विवेकवैराग्यनाम - ॥ समास दूसरा - प्रत्ययनिरूपणनाम ॥

इस ग्रंथमें प्रत्येक छंद ‘मुख्य आत्मनुभूति से’ एवं सभी ग्रंथों की सम्मति लेकर लिखा है ।   


॥ श्रीरामसमर्थ ॥
सुनो संसार में आये जो । स्त्रीपुरुष निस्पृह हो । सुचितपन से देखो तो । अर्थांतर ॥१॥
क्या कहती वासना । क्या कल्पित करे कल्पना । अंतरंग के तरंग नाना । प्रकार से उठते ॥२॥
अच्छा भोजन अच्छा खायें । अच्छा परिधान अच्छा पहनें । मन के अनुसार रहें । सब कुछ ॥३॥
ऐसा है मनोगत । पर वैसे कुछ भी न हो घटित । भला करने पर अकस्मात् । बुरा होता ॥४॥
एक सुखी एक दुःख में । प्रत्यक्ष व्यवहार लौकिक में । कष्टी होकर अंत में । प्रारब्ध पर डालते ॥५॥
अचूक यत्न होये ना । इस कारण किया वो सजेना । अपना अवगुण समझेना । करो कुछ भी ॥६॥
जो अपना स्वयं ना जाने । वह औरों का क्या जाने । न्याय छोड़ते ही दीन । होते लोग ॥७॥
लोगों का मनोगत समझेना । लोगों जैसा बर्ताव होये ना । मूर्खतावश लोगों में नाना । कलह उठते ॥८॥
फिर ये कलह बढ़ते । परस्पर दुःखी होते । अंत में प्रयत्न रह जाते । श्रम ही होता ॥९॥
आचरण न हों ऐसे । नाना लोगों की परीक्षा करें । अचूक समझना चाहिये । जो जैसा है ॥१०॥
शब्दपरीक्षा अंतरपरीक्षा । कुछ कुछ समझे दक्षा । मनोगत नतद्रक्षा । को क्या समझे ॥११॥
दूसरों को नाम रखना । अपनी तरफदारी करना । देखो तो लौकिक लक्षण । है बहुतेक ऐसे ही ॥१२॥
लोग अच्छा कहें इस कारण । अच्छे करते है सहन । न सहने पर अनबन । सहज ही होती ॥१३॥
स्वयं का मान्य जो हो ना । वहां कदापि रह पाये ना । मन तोड़कर भी जा सकेना । किसी एक का ॥१४॥
सत्य बोले सत्य चले । उसे मानते छोटे बडे । न्याय अन्याय परस्पर उन में । सहज ही समझे ॥१५॥
लोगों को जब तक न समझे । विवेक से जो क्षमा ना करे । बराबरी कारण उसके । होती जाती ॥१६॥
जब तक चंदन घिसे ना । तब तक सुगंध समझे ना । चंदन और वृक्ष नाना । लगते एक समान ॥१७॥
जब तक उत्तम गुण ना प्रकटे । तब तक जनों को क्या समझे । उत्तम गुण देखते ही शांत होये । जगदांतर ॥१८॥
जगदांतर शांत होते गया । जगदांतर में सुख पाया । तब फिर जानो वश हुआ । विश्वजन समूह ॥१९॥
जनीं जनार्दन आये वश में । फिर उसे क्या कमी रहे । राजी सभी को रखें । कठिन है ॥२०॥
बोया वही उगता । उधार देना लेना पडता । मर्म प्रकट करे तो भग्न होता । परांतर ॥२१॥
लोगों का भला किया । उससे सौख्य बढ़ा । उत्तर समान आया । प्रत्युत्तर ॥२२॥
ये सारा अपने पास । यहां नहीं लोगों का दोष । अपने मन को दें सीख । क्षण क्षण ॥२३॥
खल दुर्जन मिला । क्षमा का धीरज डूबा । फिर मौनपूर्वक स्थल त्याग करना । चाहिये साधक ने ॥२४॥
लोग नाना परीक्षा जानते । अंतरपरीक्षा न जानते । इससे प्राणी अभागी होते । संदेह नहीं ॥२५॥
हमें है मरण । इस कारण राखें भलापन । कठिन है लक्षण । विवेक के ॥२६॥
छोटे बडे समान । अपने पराये सकल जन । चढता बढता सन्निधान । रखने से होता भला ॥२७॥
भला करें तो भला होता । इसका तो प्रत्यय आता । अब इसके आगे क्या कहना । किससे क्या ॥२८॥
हरिकथानिरूपण । अच्छी तरह से राजकारण । प्रसंग देखे बिन । सभी खोटा ॥२९॥
विद्या उदंड सीखा । प्रसंग में चूकता ही गया । तो फिर उस विद्या । को कौन पूछें ॥३०॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे प्रत्ययनिरूपणनाम समास दूसरा ॥२॥

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Last Updated : December 08, 2023

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