प्रकृतिपुरुष का - ॥ समास पांचवां - अजपानिरूपणनाम ॥

यह ग्रंथ श्रवण करने का फल, मनुष्य के अंतरंग में आमूलाग्र परिवर्तन होता है, सहजगुण जाकर क्रिया पलट होता है ।


॥ श्रीरामसमर्थ ॥
इक्कीस सहस्र छह सौ जपा । नियुक्त कर गया वह अजपा । विचार देखो तो सुलभ इतना । सब कुछ ॥१॥
मुख में नासिका में रहता प्राण । उसका अखंड होता आवागमन । इस विचार का निरीक्षण । करें सूक्ष्म दृष्टि से ॥२॥
मूलतः देखो तो एक ही स्वर । उससे तार मंद्र घोर । उस घोर से भी सूक्ष्म विचार | अजपा का ॥३॥
सारिगमपधनीस । समता मातृका सायास । प्रथम स्वर से उच्चार । करके देखे मातृकाओं का ॥४॥
परा वाचा की इस ओर । और पश्यंति के नीचे जाकर । स्वर का जन्मस्थान । वे उठते वहां से ॥५॥
एकांत में यूं ही बैठें । वहां इसकी अनुभूति लें । अखंड लें और छोडें । प्रभंजन को ॥६॥
एकांत में मौन साध कर बैठें । सावधानी से देखो तो कैसे भासे । सोहं सोहं ऐसे । शब्द होते ॥७॥
उच्चार के बिना जो शब्द । वे जानिये सहज शब्द । प्रत्यय को आते परंतु नाद । कुछ भी नहीं ॥८॥
वे शब्द त्याग जो बैठा । उसे मौनी कहें भला । सायास योगाभ्यास का । इस कारण ॥९॥
एकांत में मौन साधकर बैठा । वहां कौन सा शब्द प्रकटा । सोहं ऐसा भास हुआ । अंतर्याम में ॥१०॥
धरे तो सो छोड़े तो हं । अखंड चले सोहं सोहं । इसका विचार देखें तो बहुत । विस्तृत है ॥११॥
देहधारक जितने प्राणी । स्वेदजउ‌द्भिजादि खाणि । श्वासोच्छ्वास न होते प्राणी । जियेंगे कैसे ॥१२॥
ऐसा यह अजपा है सब में । मगर केवल ज्ञाता उसे जाने । सहज त्यागकर सायासों के । पीछे न पड़ें ॥१३॥
सहज देव रहे ही रहे । सायास से देव फूटे मिटे । नाशवान देव में विश्वास रखे । ऐसा कौन ॥१४॥
जगदंतर का दर्शन । सहज होता अखंड ध्यान । आत्मइच्छा से जन । सकल व्यवहार करते ॥१५॥
आत्मा का समाधान । होता वैसा ही अशन । गिरा मिटा समर्पण । उसे ही होता ॥१६॥
अग्निपुरुष पेट में रहते । उसे अवदान सकल देते । लोग आज्ञा में रहते । आत्मा के ॥१७॥
सहज देवजपध्यान । सहज चलना स्तुति स्तवन । सहज होता उसे भगवान । मान्य करते ॥१८॥
सहज समझने के लिये । नाना हठयोग किये । परंतु एकाएक ज्ञान ये । होता नहीं ॥१९॥
द्रव्य चूकता दरिद्र पाता । तल में लक्ष्मी को बाहर खोजता । प्राणी क्या करेगा इसका । भरोसा नहीं ॥२०॥
तलघर में उदंड द्रव्य । दीवारों में रखा द्रव्य । स्तंभों मयालों में द्रव्य । बीच में स्वयं ॥२१॥
लक्ष्मी से घिरा अभागा । उसका दरिद्र अधिक दिखता । चमत्कार किया है ऐसा । परमानंद परमपुरुष ने ॥२२॥
एक देखे एक खाये । विवेक की गति ऐसे । प्रवृत्ति अथवा निवृति है । इसी न्याय से ॥२३॥
हृदयस्थ हो अगर नारायण । तो लक्ष्मी क्यो होगी कम । जिसकी लक्ष्मी वह स्वयं । दृढता से पकडे ॥२४॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे अजपानिरूपणनाम समास पांचवां ॥५॥

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Last Updated : December 09, 2023

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