पूर्णदशक - ॥ समास चौथा - आत्मनिरूपणनाम ॥

इस ग्रंथके पठनसे ‘‘उपासना का श्रेष्ठ आश्रय’ लाखों लोगों को प्राप्त हुआ है ।


॥ श्रीरामसमर्थ ॥
सकल जनों से प्रार्थना । व्यर्थ ही उदास होयें ना । निरूपण लायें प्रत्यय का । मन में ॥१॥
प्रत्यय रहा एक ओर । हम दौडते दूसरी ओर । सारासार का निर्णय फिर । कैसे होगा ॥२॥
यूं ही देखें अगर सृष्टि को । गडबड दिखती दृष्टि को । परंतु राजसत्ता की बातें तो । अलग ही है ॥३॥
पृथ्वी पर जितने शरीर । उतने भगवंत के घर । नाना सुख जिस द्वार । से प्राप्त होते ॥४॥
कौन समझेगा उसकी महिमा । माता बांटकर कृपालु हुआ । प्रत्यक्ष जगदीश करे है रक्षा । जगत की ॥५॥
पृथ्वी में सत्ता बांटी । जहां वहां विभाजित हुई । कला से सृष्टि चलने लगी । भगवंत के ॥६॥
मूल ज्ञाता पुरुष की सत्ता । शरीर में विभाजित हुई तत्त्वतः । सकल कला चातुर्यता । वहां बसे ॥७॥
सकल पुरों का ईश । जग में वह पुरुष । नाना शरीर सावकाश । करने लगा ॥८॥
देखने पर सृष्टि की रचना । वह एक से चलेना । एक ही चलाये नाना । देह धरकर ॥९॥
नहीं ऊंच नीच पूछा । नहीं भला बुरा देखा । कार्य चले ऐसा हुआ । भगवंत से ॥१०॥
अथवा अज्ञान को आडा किया । या अभ्यास में लगाया । यह कैसे कैसे किया । उसका वही जाने ॥११॥
जगदंतर में अनुसंधान । अच्छा देखें यही ध्यान । ध्यान और वह ज्ञान । एकरूप ॥१२॥
प्राणी संसार में आया । कुछ एक सयाना हुआ । फिर वह घूमने लगा । भूमंडल में ॥१३॥
प्रकट राम का निशान । आत्माराम ज्ञानघन । विश्वंभर विद्यमान । भाग्य से समझे ॥१४॥
उपासना खोजी वासना धरी । फिर वह बढ़ते ही गई । महिमा न समझे बोली । यथार्थ है ॥१५॥
द्रष्टा याने जो देखता । साक्षी जानिये ज्ञाता । अनंतरूपी अनंता । को पहचानें ॥१६॥
संगति रहें अच्छों की । आदत कथा निरूपण की । कुछ एक विश्रांति । मिले मन को ॥१७॥
उसमें भी प्रत्ययज्ञान । जला देता अनुमान । प्रचीति बिन समाधान । मिले कैसे ॥१८॥
मूल संकल्प वह हरिसंकल्प । मूलमाया में साक्षेप । जगदंतर में वही रूप । दिखता है ॥१९॥
उपासना ज्ञानस्वरूप । ज्ञानी चौथा देह आरोप । इसकारण सर्व संकल्प । छोड दें ॥२०॥
आगे परब्रह्म विशाल । गगनसमान पोला । घन तरल कोमल । क्या कहें ॥२१॥
उपासना याने ज्ञान । ज्ञान से पाइये निरंजन । योगियों का समाधान । इस प्रकार है ॥२२॥
गहन विचार कर देखे । तो उपासना स्वयं ही है । एक जाये एक रहे । देह धरकर ॥२३॥
अखंड उलझने ऐसे । चली आ रही परंपरा से । अब भी चल रही है वैसे । उत्पत्तिस्थिति ॥२४॥
वनों पर वनचरों की सत्ता । जल पर जलचरों की सत्ता । भूमंडल पर भूपालों की समस्त । इसी न्याय से ॥२५॥
सामर्थ्य है चलाचली का । जो जो करेगा उसका । परंतु यहां भगवंत का । अधिष्ठान चाहिये ॥२६॥
कर्ता जगदीश यह तो है खरा । परंतु पृथकाकार से विभाजित हुआ । वहां पागलपन अहंता का । बाधा न करे ॥२७॥
हरिर्वाता हरिर्भोक्ता । ऐसा चलता है तत्त्वतः । अब इस बात का । विचार देखें ॥२८॥
सकल कर्ता परमेश्वरु । अपना मायिक विचारु । जैसा समझे वैसे करूं । जगदांतर में ॥२९॥
देव जैसा चपल नहीं । ब्रह्म जैसा निश्चल नहीं । देखें सीढ़ी दर सीढ़ी चढकर ही । मूल पर्यंत ॥३०॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे आत्मनिरूपणनाम समास चौथा ॥४॥

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Last Updated : December 09, 2023

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