पूर्णदशक - ॥ समास पहला - पूर्णापूर्णनिरूपणनाम ॥

इस ग्रंथके पठनसे ‘‘उपासना का श्रेष्ठ आश्रय’ लाखों लोगों को प्राप्त हुआ है ।


॥ श्रीरामसमर्थ ॥
प्राणी व्यापक मन व्यापक । पृथ्वी आप तेज व्यापक । वायु आकाश त्रिगुण व्यापक । अंतरात्मा मूलमाया ॥१॥
निर्गुण ब्रह्म वह व्यापक । ऐसे सारे ही व्यापक । फिर ये सारे एक या इनमें कुछ । भेद है ॥२॥
आत्मा और निरंजन । इसमें भी होता अनुमान । आत्मा सगुण या निर्गुण । और निरंजन ॥३॥
श्रोता संदेह में पड़ा । जिससे संदेह बढा । अनुमान करते बैठा । कौन है कैसा ॥४॥
पहली आशंका सुनो । सारी गड़बड़ ना करो । प्रकट कर विवेक को । देखें प्रत्यय ॥५॥
जैसा शरीर वैसा सामर्थ्य । उसके अनुसार प्राणी करे व्याप । परंतु देखें तो मन समान । चपल नहीं ॥६॥
चपलता है एकदेशी । पूर्ण व्यापकता उसे नहीं। देखे अगर व्यापकता पृथ्वी की । सीमा है ॥७॥
वैसे ही आप और तेज । अपूर्ण दिखते सहज । वायो की चपलता समझ । एकदेशी ॥८॥
गगन और निरंजन । वे पूर्ण व्यापक सघन । कुछ भी अनुमान । वहां रहता ही नहीं ॥९॥
त्रिगुण गुणक्षोभिणी माया । मायिक का विलय होगा। अपूर्ण एकदेशी पूर्ण व्यापकता । उसे नहीं ॥१०॥
आत्मा और निरंजन । दोनों ओर यह नामाभिधान । अर्थान्वय' समझकर । बोलते जायें ॥११॥
आत्मा मन अत्यंत चपल । फिर भी ये व्यापक हैं ही नहीं केवल । सुचित अंतःकरण शांत । कर देखें ॥१२॥
अंतराल में देखें तो पाताल में नहीं । पाताल में देखें तो अंतराल में नहीं । पूर्णतः रहता नहीं । चारों ओर ॥१३॥
आगे देखें तो पीछे नहीं । पीछे देखें तो आगे नहीं । वाम सव्य व्याप नहीं । दस दिशायें ॥१४॥
चारों और झंडिया लगाये । एक साथ कैसे छू पायें । इसकारण समझकर अनुभव लें । प्रत्यय अपना ॥१५॥
सूर्य आया हुआ प्रतिबिंबित । वस्तु को न जंचे यह भी दृष्टांत । निर्गुण को वस्तुरूप । कहते हैं ॥१६॥
घटाकाश मठाकाश । यह भी दृष्टांत विशेष । तुलना करने पर साम्य । निर्गुण से होता ॥१७॥
ब्रह्म का अंश आकाश । और आत्मा का अंश मानस । दोनों का अनुभव प्रत्यय के साथ। यहां लें ॥१८॥
गगन और यह मन । कैसे होंगे समान । मननशील महाजन । सकल ही जानते ॥१९॥
मन आगे दौडे । पीछे सारा ही खाली पड़े । पूर्ण गगन से साम्यता होये । किस प्रकार ॥२०॥
परब्रह्म भी अचल । और पर्वत को भी कहते अचल । दोनों भी एक केवल । यह कैसे कहें ॥२१॥
ज्ञान अज्ञान विपरीत ज्ञान । तीनों कैसे होगे समान । इसका प्रत्यय मनन । करके देखें ॥२२॥
ज्ञान याने जानना । अज्ञान याने न जानना । विपरीत ज्ञान याने देखना । एक का एक ॥२३॥
जानना न जानना अलग किया। स्थूल पंचभूतिक रह गया । विपरीत ज्ञान समझना । चाहिये जीव में ॥२४॥
द्रष्टा साक्षी अंतरात्मा । जीवात्मा ही हो शिवात्मा । आगे शिवात्मा वहीं जीवात्मा । जन्म लेता ॥२५॥
आत्मत्व को जन्ममरण लगे । आत्मत्व का जन्ममरण न भंगे। संभवामि युगे युगे । ऐसा यह वचन ॥२६॥
जीव एकदेशीय नर । विचारों से हुआ विश्वंभर । विश्वभर को भी संसार । चूकता नहीं ॥२७॥
ज्ञान और अज्ञान । वृत्तिरूप से यह समान । निवृत्तिरूप में विज्ञान । होना चाहिये ॥२८॥
ज्ञान से इतना ब्रह्मांड किया। ज्ञान ने इतना बढ़ाया । नाना विकारों की ओर मुडा । वह यह ज्ञान ॥२९॥
आठवां देह ब्रह्मांड का । वह यह ज्ञान सच्चा । विज्ञानरूप विदेह का । पद चाहिये ॥३०॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे पूर्णापूर्णनिरूपणनाम समास पहला ॥१॥

N/A

References : N/A
Last Updated : December 09, 2023

Comments | अभिप्राय

Comments written here will be public after appropriate moderation.
Like us on Facebook to send us a private message.
TOP