हिंदी सूची|हिंदी साहित्य|अनुवादीत साहित्य|रामदासकृत हिन्दी मनके श्लोक|मंत्रों का नाम| ॥ समास तीसरा - शिष्यलक्षणनाम ॥ मंत्रों का नाम ॥ समास पहला - गुरुनिश्चयनाम ॥ ॥ समास दूसरा - गुरुलक्षणनाम ॥ ॥ समास तीसरा - शिष्यलक्षणनाम ॥ ॥ समास चौथा - उपदेशनाम ॥ ॥ समास पांचवां - बहुधाज्ञाननाम ॥ ॥ समास छठवां - शुद्धज्ञाननिरूपणनाम ॥ ॥ समास सातवा - बद्धलक्षणनाम ॥ ॥ समास आठवां - मुमुक्षुलक्षणनाम ॥ ॥ समास नववां - साधकलक्षण निरूपणनाम ॥ ॥ समास दसवां - सिद्धलक्षणनाम ॥ मंत्रों का नाम - ॥ समास तीसरा - शिष्यलक्षणनाम ॥ ‘संसार-प्रपंच-परमार्थ’ का अचूक एवं यथार्थ मार्गदर्शन इस में है । Tags : hindimanache shlokramdasमनाचे श्लोकरामदासहिन्दी ॥ समास तीसरा - शिष्यलक्षणनाम ॥ Translation - भाषांतर ॥ श्रीरामसमर्थ ॥ पीछे सद्गुरु के लक्षण । विशद किया निरुपण । अब सद्शिष्य की पहचान । सुनो सावधानी से ॥१॥ सद्गुरु बिन सद्शिष्य । वह निरूपयोगी निःसंशय । अथवा सद्शिष्य बिन विशेष । सद्गुरु थकते ॥२॥ उत्तम भूमि खोजी शुद्ध । वहां बीज बोये कीड खाद्य । अथवा उत्तम बीज मगर संबंध । पथरीली भूमी से ॥३॥ वैसे शिष्य वह सत्पात्र । और गुरु कहे मंत्रतंत्र । वहां अरत्र ना परत्र । कुछ भी नहीं ॥४॥ अथवा गुरु पूर्ण कृपाकारी । मगर शिष्य अनाधिकारी । भाग्यपुरुष का भिखारी । पुत्र जैसा ॥५॥ वैसे एक के बिना एक । होते है निरर्थक । परलोक का सार्थक । तो दूर ही दूर होता ॥६॥ इस कारण सद्गुरु और सद्शिष्य । वहां न लगते सायास । वहां एक दूसरे की आस । पूरी होती एकसाथ ॥७॥ सुभूमि और उत्तम कण । ऊगता नहीं पर्जन्य बिन । वैसे अध्यात्मनिरुपण । न होने पर होता ॥८॥ खेत बोया और ऊगा । परंतु निगरानी बिन व्यर्थ गया । साधन बिन वैसे हुआ । साधक का ॥९॥ फसल भोगने लायक हो जबतक । सभी करना पडता तबतक । फसल आने पर भी निश्चिंत । रहे ही नहीं ॥ १०॥वैसे आत्मज्ञान हुआ । परंतु साधन चाहिये करना । एक बार उदंड खाया । फिर भी सामग्री चाहिये ॥११॥ इस कारण साधन अभ्यास और सद्गुरु । सद्शिष्य और सद्शास्त्रविचार । सत्कर्म और सद्वासना से पार । पाये भवसागर से ॥१२॥ सदुपासना और सत्कर्म । सत्क्रिया और स्वधर्म । सत्संग और नित्यनेम । निरंतर ॥१३॥ ऐसे ये सारे ही मिले । तभी विमल ज्ञान निथरे । नहीं तो पाखंड संचारता बल से । समुदाय में ॥१४॥यहां नहीं शिष्य का दोष । ये सब सद्गुरु के पास । सद्गुरु पलटाते अवगुण । नाना यत्नों से ॥१५॥ सद्गुरु से असच्छिष्य पलटे । परंतु सद्शिष्य से असद्गुरु न पलटे । क्योंकि बडप्पन टूटे । इस कारण ॥१६॥इस कारण सद्गुरु चाहिये । तभी सन्मार्ग पाये । नहीं तो होते । पाखंड उलझनें ॥१७॥ यहां सद्गुरु ही कारण । अन्य सब निष्कारण । तथापि कहूं पहचान । सच्छिष्य की ॥१८॥ मुख्य सच्छिष्य का लक्षण । सद्गुरुवचन में विश्वासपूर्ण । अनन्यभाव से शरण । इसका नाम सच्छिष्य ॥१९॥शिष्य चाहिये निर्मल । शिष्य चाहिये आचारशील । शिष्य चाहिये केवल । विरक्त अनुतापी ॥२०॥ शिष्य चाहिये निष्ठावंत । शिष्य चाहिये शुचिष्मंत । शिष्य चाहिये नेमस्त । सर्व प्रकार से ॥२१॥ शिष्य चाहिये साक्षेपी विशेष । शिष्य चाहिये परम दक्ष । शिष्य चाहिये अलक्ष्य । में लक्ष्यें ऐसे ॥२२॥ शिष्य चाहिये अतिधीर । शिष्य चाहिये अतिउदार । शिष्य चाहिये अतितत्पर । परमार्थविषयक ॥२३॥ शिष्य चाहिये परोपकारी । शिष्य चाहिये निर्मत्सरी । शिष्य चाहिये अर्थ में ही । प्रवेश कर्ता ॥२४॥शिष्य चाहिये परमशुद्ध । शिष्य चाहिये परमसावध । शिष्टः चाहिये अगाध । उत्तम गुणों का ॥२५॥ शिष्य चाहिये प्रज्ञावंत । शिष्य चाहिये प्रेम भक्त । शिष्य चाहिये नीतिवंत । मर्यादाशील ॥२६॥ शिष्य चाहिये युक्तिवंत । शिष्य चाहिये बुद्धिवंत । शिष्य चाहिये संतासंत । विचार ग्रहण कर्ता ॥२७॥ शिष्य चाहिये धीरता का । शिष्य चाहिये दृढता का । शिष्य चाहिये उत्तम कुल का । पुण्यशील ॥२८॥ शिष्य हो सात्विक । शिष्य हो भजक । शिष्य हो साधक । साधनकर्ता ॥ २९॥ शिष्य हो विश्वासी । शिष्य हो कायाक्लेशी । शिष्य हो परमार्थी । बढानेवाला ॥३०॥ शिष्य हो स्वतंत्र । शिष्य हो जगमित्र । शिष्य हो सत्पात्र । सर्व गुणों में ॥३१॥ शिष्य हो सद्धविद्या का । शिष्य हो सद्भाव का । शिष्य चाहिये परमशुद्ध भाव का । अंतरंग से ॥३२॥ शिष्य न हो अविवेकी । शिष्य न हो गर्भसुखी । शिष्य हो संसार दुःखी । संतप्त देही ॥३३॥ जो संसारदुःख से दुःखी हुआ । जो त्रिविध तापों से दग्ध हुआ । वही अधिकारी हुआ । परमार्थ का ॥३४॥दुःख भोगे जिसने बहुत । उसमें ही दृढ हुआ परमार्थ । संसार दुःख के ही कारण । उपजे वैराग्य ॥३५॥ जिसे संसार का त्रास । उसी में उपजे विश्वास । विश्वासबल से दृढ काछ । धरता सद्गुरु की ॥३६॥ अविश्वास से काछा छोड़े । ऐसे बहुतेक भव में डूबे । सुख दुःख के नाना जलचरों ने । तोड़ा बीच में ही ॥३७॥ इस कारण दृढ विश्वास । उसे ही जानिये सच्छिष्य । मोक्षाधिकारी विशेष । अग्रगण्य ॥३८॥ सद्गुरुवचनों से जो हुआ शांत । वही सायुज्यता का अंकित । संसार आसक्ति से विचलित । न होता कभी ॥३९॥ सद्गुरु से देव बड़ा । जिसे लगे वह अभागा । वैभवपथ से छूटा । सामर्थ्य सनक से ॥४०॥ सद्गुरुस्वरूप वह संत । और देव का होगा कल्पांत । वहां कैसे बचेगा सामर्थ्य । हरिहरों का ॥४१॥इस कारण सद्गुरुसामर्थ्य अधिक । जहां ओछे पड़ते ब्रह्मादिक । अल्पबुद्धि मानवी रंक । उन्हें यह समझे ना ॥४२॥गुरु- देव की बराबरी । करे सो शिष्य दुराचारी । भ्रांति छा गई अभ्यंतरी । सिद्धांत ना जाने ॥४३॥देव की कल्पना करे मानव । मंत्र से मिला उसे देवत्व । मगर सद्गुरु की कल्पना करना है असंभव । ईश्वर को भी ॥४४॥ इसलिये सद्गुरु संपूर्ण । देव से अधिक कोटि गुन । जिसके वर्णन से अनबन । वेदशास्त्रों में होती ॥४५॥ अस्तु सद्गुरुपद समान । नहीं दूसरा कोई भी महान । देव सामर्थ्य वह कितना । माया जनित ॥४६॥ अहो ! सद्गुरुकृपा हो जिसपर । सामर्थ्य न चले उस पर । ज्ञानबल से वैभव अपार । तृणतुल्य किया ॥४७॥सद्गुरुकृपा के बल से । अपरोक्षज्ञान से ही उछाले । मायासहित ब्रह्मांड सारे । दृष्टि में न आये ॥४८॥ ऐसा सच्छिष्य का वैभव । सद्गुरु वचनों में दृढ भाव । इसी गुण से देवराव । होता स्वयं ही ॥४९॥ अंतरंग में अनुताप से हुआ तप्त । जिससे अभ्यंतर हुआ शुद्ध । आगे सद्गुरु वचनों से हुआ शांत । सच्छिष्य ऐसा ॥५०॥ लगते ही सद्गुरुवचन पथ । गया ब्रह्मांड भी अगर पलट । तो भी जिसका शुद्ध भावार्थ । घटता नहीं ॥५१॥ शरण सद्गुरु के गये । ऐसे सच्छिष्य चुने गये । क्रिया परिवर्तन से बन गये । पावन ईश्वरमय ॥५२॥ ऐसा सद्भाव रखे जो भीतर । वे ही मुक्ति के भागीदार । अन्य मायिक वेषधारक । असच्छिष्य ॥५३॥ लगे विषयों में सुख । परमार्थ से संपादन लौकिक । दिखाने के लिये पढत मूर्ख । शरण गये ॥५४॥ हुई विषयों में वृत्ति अनावर । दृढ धरा जो संसार । परमार्थ चर्चा का विचार । मलीन हुआ ॥५५॥ परमार्थ से विमुख हुआ । प्रपंच में लिप्त हुआ । कुटुंब का बोझ ढोया । बना कबाड़ी ॥५६॥ माना प्रपंच में आनंद । किया परमार्थ का विनोद । भ्रांत मूढ़ मतिमंद । उलझा वासना में ॥५७॥शूकर को लगाया सुगंध लेपन । महिष का किया चंदन से मर्दन । वैसे ही विषयी को ब्रह्मज्ञान । बोध विवेक का ॥५८॥ कूडे में लोटे गर्दभ । उसे कैसा परिमल सुख । अंधेरें में उड़ता उलूक । उसे हसं की संगत कहां ॥५९॥ वैसे भिखारी विषय द्वार का । अधः पतन में कूद पड़ता । उसे भगवंत प्रेम का । सत्संग कैसा ॥६०॥ ऊपर कर दंतपंक्ति । श्वानपुत्र चबाये अस्थि । वैसा ही तडपे विषयासक्ति । विषयसुख के कारण ॥६१॥उस श्वानमुख में परमान्न । अथवा मर्कट को सिंहासन । वैसे विषयासक्त को ज्ञान । पचेगा कैसे ॥६२॥ गधे पालने में जन्म बीता । वह पंडितों में प्रतिष्ठा न पाता । वैसे ही आसक्त पाता । नहीं परमार्थ ॥६३॥ जमा राजहंसों का मेला । वहां आया डोम कौआ । लक्ष्य उसका विष्ठा का गोला । और हंस कहलवाये ॥६४॥ वैसे ही सज्जनों के संगत में । विषयीजन सज्जन कहलवाये । अमेघ्य १ विषय चित्त में । उस गोले पर लक्ष्य करते ॥६५॥ बगल में दारा लेकर । कहे मुझे संन्यासी कर । वैसे ही विषयी हड़बड़ाकर । ज्ञान बडबडाये ॥६६॥ अस्तु ऐसे जो पढतमूर्ख । वे क्या जाने अद्वैतसुख । देहबुद्धि के प्राणी नरक । भोगते स्वइच्छा से ॥६७॥वेश्या की सेवा करे । उसे मंत्री कैसे कहे । वैसे ही विषयदास को माने । भक्तराज कैसे ॥६८॥ वैसे विषयासक्त लाचार । उसे ज्ञान किस प्रकार साचार । वाचाल शाब्दिक अपार । हुये बाह्यात्कारी ॥६९॥ ऐसे शिष्य परम नष्ट । कनिष्ठों में कनिष्ठ । हीन अविवेक और दुष्ट । खल खोटे दुर्जन ॥७०॥ ऐसे जो पापरूप । दीर्घ दोषी वज्रलेप । उन्हें प्रायश्चित अनुताप । उद्भव होने पर होता ॥७१॥ वे भी पुनः शरण जाये । सद्गुरु को संतुष्ट करें । कृपादृष्टि होने पर होगे । पुनः शुद्ध ॥७२॥ स्वामीद्रोह जिससे होता । वह यावच्चंद्र नरक में पडता । उसका उपाय ही न होता । स्वामी के संतुष्टी बिना ॥७३॥ स्मशान वैराग्य आया। इस कारण साष्टांग नमन किया । इस कारण प्राप्त होता । नहीं ज्ञान ॥७४॥ भाव लाया त्याग का । मंत्र लिया गुरु का । शिष्य हुआ दो दिनों का । मंत्र के कारण ॥७५॥ ऐसे गुरु किये उदंड । शब्द सीखा पाखंड । बना वाचाल तर्मुंड । महापाखंडी ॥७६॥ घड़ी में रोता और गिरता । घड़ी में वैराग्य चढ़ता । घड़ी में अहंभाव जुडता । ज्ञातापन का ॥७७॥ घड़ी में विश्वास धरे । घडी में अकस्मात् गुरगुर करे । ऐसे नाना ढोंग करे । पागल जैसा ॥७८॥ काम क्रोध मद मत्सर । लोभ मोह नाना विकार । अभिमान कापट्य तिरस्कार । हृदय में रहते ॥७९॥ देह मोह और अहंकार । विषय संग और अनाचार । उद्वेग प्रपंच संसार । रहते अंतरंग में ॥८०॥ दीर्घसूत्री कृतघ्न पापी । कुकर्मी कुतर्की विकल्पी । अभक्त अभाव शीघ्रकोपी । निष्ठुर परघातक ॥८१॥हृदयशून्य और आलसी । अविवेकी और अविश्वासी । अधीर अविचार संदेह जैसी । का दृढ धर्ता ॥८२॥ आशा ममता तृष्णा कल्पना । कुबुद्धि दुर्वृत्ति दुर्वासना । अल्पबुद्धि विषयकामना । बसे हृदय में ॥८३॥ ईषणा असूया तिरस्कार से । निंदा प्रवृत्ति आदर से । गरजता देहाभिमान से । दिखाकर ज्ञातापन ॥८४॥ क्षुधा तृष्णा सह सके ना । निद्रा सहसा धरे ना । कुटुंब चिंता घटे ना । पड़ा भ्रम में ॥८५॥ शाब्दिक बोले उदंड वाचा । लेश नहीं वैराग्य का । अनुताप धैर्य साधन का । मार्ग न धरे ॥८६॥ भक्ति विरक्ति ना शांति । लीनता न इंद्रियदमन ना सद्वृत्ति । कृपा दया ना तृप्ति । सद्बुद्धि है ही नहीं ॥ ८७॥ कायाक्लेशी शरीरहीन । धर्मविषय में परम कृपण । क्रिया न पलटे कठिन । हृदय जिसका ॥८८॥ आर्जव नहीं जनों से । जो अप्रिय सज्जन से । अहर्निशि जिसके जीव में बसे । परम न्यूनता ॥८९॥ सदा सर्वदा दांभिक । बोले वचन मायिक भ्रामक । क्रिया विचार देखो तो एक । वचन भी सत्य नहीं ॥९०॥ परपीडा विषय में तत्पर । जैसे बिच्छू की दंश अंगार । वैसे कुशब्द जिव्हा पर । दुखाये सब को ॥९१॥ छिपाये अपने अवगुण । बोले दुसरों से कठिन । मिथ्या गुणदोष बिन । लगाये गुण दोष ॥९२॥ स्वयं पापात्मा भीतर । न दिखाये करुणा दूसरों पर । जैसे हिंसक करे दुराचार । परदुःख से थके ना ॥९३॥ दुःख परायों का न जानता । दुर्जन दुखियों को दुख देता । कष्ट होने पर आनंद पाता । अपने मन में ॥९४॥ स्वदुःख से दुःखी होता भीतर । और हास्य करे परदुःख पर । उसे प्राप्त होता यमपुर । राजदूत पीटते ॥९५॥ अस्तु मदांध बेचारे ऐसे । भगवंत उनसे जुडे कैसे । उन्हें लगाव नहीं सुबुद्धि से । पूर्व पातकों के कारण ॥९६॥ उसे देह के अंत में । गात्र क्षीणता पायेंगे । और आप्तबंधु त्यागेंगे । जानेगा तब ॥ ९७॥ अस्तु अलग ऐसे गुणों से । वे सच्छिष्य निराले । उत्सव दृढ भावार्थ से । भोगते स्वानंद का ॥९८॥ जिस स्थान विकल्प जागे । कुलाभिमान पीछे पड़े । वे प्राणी प्रपंच संग से । भोगते दुःख ॥९९॥ जिस कारण दुःख हुआ। वही मन में दृढ पकड़ा । इसी कारण प्राप्त हुआ । पुनः दुःख ॥१००॥ संसार संग से सुख हुआ । ऐसा देखा न सुना । ऐसे जानकर अनहित किया । वे दुःखी होते स्वयं ॥१०१॥ संसार में सुख मानते । वे प्राणी मूढमती । जानकर आंखे मूंदते । पढतमूर्ख ॥१०२॥ प्रपंच सुख से करे । परंतु कुछ परमार्थ बढायें । परमार्थ सारा ही डुबायें। यह विहित नहीं ॥१०३॥ पीछे हुआ निरुपण । गुरुशिष्यों की पहचान । अब उपदेश के लक्षण । करूंगा कथन ॥१०४॥ इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे शिष्यलक्षणनाम समास तीसरा ॥३॥ N/A References : N/A Last Updated : December 01, 2023 Comments | अभिप्राय Comments written here will be public after appropriate moderation. 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