ज्ञानदशक मायोद्भवनाम - ॥ समास सातवां - मोक्षलक्षणनाम ॥

३५० वर्ष पूर्व मानव की अत्यंत हीन दीन अवस्था देख, उससे उसकी मुक्तता हो इस उदार हेतु से श्रीसमर्थ ने मानव को शिक्षा दी ।


॥ श्रीरामसमर्थ ॥
पीछे श्रोताओं का पक्ष । कितने दिनों में होता मोक्ष । वही कथा श्रोतां दक्ष । होकर सुनें ॥१॥
मोक्ष को कैसे जानें । मोक्ष किसे कहें । संतसंग से पायें । मोक्ष को कैसे ॥२॥
तो बद्ध याने बांधा हुआ । और मोक्ष याने मुक्त हुआ । वह संतसंग से कैसे मिला । यह भी सुनें ॥३॥
प्राणि संकल्प से बंध गया । जीवगुण से बद्ध हुआ । उसे विवेक से मुक्त किया । साधुजनों ने ॥४॥
मैं जीव ऐसा संकल्प । दृढ धरते बीता कल्प । उससे प्राणी हुआ अल्प । देहबुद्धि का ॥५॥
मैं जीव मुझे बंधन । मुझे है जन्म मरण । किये कर्मों का फल स्वयं । भोगूंगा अब ॥६॥
पाप के फल है दुःख । और पुण्य के फल है सुख । पापपुण्य आवश्यक । भोगना पडे ॥७॥
पापपुण्य भोगना छूटेना । और गर्भवास भी टूटेना । ऐसी जिसकी कल्पना । दृढ हुई ॥८॥
उसका नाम बंधा हुआ । जीवगुण से बद्ध हुआ । जैसे स्वयं बांधकर कोश' बनाया । मृत्यू पाने ॥९॥
वैसा प्राणी वह अज्ञान । न जाने भगवंत का ज्ञान । कहे मेरा जन्ममरण । छूटे ही ना ॥१०॥
अब कुछ दान करूं । अगले जन्म के लिये आधार । उससे सुखरूप संसारू । होगा मेरा ॥११॥
पहले नहीं दान किया । इस कारण दरिद्र पाया । अब तो कुछ दान किया । जाना चाहिये ॥१२॥
इस कारण दिया वस्त्र पुराना । और एक ताम्र का सिक्का । कहे अब कोटिगुना । पाऊंगा आगे ॥१३॥
कुशावर्त कुरूक्षेत्र में। महिमा सुनकर दान करे । आशा धरे अभ्यंतर में । कोटिगुना होने की ॥१४॥
रूपया पैसा दान किया । अतिथियों को टुकडे खिलाया । कहे मेरा ढेर बन गया । कोटि टुकडों का ॥१५॥
वह मैं खाऊंगा अगले जन्म में । ऐसी करे कल्पना अंतर्याम में। वासना उलझ गई जन्मकर्म में । प्राणियों की ॥१६॥
अभी मैं जो दूंगा दान | पाऊंगा उसे अगले जन्म । ऐसी कल्पना करे वह अज्ञान । बद्ध जानियें ॥१७॥
बहुत जन्मों की समाप्ति । होती नरदेह की प्राप्ति । यहां न होने पर ज्ञान से सद्गति । गर्भवास ना चूके ॥१८॥
गर्भवास नरदेह में ही होगा । ऐसे यह सर्वथा न होगा । अकस्मात पडे भोगना । पुनः नीच योनि ॥१९॥
ऐसा निश्चय शास्त्रांतर में । बहुतों ने किया बहुत तरह से । नरदेह संसार में । परम दुर्लभ है ॥२०॥
पापपुण्य की हो समता । तभी नरदेह जुडता । अन्यथा यह जन्म न मिलता। यह व्यासवचन भागवत में ॥२१॥

॥ श्लोक ॥    
नरदेहमाद्यं सुलभं सुदुर्लभम् ।
प्लवं सुकल्पं गुरूकर्णधारम् ।
मयानुकूलेन नभस्वतेरितम ।
पुमान्भवाब्धिं न तरेत्स आत्महा ॥छ ॥

नरदेह दुर्लभ । अल्प संकल्प का लाभ । गुरू कर्णधारी स्वयंभ । सुख दिलाये ॥२२॥
देव अनुकूल जिससे नहीं। स्वयं पापी वह प्राणी । भवाब्धि न तर सके वही । आत्महत्यारा कहलाये ॥२३॥
ज्ञान बिन प्राणी । जन्ममृत्य लक्ष चौरासी । आत्महत्या उससे उतनी। इस कारण आत्महत्यारा ॥२४॥
नरदेह में ज्ञान बिन । कदा न चूके जन्ममरण । भोगने पडते दारूण । नाना नीच योनि ॥२५॥
रीछ' मर्कट श्वान शूकर । अश्व वृषभ महिष खर । काक कुक्कुट जंबूक मार्जार । गिरगिट मेंढक मक्षिका ॥२६॥
इत्यादिक नीच योनि । ज्ञान न हो तो जनोंको पड़ती भोगनी । आशा धरे मूर्ख प्राणी । अगले जन्म की ॥२७॥
यह नरदेह जब छूटे। वही मिलगा आगे। ऐसा विश्वास धरते । लाज नहीं ॥२८॥
कौन सा पुण्य का संग्रह । जो पुनः पाता नरदेह । दुराशा धरे देखो इस तरह । अगले जन्म की ॥२९॥
ऐसे मूर्ख अज्ञान जन । किया संकल्प से बंधन । शत्रू स्वयं का ही स्वयं । बनकर रहा ॥३०॥

॥ श्लोक ॥    
आत्मैव ह्यात्मनो बंधुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥

ऐसे संकल्प के बंधन । संतसंग से टूटे जान । सुन उसके लक्षण । कहते हैं ॥३१॥
पांच भूतों का शरीर । निर्माण हुये सचराचर । प्रकृतिस्वभाव से जगदाकार । बरतने लगे ॥३२॥
देह अवस्था अभिमान । स्थान भोग मात्रा गुण । शक्ति आदि सब लक्षण । चतुर्विध तत्त्वों के ॥३३॥
ऐसी पिंड ब्रह्मांड रचना । विस्तार से बढ़ी कल्पना । निर्धार करते तत्त्वज्ञाना । मत भ्रमित हुये ॥३४॥
नाना मतों में नाना भेद । भेद से बढ़ते विवाद । मगर जो ऐक्यता का संवाद । साधु जानते ॥३५॥
उस संवाद के लक्षण । पंचभूतिक देह जान । उस देह में कारण । आत्मा पहचानें ॥३६॥
देह अंत में नष्ट हो जाये। उसे ही आत्मा न कहें। नाना तत्त्वों का समुदाय । देह में आया ॥३७॥
अंतःकरण प्राणपंचक । विषय इंद्रियां दशक । यह सूक्ष्म का विवेक। कहा है शास्त्रों में ॥३८॥
लें अगर सूक्ष्म की शुद्धि । भिन्न अंतःकरण मन बुद्धि । नाना तत्त्वों की उपाधि । से अलग आत्मा ॥३९॥
स्थूल सूक्ष्म कारण । महाकारण विराट हिरण्य । अव्याकृत मूलप्रकृति जान । ऐसे अष्टदेह ॥४०॥
चार पिंड के चार ब्रह्मांड के । ऐसे विस्तार अष्टदेह के । वृद्धि से प्रकृतिपुरुष के । दशदेह बोलिये ॥४१॥
ऐसे तत्त्वों के लक्षण । आत्मा साक्षी विलक्षण । कार्य कर्ता कारण । दृश्य उनके ॥४२॥
जीवशिव पिंड ब्रह्मांड । माया अविद्या के आतंक । यह कहने पर हैं उदंड । परंतु आत्मा तो है अलग ॥४३॥
देखने जाओं तो आत्मा चार । उनके लक्षण है अवधार्य । यह जानकर अभ्यंतर । में सदृढ धरें ॥४४॥
एक जीवात्मा दूसरा शिवात्मा । तीसरा परमात्मा जो विश्वात्मा । चौथा जानिये निर्मलात्मा । ऐसे चार आत्मा ॥४५॥
भेद ऊच नीच भासते । परंतु चारो एक ही रहते । इस विषय में दृष्टांत सम्मति सुनें । सावधान होकर ॥४६॥
घटाकाश मठाकाश । महदाकाश चिदाकाश । सारे मिलाकर आकाश । एक ही है ॥४७॥
वैसे जीवात्मा और शिवात्मा । परमात्मा और निर्मलात्मा । सारे मिलाकर आत्मा । एक ही है ॥४८॥
घट में व्यापक जो आकाश । उसका नाम घटाकाश । पिंड में व्यापक ब्रह्मांश । उसे जीवात्मा कहते है ॥४९॥
मठ में व्यापक जो आकाश । उसका नाम मठाकाश । वैसे ब्रह्मांड में जो ब्रह्मांश । उसे शिवात्मा कहिये ॥५०॥
मठ के बाहर जो आकाश । उसका नाम महदाकाश । ब्रह्मांडबाहर का ब्रह्मांश । उसे परमात्मा कहते है ॥५१॥
उपाधि विरहित आकाश । उसका नाम चिदाकाश । वैसा निर्मलात्मा परेश । वह उपाधि से अलग ॥५२॥
उपाधि के कारण लगे भिन्न । परंतु वह आकाश अभिन्न । वैसा आत्मा स्वानंदघन । एक ही रहता ॥५३॥
दृश्य सबाह्यअंतर में। सूक्ष्मात्मा निरंतर है । उसकी महानता वर्णन करने । शेष समर्थ नहीं ॥५४॥
ऐसे आत्मा के लक्षण । जानने पर न रहे जीवपन । उपाधि खोजे तो अभिन्न । मूलतः ही है ॥५५॥
जीवगुण से एकदेशी बने । अहंकारवश जन्म सहे । विवेक से देखें तो प्राणियों को रहे । जन्म कैसा ॥५६॥
जन्ममृत्यु से छूट गया । इसका नामजानिये मोक्ष हुआ । तत्त्व खोजने पर पाया । तत्त्वतः वस्तु ॥५७॥
वही वस्तु है स्वयं । यह महाकाव्य के लक्षण । साधु करते निरूपण । अपने ही मुख से ॥५८॥
जिस क्षण अनुग्रह किया । उसी क्षण मोक्ष हुआ । बंधन कुछ आत्मा को । कहें ही नहीं ॥५९॥
अब आशंका मिटी । संदेहवृत्ति अस्त हुई । सत्संग से तत्काल पाई । मोक्षपदवी ॥६०॥
स्वप्न में जो बांधा गया । उसे जागृति से मुक्त किया । ज्ञानविवेक से प्राणी पाया । मोक्ष ऐसे ॥६१॥
अज्ञाननिशा के अंत में । संकल्पदुःख नाश पाते । प्राप्ति होती उस गुण से । तत्काल मोक्ष की ॥६२॥
तोडने को स्वप्नबंधन । न लगे अन्य साधन । उसके लिये जागृति बिन प्रयत्न । कहें ही नहीं ॥६३॥
वैसा संकल्प से बंधा जीव । उसे नहीं अन्य उपाय । विवेक देखने पर व्यर्थ । बंधन होये ॥६४॥
विवेक देखें बिन । जो जो उपाय वह दे सारे थकान । विवेक से देखें स्वयं । आत्मा ही है ॥६५॥
आत्मा के जगह कुछ भी । बंधमोक्ष दोनों नहीं । जन्ममृत्यु सर्व ही । आत्मत्व में न होते ॥६६॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे मोक्षलक्षणनाम समास सातवां ॥७७॥

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Last Updated : December 06, 2023

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