हिंदी सूची|हिंदी साहित्य|अनुवादीत साहित्य|रामदासकृत हिन्दी मनके श्लोक|मंत्रों का नाम| ॥ समास आठवां - मुमुक्षुलक्षणनाम ॥ मंत्रों का नाम ॥ समास पहला - गुरुनिश्चयनाम ॥ ॥ समास दूसरा - गुरुलक्षणनाम ॥ ॥ समास तीसरा - शिष्यलक्षणनाम ॥ ॥ समास चौथा - उपदेशनाम ॥ ॥ समास पांचवां - बहुधाज्ञाननाम ॥ ॥ समास छठवां - शुद्धज्ञाननिरूपणनाम ॥ ॥ समास सातवा - बद्धलक्षणनाम ॥ ॥ समास आठवां - मुमुक्षुलक्षणनाम ॥ ॥ समास नववां - साधकलक्षण निरूपणनाम ॥ ॥ समास दसवां - सिद्धलक्षणनाम ॥ मंत्रों का नाम - ॥ समास आठवां - मुमुक्षुलक्षणनाम ॥ ‘संसार-प्रपंच-परमार्थ’ का अचूक एवं यथार्थ मार्गदर्शन इस में है । Tags : hindimanache shlokramdasमनाचे श्लोकरामदासहिन्दी ॥ समास आठवां - मुमुक्षुलक्षणनाम ॥ Translation - भाषांतर ॥ श्रीरामसमर्थ ॥ संसारमद के ही कारण । बहुविध हीन कुलक्षण । जिसका करने से मुखावलोकन । दोष ही लगे ॥१॥ ऐसा प्राणी जो कि बद्ध । संसार के व्यवहार में अबद्ध । उसे प्राप्त हुआ खेद । कालांतर में ॥२॥ संसारदुःख से दुःखित हुआ । त्रिविध तापों से दग्ध हुआ । निरूपण से पछताया । अंतर्याम में ॥३॥ हुआ प्रपंच से उदास । मन में लिया विषयत्रास । पूरा हुआ अब बस । संसार कहे ॥४॥ प्रपंच जायेगा सकल । यहां के श्रम वे निर्फल । अब कुछ अपना काल । सार्थक करूं ॥५॥ ऐसी बुद्धि प्रस्तावित । अभ्यंतर में हुआ अस्वस्थ । कहे मेरी आयु व्यर्थ । ही गई सारी ॥६॥ पहले बहुत दोष किये । वे सभी याद आये । आकर समक्ष खड़े हुये । अंतर्याम में ॥७॥ याद आई यम की यातना । उससे भयभीत हुआ मन । नहीं पापों की गणना । इस कारण ॥८॥ नहीं पुण्य का विचार । हुये पापों के डोंगर । अब दुस्तर यह संसार । कैसे तरूं ॥९॥ अपने दोष छिपाये । भलों को गुणदोष लगाये । हे ईश्वर मैंने व्यर्थ ही निंदा किये । संत साधु सज्जनों की ॥१०॥निंदा जैसा नहीं दोष । वहीं मुझसे हुआ विशेष । मेरे अवगुणों में आकाश । डूबना चाहे ॥११॥ नहीं पहचाने संत । नहीं पूजे भगवंत । ना ही अतीतअभ्यागत । संतुष्ट किये ॥१२॥ पूर्वपाप आया सम्मुख । मुझसे नहीं हुआ कुछ । मन रहा कुमार्गस्थ । सर्वकाल ॥१३॥ नहीं थकाया शरीर । नहीं किया परोपकार । नहीं रक्षा आचार । काम मद से ॥१४॥ भक्ति माता डुबाई । शांतिविश्रांति गंवाई । मूर्खतावश मैं ने बिगाड़ी । सद्बुद्धि सद्वासना ॥१५॥ अब कैसे होगा सार्थक । किये दोष निरर्थक । देखने जाओ तो विवेक । रहा ही नहीं ॥१६॥ उपाय करें कौन से । परलोक पायें कैसे । देवाधिदेव किन गुणों से । होंगे प्राप्त ॥१७॥ नहीं सद्भाव उपजा । केवल लौकिक संपादित किया । दंभ से झूठा । दिखावा किया । खटाटोप कर्मों का ॥१८॥ कीर्तन किया उदरार्थ । देव का लगाया बाजार । हे देव मेरी बुद्धि के कुव्यापार । मेरे मैं ही जानूं ॥१९॥ भीतर रखकर अभिमान । शब्दों से बोले निराभिमान । धन की लालसा रखी मन । और ध्यानस्थ हुआ ॥२०॥व्युत्पत्ति से लोग फंसाये । संतनिंदा की पेट के लिये । मेरे अंदर दोष भर गये । नाना प्रकार के ॥२१॥ किया सत्य का ही उच्छेदन । मिथ्या का ही किया प्रतिपादन । उदरभरण के कारण । किये ऐसे नाना कर्म ॥२२॥ऐसा भीतर पछताया । निरूपण से परिवर्तित हुआ । वही मुमुक्षु कहा गया । ग्रंथांतर में ॥२३॥ पुण्यमार्ग अंतरंग में धरे । सत्संग की वांछा करे । विरक्त हुआ संसार से । इसका नाम मुमुक्षु ॥२४॥ गये राजा चक्रवर्ती । वहां मेरे वैभव की क्या स्थिति । कहे धरूं सत्संगति । इसका नाम मुमुक्षु ॥२५॥ देखे अवगुण अपने । विरक्तिबल से पहचाने । अपनी निंदा दुःख से करे । इसका नाम मुमुक्षु ॥२६॥ कहे मैं तो क्या अनुपकारी । कहे मैं तो क्या दंभधारी । कहे मैं तो क्या अनाचारी । इसका नाम मुमुक्षु ॥२७॥ कहे मैं पतित चांडाल । कहे मैं दुराचारी खल । कहे मैं पापी केवल । इसका नाम मुमुक्षु ॥२८॥ कहे मैं अभक्त दुर्जन । कहे मैं हीन से भी हीन । कहे मैं पैदा हुआ पाषाण । इसका नाम मुमुक्षु ॥२९॥ कहे दुराभिमानी मैं । कहे मैं कोपी जनों में । कहे नाना व्यसनी मैं । इसका नाम मुमुक्षु ॥३०॥ कहे मैं आलसी कामचोर । कहे मैं कपटी कायर । कहे मैं मूर्ख अविचार । इसका नाम मुमुक्षु ॥३१॥ कहे मैं निकम्मा वाचाल । कहे मैं पाखंडी मुखचपल । कहे मैं कुबुद्धि कुटिल । इसका नाम मुमुक्षु ॥३२॥ कहे मैं कुछ भी ना जानूं । कहे मैं सबसे न्यून । बखाने अपने कुलक्षण । इसका नाम मुमुक्षु ॥३३॥ कहे मैं अनाधिकारी । कहे मैं घृणित अघोरी । कहे मैं नीच नाना प्रकारी । इसका नाम मुमुक्षु ॥३४॥ कहे मैं तो आपस्वार्थी । कहे मैं तो अनर्थी । कहे मैं तो नहीं परमार्थी । इसका नाम मुमुक्षु ॥३५॥ कहे मैं अवगुणों का ढेर । कहे मैं व्यर्थ आया जन्म लेकर । कहे हुआ मैं भूमिभार । इसका नाम मुमुक्षु ॥३६॥ करे स्वयं की निंदा सावकाश । अंतरंग में संसार से त्रस्त । करे सत्संग की प्रबल आस । इसका नाम मुमुक्षु ॥३७॥नाना तीर्थों को ढूंढा । शमदमादि साधन किया । नाना ग्रंथांतर देखा । खोज कर ॥३८॥ इनसे न हुआ समाधान । लगे ये सभी कुछ अनुमान । कहे जायें संतों के शरण । इसका नाम मुमुक्षु ॥३९॥देहाभिमान कुलाभिमान । द्रव्याभिमान नानाभिमान । त्यागकर संत चरणों में अनन्य । इसका नाम मुमुक्षु ॥४०॥ अहंता त्यागकर दूर । स्वयं की करे निंदा नाना प्रकार । मोक्ष की अपेक्षा रखकर । इसका नाम मुमुक्षु ॥४१॥ जिसका बडप्पन लजाये । परमार्थ के लिये जूझे । संतों के प्रति विश्वास उपजे । इसका नाम मुमुक्षु ॥४२॥ स्वार्थ त्याग प्रपंच का । आशा धरे परमार्थ का । अंकित रहूं सज्जन का । कहे सो मुमुक्षु ॥४३॥ ऐसे मुमुक्षु जानिये । संकेत चिन्हों से पहचानिये । आगे श्रोताओं अवधान दीजिये । साधक लक्षणों पर ॥४४॥ इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे मुमुक्षुलक्षणनाम समास आठवां ॥८॥ N/A References : N/A Last Updated : December 01, 2023 Comments | अभिप्राय Comments written here will be public after appropriate moderation. Like us on Facebook to send us a private message. TOP