हिंदी सूची|हिंदी साहित्य|अनुवादीत साहित्य|रामदासकृत हिन्दी मनके श्लोक|देवशोधन नाम| ॥ समास दूसरा - ब्रह्मपावननाम ॥ देवशोधन नाम ॥ समास पहला - देवशोधननाम ॥ ॥ समास दूसरा - ब्रह्मपावननाम ॥ ॥ समास तीसरा - मायोद्भवनाम ॥ ॥ समास चौथा - ब्रह्मनिरूपणनाम ॥ ॥ समास पांचवां - मायाब्रह्मनिरूपणनाम ॥ ॥ समास छठवां - सृष्टिकथननाम ॥ ॥ समास सातवां - सगुणभजननाम ॥ ॥ समास आठवां - दृश्यनिरसननाम ॥ ॥ समास नववां - सारशोधननाम ॥ ॥ समास दसवां - अनिर्वाच्यनाम ॥ देवशोधन नाम - ॥ समास दूसरा - ब्रह्मपावननाम ॥ श्रीसमर्थ ने ऐसा यह अद्वितीय-अमूल्य ग्रंथ लिखकर अखिल मानव जाति के लिये संदेश दिया है । Tags : hindimanache shlokramdasमनाचे श्लोकरामदासहिन्दी ॥ समास दूसरा - ब्रह्मपावननाम ॥ Translation - भाषांतर ॥ श्रीरामसमर्थ ॥ सुनो लक्षण उपदेश के । सायुज्य प्राप्ति हों जिससे । अवलोकन नाना मतों के । काम न आये सर्वथा ॥१॥ ब्रह्मज्ञान बिना उपदेश । उसे कहें नहीं विशेष । धान्य बिन जैसे भूस । खाया न जाये ॥२॥ नाना कड़बी को पिटवाया । या फिर छाछ ही मथा । अथवा धोवन ही सेवन किया । सावकाश ॥३॥छिलके नाना भक्षण किया । अथवा चूसी गुठलियां । खोबरा छोडकर खाया । नट्टी जैसे ॥४॥ वैसे ब्रह्मज्ञान के बिन । नाना उपदेशों के श्रम । सार त्याग असार कौन । सयाना सेवन करे ॥५॥ अब ब्रह्म जो कि निर्गुण । वही किया निरूपण । सुचित करें अंतःकरण । श्रोताजन ॥६॥ सकल सृष्टि की रचना । वह तो पंचभूतिक जान । परंतु यह टिके ना । सर्वकाल ॥७॥ आदि अंत ब्रह्म निर्गुण । यही शाश्वत की पहचान । बाकी पंचभूतिक सगुण । नाशवंत ॥८॥ अन्यथा ये भूत देखने पर । कैसे कहें इन्हें ईश्वर । भूत देखने पर । मनुष्य को विषाद लगे ॥९॥ फिर वह तो जगज्जनक परमात्मा । उसे और भूतउपमा। जिसकी न समझे महिमा । ब्रह्मादिकों को ॥१०॥भूतों जैसा जगदीश । कहने पर उत्पन्न होता दोष । इस कारण महापुरुष । सर्व ही जानते ॥११॥ पृथ्वी आप तेज वायु आकाश । इनमें सबाह्यंतरी जगदीश । पंचभूतों को है नाश । आत्मा अविनाशरूपी ॥१२॥ जो जो रूप और नाम । वह सारा ही भ्रम । नामरूपातीत मर्म । अनुभव से जानें ॥१३॥ पंचभूत और त्रिगुण । ऐसी अष्टधा प्रकृति जान । अष्टधा प्रकृति को नामाभिधान । दृश्य ऐसा ॥१४॥ यह दृश्य तो नाशवान । ऐसे वेदश्रुति का कथन । शाश्वत है ब्रह्म निर्गुण । जानते ज्ञानी ॥१५॥ जो शस्त्र से तोडें तो टूटे ना । जो पावक से जलायें तो जले ना । घुलाने पर घुल जायें ना । आप में ॥१६॥ जो वायु से उडे ना । जो पडे ना ना झडे ना । जो बने ना ना छिपे ना । परब्रह्म वह ॥१७॥ जिसे वर्ण ही न हो । जो सभी से भिन्न हो । परंतु निरंतर ही रहता हो । सर्वकाल ॥१८॥दिखे ना तो क्या हुआ । परंतु वह सर्वत्र छा गया । सूक्ष्म रूप में समाया । जहां वहा ॥१९॥ दृष्टि का स्वभाव ये । जो दिखे वही देखे । परंतु गूढ वह जानें । गुप्त है ॥२०॥ प्रकट को वह जानिये असार । और गुप्त वह जानिये सार । गुरुमुख से यह विचार । समझ में आये ॥२१॥ जो समझे ना उसे समझिये । जो दिखे ना उसे देखिये । जो अनाकलनीय वह जानिये । विवेकबल से ॥२२॥गुप्त को ही प्रकट करायें । असाध्य को ही साधियें । गुह्य का ही अभ्यास कीजियें । सावकाश ॥२३॥ वेद विरंची और शेष । जहां थके निःशेष । वही साधिये विशेष । परब्रह्म जो ॥२४॥ फिर उसे साध्य करें कैसे । वही कहा सहजता से । पायें अध्यात्मश्रवण से । परब्रह्म जो ॥२५॥ पृथ्वी नहीं आप नहीं । तेज नहीं वायु नहीं । वर्णव्यक्त होता नहीं । अव्यक्त जो ॥२६॥ उसको कहिये देव । बाह्यकारी लोगों का स्वभाव । जितने गांव उतने देव । जनों के कारण ॥२७॥ ऐसा देव का निश्चय हुआ । देव निर्गुण प्रत्यय में आया । अब स्वयं ही अपना । शोध करें ॥२८॥ मेरा शरीर कहते हो ऐसे । तो भी जानें उसे भिन्न ही देह से । मन मेरा जानते हो ऐसे । फिर भी वह मन ही नहीं ॥२९॥ देखें अगर देह का विचार । सारा तत्त्वों का विस्तार । तत्त्वों में तत्त्व मिले तो सार । आत्मा ही बचे ॥३०॥स्वयं का ठांव ही नहीं । यहां देखना न पडे कुछ भी । तत्त्व अपने अपने जगह पर ही । विभाजित हुये ॥३१॥ बांधी है तो गठरी । विचार से खोले जो कोई । विचार देखें तो यह गठरी । दिखे ही ना ॥३२॥ तत्त्वों की गठरी शरीर । इसका देखने पर विचार । एक आत्मा निरंतर । अहं नहीं ॥३३॥ अहं का ठांव ही नहीं । जन्ममृत्यु कैसे किसकी । देखने पर निर्गुण के ठाई । पाप पुण्य न रहे ॥३४॥पापपुण्य यमयातना । निर्गुण में तो यह होये ना । स्वयं वही फिर जन्म मृत्यु का । ठांव कहां ॥३५॥देहबुद्धि से बांधा । वह विवेक से मुक्त किया । देहातीत होते ही पाया । मोक्षपद ॥३६॥ हुआ जन्म का सार्थक । निर्गुण आत्मा स्वयं एक । परंतु यह विवेक । पुनः पुनः देखें ॥३७॥ जागने पर स्वप्न टूटे । विवेक देखने पर दृश्य मिटे । स्वरूपानुसंधान से तरे । प्राणिमात्र ॥३८॥ स्वयं से करे निवेदन । विवेक से न रहे स्वयं । इसका नाम आत्मनिवेदन । ऐसे जानो ॥३९॥ पहले अध्यात्मश्रवण । तब सद्गुरूपादसेवन । आगे आत्मनिवेदन । सद्गुरूप्रसाद से ॥४०॥ आत्मनिवेदन के उस पार । शुद्ध ब्रह्म निरंतर । अहमात्मा' यह भीतर । बोध हुआ ॥४१॥ इस ब्रह्मबोध से ब्रह्म ही हुआ । ससारखेद वह उड गया । देह प्रारब्ध पर छोड दिया । सावकाश ॥४२॥ इसे कहते आत्मज्ञान । इससे मिलता समाधान । परब्रह्म में अभिन्न । भक्त ही हुआ ॥४३॥ अब होना जो वह होता रहे । जाना है जो जाता रहे । टूटी मन की आशंका ये । जन्म मृत्यु की ॥४४॥संसार में आने की झंझट चूके । देव भक्त एक हुये । मुख्य देव को पहचान लिये । सत्संग के कारण ॥४५॥ इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे ब्रह्मपावननाम समास दूसरा ॥२॥ N/A References : N/A Last Updated : December 01, 2023 Comments | अभिप्राय Comments written here will be public after appropriate moderation. Like us on Facebook to send us a private message. TOP