ज्ञानदशक मायोद्भवनाम - ॥ समास तीसरा - सूक्ष्मआशंकानाम ॥

३५० वर्ष पूर्व मानव की अत्यंत हीन दीन अवस्था देख, उससे उसकी मुक्तता हो इस उदार हेतु से श्रीसमर्थ ने मानव को शिक्षा दी ।


॥ श्रीरामसमर्थ ॥
अरे हुआ ही नहीं जो । उसकी वार्ता पूछते क्या हो । तथापि कहता हूं जिससे कुछ भी । संशय न रहे ॥१॥
डोरी के कारण भुजंग । जल के कारण तरंग । मार्तंड के कारण चांग । मृगजल बहता ॥२॥
कल्पना के कारण स्वप्न दिखे । सीप के कारण चांदी भासे । जल के कारण ओले बने । निमिष एक ॥३॥
मिट्टी के कारण दीवार बनी । सिंधु के कारण लहर उठी । तिल के कारण पुतली । दिखने लगी ॥४॥
सोने से अलंकार । तंतु से बने चीर । कछुओ के कारण विस्तार । हांथ पावों का ॥५॥
घी होने पर भी जम जाता । तरी से नमक बनता । बिंब से ही बिंबित होता । प्रतिबिंब ॥६॥
पृथ्वी के कारण बने पेड । पेड के कारण छाया का विस्तार । धातु के कारण विस्तार । उंच नीच वर्णों का ॥७॥
अब रहने दो दृष्टांत । अद्वैत के लिये कैसा द्वैत । द्वैत बिना अद्वैत । बोला ही न जाये ॥८॥
भास के कारण भास का आभास । दृश्य के कारण दिखता अदृश्य । उपमा रहित अदृश्य । इस कारण निरूपम ॥९॥
कल्पना विरहित हेत । दृश्य से अलग दृष्टांत । द्वैत से अलग द्वैत । कैसा हुआ ॥१०॥
विचित्र भगवान की करनी । वर्णन न कर सके सहस्त्रफणि । उसने की निर्मिति । अनंत ब्रह्मांड की ॥११॥
कर्ता परमात्मा परमेश्वर । सर्वकर्ता जो ईश्वर । उससे ही विस्तार । हुआ सभी ॥१२॥
ऐसे अनंत नाम धरे । अनंत शक्ति निर्माण करे । उसे ही जानें चतुर । मूलपुरुष ॥१३॥
उस मूलपुरुष की पहचान । वह मूलमाया ही स्वयं । सकल ही कर्तापन । आया वहीं ॥१४॥
॥ श्लोक ॥    
कार्यकारणकतृत्वे हेतुः प्रकृतिरूच्यते ॥छ ॥

यह खुलकर कह ना पाये । टूटने को देखे उपाय । अन्यथा ये देखने जाये । तो क्या सच है ॥१५॥
देव से सकल हुये । यह सभी मानते । परंतु पहचानना चाहिये । उस देव को ॥१६॥
सिद्ध का जो निरूपण । वह साधक को न होता मान्य जान । पक्व नहीं अंतःकरण । इस कारण ॥ १७॥
अविद्यागुण से बोलते जीव । मायागुण से बोलते शिव । मूलमाया गुण से देव । बोलते हैं ॥१८॥
मूलमाया कारण इसलिये । अनंत शक्ति धरने के लिये । वहां के अर्थ जानने के लिये । अनुभवी चाहिये ॥१९॥
मूलमाया वही मूलपुरुष । वही सर्वो का ईश । अनंत नामी जगदीश । उसे ही कहें ॥२०॥
सारी माया विस्तृत हुई । पर यह निःशेष मिथ्या हुई । ऐसे वचनों की गहराई । बिरला जाने ॥२१॥
ऐसे अनिर्वाच्य बोलिये। तो भी यह स्वानुभव से जानिये । संतसंग बिन समझ न आये । करो कुछ भी ॥२२॥
माया ही है मूलपुरुष । साधक को नहीं मान्य निःशेष । तो फिर अनंतनामी जगदीश । किसे कहें ॥२३॥
नामरूप माया को लगे । ये कहना ठीक ही है। यहां श्रोता अनुमान करें। क्यों कर ॥२४॥
अब रहने दो यह सारी बोली । पिछली आशंका रह गई । निराकार में कैसे हुई । मूलमाया ॥२५॥
दृष्टिबंधन मिथ्या सकल । तो फिर वह कैसा हुआ खेल । यही अब सारा सरल । करके दिखाऊं ॥२६॥
आकाश रहते निश्चल । उसमें वायु हुआ चंचल । वैसी जानिये केवल । मूलमाया ॥२७॥
रूप वायु का हो जाने से । आकाश भंग हुआ उससे । यह सत्य मान लिया ऐसे । कभी नहीं हुआ ॥२८॥
वैसी मूलमाया हुई । और निर्गुणता व्याप्त रही । इस दृष्टांत से दूर हुई । पिछली आशंका ॥२९॥
वायु न था पुरातन । वैसी मूलमाया जान । सांच कहते ही पुनः लीन । हो जाता ॥३०॥
वायु रूप में है कैसा । देखो मूलमाया का वैसा । भासे पर न दिखे ऐसा । रूप उसका ॥३१॥
वायु सत्य कहें अगर । दिखाया नहीं जा सकता उसे मगर । देखने जाये उसकी ओर । धूल ही दिखे ॥३२॥
वैसी मूलमाया भासे । भासे पर वह नहीं दिखे । विस्तारित हुई आगे । माया अविद्या ॥३३॥
जैसे वायु के ही योग से । दृश्य उड़ता गगनमार्ग से । मूलमाया के संयोग से । वैसे जग ॥३४॥
गगन में मेघ नहीं थे । अकस्मात् उद्भव हो गये । माया के ही गुण से आये। वैसे ही जग ॥३५॥
मिथ्या गगन नहीं थे । अकस्मात वहां पर आये । वैसे दृश्य यहां पर हुये । उसी तरह ॥३६॥
पर उस मेघ के कारण । गगन का गया निश्चलपन । लगता ऐसे है लेकिन । तत्त्वतः वह वैसी ही रहती ॥३७॥
वैसे माया के कारण निर्गुण । लगता हो गया है सगुण । मगर वह देखने पर संपूर्ण । जैसे का वैसे ॥३८॥
मेघ आये और गये । गगन वह व्याप्त ही रहे । वैसे ही गुण में नहीं आये । निर्गुण ब्रह्म ॥३९॥
नभ माथे को लगता दिखे । मगर वह जैसे के वैसा रहे । वैसे जानिये विश्वास से । निर्गुण ब्रह्म ॥४०॥
उर्ध्व देखो तो आकाश । नीलिमा दिखे सावकाश । मगर वह जानिये मिथ्या भास । भासित हुआ ॥४१॥
आकाश उल्टा किया । चारों ओर से सीमित हुआ । लगता विश्व को बंदी बनाया । मगर वह मुक्त ही है ॥४२॥
पर्वतो पर नीला रंग दिखे । मगर वह नहीं लगा उसे । अलिप्त जानिये वैसे । निर्गुण ब्रह्म ॥४३॥
रथ दौड़ने से पृथ्वी चंचल । लगती मगर वह रहे निश्चल । वैसे परब्रह्म केवल । निर्गुण जानिये ॥४४॥
मेघ के कारण मयंक' । लगे कि दौडता निशंक । मगर वह सारा ही मायिक । मेघ चंचल होते ॥४५॥
लू अथवा अग्निज्वाल । उससे कंपित दिखता अंतराल । लगता मगर वह निश्चल । जैसे का वैसा ॥४६॥
वैसे स्वरूप यह व्याप्त हुआ । ऐसे लगता गुणों में आया । ऐसे कल्पना ने माना । मगर वह मिथ्या ॥४७॥
दृष्टिबंधन का खेल । वैसे माया चंचल । वस्तु शाश्वत निश्चल । जैसे की वैसी ॥४८॥
ऐसी वस्तु निरअवयव । माया दिखाती अवयव । इसका ऐसा ही स्वभाव । मिथ्या यह ॥४९॥
माया देखो तो नहीं मूलतः । मगर भासे जैसे सत्य । उद्भव होकर होती अदृश्य । मेघ जैसे ॥५०॥
ऐसे माया उद्भव हुई । वस्तु निर्गुण व्याप्त रही । अहं ऐसी स्फूर्ति हुई । वही माया ॥५१॥
गुणमाया के पंवाडे । निर्गुण में यह कुछ भी न होये । परंतु यह बने और बिगडे । सस्वरूप में ॥५२॥
जैसे दृष्टि तरल हुई । उससे सेना ही भासित हुई । देखो तो आकाश में हुई । मगर यह मिथ्या ॥५३॥
मिथ्या माया का खेल । उद्भव कहा है सकल । नाना तत्त्वों का कोलाहल । त्याग कर ॥५४॥
तत्त्व के मूल में ही रहते । ॐकार वायु की गति । उसका अर्थ जानते । दक्ष ज्ञानी ॥५५॥
मूलमाया का चलन । वही वायु के लक्षण । सूक्ष्म तत्त्व वे भी जान । जडत्व पा गये ॥५६॥
ऐसे पंचमहाभूत । पहले थे अव्यक्त । आगे हुये व्यक्त । सृष्टिरचना में ॥५७॥
मूलमाया के लक्षण । वे ही पंचभौतिक जान । उसकी देखो पहचान। सूक्ष्म दृष्टि से ॥५८॥
आकाशवायुबिन । इच्छा शब्द करे कौन । इच्छाशक्ति वही जान । तेजस्वरूप ॥५९॥
मृदुपन वही है जल । जडत्व पृथ्वी केवल । ऐसी मूलमाया सकल । पंचभौतिक जानो ॥६०॥
एक एक भूत में । पंचभूत स्थित है । सभी समझे सूक्ष्म दृष्टि से । देखने पर ॥६१॥
आगे जडत्व में आई । फिर भी थी समाई । ऐसी माया विस्तारित हुई । पंचभूतिक ॥६२॥
मूलमाया देखने पर मूल में । अथवा अविद्या भूमंडल में । स्वर्गमृत्यु पाताल में । पांच ही भूत ॥६३॥

॥ श्लोक ॥    
स्वर्गे मृत्यौ पाताले वा यत्किंचित सचराचरम् ।
सर्व पंचभूतकं राम षष्ठं किंचिन्न दृश्यते ॥

सत्य स्वरूप आदिअंत में । पंचभूतों के व्यवहार मध्य में । पंचभूतिक जानिये । श्रोताओं मूलमाया ॥६४॥
यहां आशंका उठी । सुनो सावध कर स्थिति । पंचभूतों की निर्मिति । हुई एक तमोगुण के कारण ॥६५॥
मूलमाया गुण से परे । वहां भूत कैसे होते । ऐसी आशंका इन श्रोतां ने । ली पीछे ॥६६॥
ऐसा श्रोता ने आक्षेप किया । संशय को खड़ा किया। इसका उत्तर दिया। अगले समास में ॥६७॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे सूक्ष्मआशंकानाम समास तीसरा ॥३॥

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Last Updated : December 06, 2023

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