानिये ऐसे ॥३६॥
संदेहवृत्ति वह न भंगे । इस कारण पुनः पुन कहना पडे । प्रसंगानुरूप कहा हमने । श्रोतां क्षमा करें ॥३७॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे मायोद्भवनाम समास तीसरा ॥३॥

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Last Updated : December 01, 2023

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