प्रकृतिपुरुष का - ॥ समास आठवां - तत्त्वनिरूपणनाम ॥

यह ग्रंथ श्रवण करने का फल, मनुष्य के अंतरंग में आमूलाग्र परिवर्तन होता है, सहजगुण जाकर क्रिया पलट होता है ।


॥ श्रीरामसमर्थ ॥
नाभि से जो उन्मेषवृत्ति । परा जानिये श्रोताओं उसे ही । ध्वनिरूप पश्यंती । हृदय में बसती ॥१॥
नाद हुआ कंठ से । मध्यमा वाचा कहते उसे । उच्चारण होते ही अक्षर उसे । वैखरी कहते ॥२॥
नाभी स्थान में परा वाचा । वही स्थान अंतःकरण का । अंतःकरणपंचक का । स्वरूप ऐसा ॥३॥
निर्विकल्प जो स्फुरण । यों ही रहते जो हुआ स्मरण । उसे जानें अंतःकरण । ज्ञातृत्व कला ॥४॥
अंतःकरण में स्मरण हुआ । आगे होगा या नहीं ऐसा लगा । करूं न करूं ऐसा जहां हुआ । वही मन ॥५॥
संकल्प विकल्प वही मन । जिसके कारण अनुमान । आगे निश्चय वह जान । रूप बुद्धि का ॥६॥
करें अथवा न करें । ऐसा निश्चय जो करे । वही बुद्धि यह अंतरंग में । विवेक से जानें ॥७॥
जिस वस्तु का निश्चय किया । आगे उसी का चिंतन करने लगा । उसे ही चित्त कहा गया । ये वचन यथार्थ मानो ॥८॥
आगे कार्य का अभिमान धरना । यह कार्य तो अवश्य करना । ऐसे कार्य में प्रवृत्त होना । वही अहंकार ॥९॥
ऐसे अंतःकरणपंचक । पंचवृत्ति मिलाकर एक । कार्यभाग अनुसार प्रकारपंचक । भिन्न भिन्न ॥१०॥
जैसे पांचों प्राण । कार्यभाग से अलग अलग जान । अन्यथा वायु के लक्षण । एक ही है ॥११॥
सर्वांग में व्यान नाभी में समान । कंठ में उदान गुदा में अपान । मुख में नासिका में प्राण । नियमित जानो ॥१२॥
कहे ये प्राणपंचक । अब ज्ञानेन्द्रियपंचक । श्रोत्र त्वचा चक्षु जिव्हा नासिक । ऐसी ये ज्ञानेंद्रिया ॥१३॥
वाचा पाणि पाद शिश्न गुदा । ये कर्मेंद्रिया प्रसिद्ध । शब्द स्पर्श रूप रस गंध । ऐसे ये विषयपंचक ॥१४॥
अंतःकरण प्राणपंचक । ज्ञानेंद्रिया कर्मेंद्रिया पंचक । पांचवां विषयपंचक । ऐसे ये पांच पंचक ॥१५॥
ऐसे ये पच्चीस गुण । मिलाकर सूक्ष्म देह जान । इनका कहा कर्दम श्रवण । करना चाहिये ॥१६॥
अंतःकरण व्यान श्रवण वाचा । शब्द विषय आकाश का । आगे विस्तार वायु का । कहा है ॥१७॥
मन समान त्वचा पाणि । स्पर्शरूप ये पवन में ही । ऐसे उनके तालमेल से ही । सूत्र बनायें ॥१८॥
बुद्धि उदान नयन चरण । रूपविषय के दर्शन । संकेत से कहे मन । लगाकर देखें ॥१९॥
चित्त अपान जिव्हा शिस्न । रसविषय आप जान । आगे सुनो हो सावधान । पृथ्वी का रूप ॥२०॥
अहंकार प्राण घ्राण । गुद गंध विषय जान। ऐसे किया निरूपण । शास्त्रमत से ॥२१॥
ऐसा यह सूक्ष्म देह । देखने पर होईये निःसंदेह । मन लगाकर जो देखे यहां । उसे ही यह समझे ॥२२॥
ऐसा सूक्ष्म देह कथित । आगे स्थूल किया निरूपित । आकाश पंचगुणों में दिखता स्थित । कैसे स्थूल में ॥२३॥
काम क्रोध शोक मोह भय । यह पंचविध आकाश का अन्वय । आगे पंचविध वायु। निरूपित किया ॥२४॥
चलन मोड प्रसारण । निरोध और आकुंचन । ये पंचविध लक्षण । प्रभंजन के ॥२५॥
क्षुधा तृषा आलस निद्रा मैथुन । ये तेज के पंचविध गुण । अब आगे आप के लक्षण । निरूपित करने चाहिये ॥२६॥
शुक्लीत श्रोणीत लार मुत्र स्वेद । ये पंचविध आप के भेद । आगे पृथ्वी विशद । करनी चाहिये ॥२७॥
अस्थि मांस त्वचा नाडी रोम । यह पृथ्वी के पंचविध धर्म । ऐसा स्थूल देह के मर्म। कहे गये है ॥२८॥
पृथ्वी आप तेज वायु आकाश । इन पांचों के पच्चीस । मिलाकर उसे स्थूल देह । कहते हैं ॥२९॥
तीसरा देह कारण अज्ञान । चौथा देह महाकारण ज्ञान। इन चारों देह के निरसन पश्चात विज्ञान । परब्रह्म वह ॥३०॥
विचारपूर्वक चारों देह से अलग किया । मैंपन तत्त्वों के साथ गया । अनन्य आत्मनिवेदन हुआ । परब्रह्म में ॥३१॥
विवेक से चूका जन्म मृत्य । नरदेह में साध्य हुआ महत्कृत्य । भक्तियोग से कृतकृत्य । सार्थक हुआ ॥३२॥
इति श्री पंचीकरण । पुनः पुनः करें विवरण । लोहा बन गया सुवर्ण । पारस के योग से ॥३३॥
ये दृष्टांत भी लगे ना । पारस से पारस बन पाये ना । साधुजनों को जो शरण जाता। साधु ही होता ॥३४॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे तत्त्वनिरसननाम समास आठवां ॥८॥

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Last Updated : December 09, 2023

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