ज्ञानदशक मायोद्भवनाम - ॥ समास नववां - सिद्धलक्षणनाम ॥

३५० वर्ष पूर्व मानव की अत्यंत हीन दीन अवस्था देख, उससे उसकी मुक्तता हो इस उदार हेतु से श्रीसमर्थ ने मानव को शिक्षा दी ।


॥ श्रीरामसमर्थ ॥
अंतरंग में जाते ही अमृत । बाह्य काया लकलकित । अंतरस्थिति दृढ होते ही संत । लक्षण कैसे ॥१॥
आत्म ज्ञान हुआ बहुत । यह कैसे रे होगा ज्ञात । इस कारण कह स्वभावतः । साधु लक्षण ॥२॥
सुनो सिद्ध के लक्षण । सिद्ध याने स्वरूप जान । वहां देखने पर अलगपन । मूलतः ही नहीं ॥३॥
स्वरूप होकर रहिये । इसका नाम सिद्ध बोलिये । सिद्ध स्वरूप में ही शोभा पाये । सिद्धपन ॥४॥
वेदशास्त्रों में जो प्रसिद्ध । सस्वरूप स्वतः सिद्ध । उसे ही कहिये सिद्ध । अन्यथा न हो ॥५॥
तथापि कहूं कुछ एक । साधक को समझाने विवेक । सिद्धलक्षण के कौतुक । वे यह हैं ऐसे ॥६॥
अंतरस्थिति स्वरूप हुई। आगे काया की कैसी गति । जैसे स्वप्नों की मिथ्या हुई । स्वप्नरचना ॥७॥
तथापि सिद्धों के लक्षण । कुछ करूं निरूपण। जिससे दृढ हो अन्तर्चिन्ह । परमार्थ के ॥८॥
सदा स्वरूपानुसंधान । यह मुख्य साधु का लक्षण । जनों में रहकर भी स्वयं । जनों से भिन्न ॥९॥
स्वरूप जब दृष्टि में आता । टूट गई संसारचिंता । आगे लगी ममता । निरूपण की ॥१०॥
यह साधक के लक्षण । मगर सिद्ध मैं भी रहते जान । सिद्ध लक्षण साधक के बिन। कहें ही नहीं ॥११॥
बाह्य साधक की तरह । और स्वरूपाकार भीतर । सिद्ध लक्षण वह चतुर । जानिये ऐसे ॥१२॥
संदेहरहित साधन । वही सिद्ध के लक्षण । अंतर्बाह्य समाधान । अचल जैसे ॥१३॥
अचल हुई अंतरस्थिति । वहां चलन को कैसी गति । स्वरूप में लगते ही वृत्ति । स्वरूप ही हुई ॥१४॥
फिर वह चलित होकर भी अचल । चंचलपन में निश्चल । निश्चल होकर भी चंचल । देह उसका ॥१५॥
स्वरूप में स्वरूप ही हुआ। फिर वह पडा रहा । अथवा उठकर भागा । तो भी विचलित ना होता ॥१६॥
यहां कारण अंतरस्थिति । अंतरंग में ही चाहिये निवृत्ति । अभ्यंतर लगा भगवान के प्रति । वही साधु ॥१७॥
बाहर अस्त व्यस्त रहे। मगर अंदर स्वरूप में लगा रहे । लक्षण सहज ही दिखते । साधुशरीर में ॥१८॥
राजपद पर सहज बैठते ही। शरीर में राजकता दृढ होती । स्वरूप में आत्मीयता लगते ही । लक्षण दृढ होते ॥१९॥
अभ्यास भी करे अगर अन्यथा । हांथ न आते सर्वथा । स्वरूप में रहें तत्त्वतः । स्वरूप होकर ॥२०॥
अभ्यास का मुकुटमणि ये । वृत्ति रहे निर्गुण में। संतसंग निरूपण में। स्थिति दृढ़ होती ॥२१॥
अच्छे लक्षण ऐसे । अभ्यास करें स्वरूपाकार से । स्वरूप छोड़ने से । गोसावी भ्रमित होते ॥२२॥
अब रहने दो यह कथन । सुनो साधु के लक्षण । जिससे दृढ़ हो समाधान । साधक में ॥२३॥
स्वरूप में भरते ही कल्पना। वहां कैसी बचेगी कामना । साधुजनों को इस कारण । काम ही नहीं ॥२४॥
कल्पित विषय हांथ से गया। उस कारण क्रोध आया । अक्षय संचित साधुजनों का । जाता नहीं ॥२५॥
इस कारण वे क्रोध रहित । जानते स्वरूप संत । नाशवान ये पदार्थ । त्यागकर ॥२६॥
जहां नहीं कोई इतर । क्रोध आये भी किस पर । क्रोधरहित सचराचर । में व्यवहार करते साधु ॥२७॥
अपना आप में स्वानंद । किस पर दिखाये मद । इस कारण वादविवाद । टूट गया ॥२८॥
साधु स्वरूप निर्विकार । वहां कैसा तिरस्कार । अपना है अपना मत्सर । किस पर करें ॥२९॥
साधु वस्तु अनायास । इस कारण होता मत्सर नष्ट । मदमत्सर का पागलपन । साधु में नहीं ॥३०॥
साधु स्वरूप स्वयंभ । वहां कैसे होगा दंभ । जहां द्वैत का आरंभ । हुआ ही नहीं ॥३१॥
जो दृश्य को ना माने सच । उसे कैसा होगा जी प्रपंच । इस कारण निःप्रपंच । साधु को जानिये ॥३२॥
समस्त ब्रह्मांड उसका घर । जंजाल यह पंचभूतिक विस्तार । मिथ्या जानकर सत्वर । त्याग किया ॥३३॥
इस कारण लोभ नहीं । साधु सदा होता निर्लोभी । समरस वासना जिसकी । शुद्ध स्वरूप में ॥३४॥
अपना आप ही सब कुछ जो । स्वार्थ करेगा किसका वो । इस कारण साधु को । जानिये स्वार्थरहित ॥३५॥
दृश्य त्यागकर नाशवंत । स्वरूप सेवन किया शाश्वत । इस कारण शोकरहित । साधु को जानिये ॥३६॥
शोक से दुःखित होती वृत्ति। मगर वही हुई निवृत्ति । इस कारण साधु आदिअंती । शोकरहित ॥ ३७॥
मोह से आकृष्ट होता मन । मगर वही हुआ उन्मन । इस कारण साधुजन । मोहातीत ॥३८॥
साधु वस्तु अद्वय । वहां कैसे लगेगा भय । परब्रह्म वे निर्भय । वही साधु ॥३९॥
इस कारण भयातीत । साधु निर्भय प्रशांत । सभी का होगा अंत । साधु अनंतरूपी ॥४०॥
अमर हुआ सत्यस्वरूप में। भय कैसे लगेगा उसे । साधुजनों को इस कारण से । भय ही नहीं ॥४१॥
जहां नहीं द्वंदभेद । अपना आप अभेद । वहां कैसे उठेगा खेद । देहबुद्धि का ॥४२॥
बुद्धि ने निश्चय किया निर्गुण । उसे कोई ना कर सके हरण । साधुजनों को इस कारण । खेद ही नहीं ॥४३॥
स्वयं अकेला शाश्वत । किसका करें स्वार्थ । दृश्य न होने पर स्वार्थ । का पता ही नहीं ॥४४॥
साधु स्वयं ही एक । वहां कैसा दुःख शोक । दुसरे के बिना अविवेक । आयेगा ही नहीं ॥४५॥
आशा रखते ही परमार्थ की । टूटी दुराशा स्वार्थ की । इस कारण नैराश्यता साधु की । है पहचान ॥४६॥
मृदता से जैसा गगन । वैसे साधु के लक्षण । इस कारण साधुवचन । कठोर नहीं ॥४७॥
स्वरूप का संयोगी । स्वरूप ही हुआ योगी । इस कारण से वीतरागी । निरंतर ॥४८॥
स्थिति दृढ होते ही स्वरूप की । चिंता छोड दी देह की । इस कारण जो होगा उसकी । चिंता ही नहीं ॥४९॥
स्वरूप में रमते ही बुद्धि । टूटे समस्त उपाधि । इस कारण निरूपाधि । हैं साधुजन ॥५०॥
साधु स्वरूप में ही रमते । वहां संग ही शोभा ना देते । इस कारण साधु ना देखते । मानापमान ॥५१॥
अलक्ष्य में लगाते लक्ष्य । इसलिये साधु परम दक्ष । समर्थन कर सकते पक्ष । परमार्थ का ॥५२॥
स्वरूप न सह पाता मल । इसलिये साधु वह निर्मल । साधु स्वरूप ही केवल । इस कारण से ॥५३॥
सभी धर्मों में धर्म। स्वरूप में रहना है स्वधर्म । यही जानिये मुख्य मर्म । साधुलक्षण का ॥५४॥
धरते ही साधु की संगति । अपने आप ही आती स्वरूपस्थिति । स्वरूपस्थिति से दृढ होते । लक्षण शरीर में ॥५५॥
ऐसे लक्षण साधु के। शरीर में दृढ होते निरूपण से । मगर रहना स्वरूप में । निरंतर ॥५६॥
निरंतर स्वरूप में अगर रहते । तत्त्वतः स्वरूप ही हो जाते। फिर लक्षण शरीर में दृढ होतें । देर नहीं ॥५७॥
स्वरूप में अगर रहे मति । जाते अवगुण सभी । मगर इसके लिये सत्संगति । निरूपण चाहिये ॥५८॥
सकल सृष्टि के स्थान । अनुभव नहीं एक समान । यह सर्व ही किया कथन । अगले समास में ॥५९॥
किस स्थिति में रहते। कैसा अनुभव देखते । रामदास कहते श्रोते । अवधान दें ॥६०॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे सिद्धलक्षणनाम समास नववां ॥९॥

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Last Updated : December 06, 2023

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