हिंदी सूची|हिंदी साहित्य|अनुवादीत साहित्य|रामदासकृत हिन्दी मनके श्लोक|ज्ञानदशक मायोद्भवनाम| ॥ समास सातवां - मोक्षलक्षणनाम ॥ ज्ञानदशक मायोद्भवनाम ॥ समास पहला - देवदर्शननाम ॥ ॥ समास पहला - देवदर्शननाम ॥ ॥ समास दूसरा - सूक्ष्मआशंकानाम ॥ ॥ समास तीसरा - सूक्ष्मआशंकानाम ॥ ॥ समास चौथा - सूक्ष्मपंचभूतनिरूपणनाम ॥ ॥ समास पांचवा - स्थूलपंचमहाभूत स्वरूपाकाशभेदो नाम ॥ ॥ समास छठवां - दुश्चितनिरूपणनाम ॥ ॥ समास सातवां - मोक्षलक्षणनाम ॥ ॥ समास आठवां - आत्मदर्शननाम ॥ ॥ समास नववां - सिद्धलक्षणनाम ॥ ॥ समास दसवां - शून्यत्वनिरसननाम ।! ज्ञानदशक मायोद्भवनाम - ॥ समास सातवां - मोक्षलक्षणनाम ॥ ३५० वर्ष पूर्व मानव की अत्यंत हीन दीन अवस्था देख, उससे उसकी मुक्तता हो इस उदार हेतु से श्रीसमर्थ ने मानव को शिक्षा दी । Tags : hindimanache shlokramdasमनाचे श्लोकरामदासहिन्दी ॥ समास सातवां - मोक्षलक्षणनाम ॥ Translation - भाषांतर ॥ श्रीरामसमर्थ ॥ पीछे श्रोताओं का पक्ष । कितने दिनों में होता मोक्ष । वही कथा श्रोतां दक्ष । होकर सुनें ॥१॥ मोक्ष को कैसे जानें । मोक्ष किसे कहें । संतसंग से पायें । मोक्ष को कैसे ॥२॥ तो बद्ध याने बांधा हुआ । और मोक्ष याने मुक्त हुआ । वह संतसंग से कैसे मिला । यह भी सुनें ॥३॥प्राणि संकल्प से बंध गया । जीवगुण से बद्ध हुआ । उसे विवेक से मुक्त किया । साधुजनों ने ॥४॥ मैं जीव ऐसा संकल्प । दृढ धरते बीता कल्प । उससे प्राणी हुआ अल्प । देहबुद्धि का ॥५॥ मैं जीव मुझे बंधन । मुझे है जन्म मरण । किये कर्मों का फल स्वयं । भोगूंगा अब ॥६॥ पाप के फल है दुःख । और पुण्य के फल है सुख । पापपुण्य आवश्यक । भोगना पडे ॥७॥ पापपुण्य भोगना छूटेना । और गर्भवास भी टूटेना । ऐसी जिसकी कल्पना । दृढ हुई ॥८॥ उसका नाम बंधा हुआ । जीवगुण से बद्ध हुआ । जैसे स्वयं बांधकर कोश' बनाया । मृत्यू पाने ॥९॥ वैसा प्राणी वह अज्ञान । न जाने भगवंत का ज्ञान । कहे मेरा जन्ममरण । छूटे ही ना ॥१०॥ अब कुछ दान करूं । अगले जन्म के लिये आधार । उससे सुखरूप संसारू । होगा मेरा ॥११॥ पहले नहीं दान किया । इस कारण दरिद्र पाया । अब तो कुछ दान किया । जाना चाहिये ॥१२॥ इस कारण दिया वस्त्र पुराना । और एक ताम्र का सिक्का । कहे अब कोटिगुना । पाऊंगा आगे ॥१३॥कुशावर्त कुरूक्षेत्र में। महिमा सुनकर दान करे । आशा धरे अभ्यंतर में । कोटिगुना होने की ॥१४॥ रूपया पैसा दान किया । अतिथियों को टुकडे खिलाया । कहे मेरा ढेर बन गया । कोटि टुकडों का ॥१५॥वह मैं खाऊंगा अगले जन्म में । ऐसी करे कल्पना अंतर्याम में। वासना उलझ गई जन्मकर्म में । प्राणियों की ॥१६॥ अभी मैं जो दूंगा दान | पाऊंगा उसे अगले जन्म । ऐसी कल्पना करे वह अज्ञान । बद्ध जानियें ॥१७॥बहुत जन्मों की समाप्ति । होती नरदेह की प्राप्ति । यहां न होने पर ज्ञान से सद्गति । गर्भवास ना चूके ॥१८॥गर्भवास नरदेह में ही होगा । ऐसे यह सर्वथा न होगा । अकस्मात पडे भोगना । पुनः नीच योनि ॥१९॥ऐसा निश्चय शास्त्रांतर में । बहुतों ने किया बहुत तरह से । नरदेह संसार में । परम दुर्लभ है ॥२०॥ पापपुण्य की हो समता । तभी नरदेह जुडता । अन्यथा यह जन्म न मिलता। यह व्यासवचन भागवत में ॥२१॥॥ श्लोक ॥ नरदेहमाद्यं सुलभं सुदुर्लभम् । प्लवं सुकल्पं गुरूकर्णधारम् । मयानुकूलेन नभस्वतेरितम । पुमान्भवाब्धिं न तरेत्स आत्महा ॥छ ॥नरदेह दुर्लभ । अल्प संकल्प का लाभ । गुरू कर्णधारी स्वयंभ । सुख दिलाये ॥२२॥ देव अनुकूल जिससे नहीं। स्वयं पापी वह प्राणी । भवाब्धि न तर सके वही । आत्महत्यारा कहलाये ॥२३॥ ज्ञान बिन प्राणी । जन्ममृत्य लक्ष चौरासी । आत्महत्या उससे उतनी। इस कारण आत्महत्यारा ॥२४॥नरदेह में ज्ञान बिन । कदा न चूके जन्ममरण । भोगने पडते दारूण । नाना नीच योनि ॥२५॥ रीछ' मर्कट श्वान शूकर । अश्व वृषभ महिष खर । काक कुक्कुट जंबूक मार्जार । गिरगिट मेंढक मक्षिका ॥२६॥ इत्यादिक नीच योनि । ज्ञान न हो तो जनोंको पड़ती भोगनी । आशा धरे मूर्ख प्राणी । अगले जन्म की ॥२७॥ यह नरदेह जब छूटे। वही मिलगा आगे। ऐसा विश्वास धरते । लाज नहीं ॥२८॥ कौन सा पुण्य का संग्रह । जो पुनः पाता नरदेह । दुराशा धरे देखो इस तरह । अगले जन्म की ॥२९॥ऐसे मूर्ख अज्ञान जन । किया संकल्प से बंधन । शत्रू स्वयं का ही स्वयं । बनकर रहा ॥३०॥॥ श्लोक ॥ आत्मैव ह्यात्मनो बंधुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥ऐसे संकल्प के बंधन । संतसंग से टूटे जान । सुन उसके लक्षण । कहते हैं ॥३१॥ पांच भूतों का शरीर । निर्माण हुये सचराचर । प्रकृतिस्वभाव से जगदाकार । बरतने लगे ॥३२॥ देह अवस्था अभिमान । स्थान भोग मात्रा गुण । शक्ति आदि सब लक्षण । चतुर्विध तत्त्वों के ॥३३॥ ऐसी पिंड ब्रह्मांड रचना । विस्तार से बढ़ी कल्पना । निर्धार करते तत्त्वज्ञाना । मत भ्रमित हुये ॥३४॥नाना मतों में नाना भेद । भेद से बढ़ते विवाद । मगर जो ऐक्यता का संवाद । साधु जानते ॥३५॥ उस संवाद के लक्षण । पंचभूतिक देह जान । उस देह में कारण । आत्मा पहचानें ॥३६॥ देह अंत में नष्ट हो जाये। उसे ही आत्मा न कहें। नाना तत्त्वों का समुदाय । देह में आया ॥३७॥अंतःकरण प्राणपंचक । विषय इंद्रियां दशक । यह सूक्ष्म का विवेक। कहा है शास्त्रों में ॥३८॥ लें अगर सूक्ष्म की शुद्धि । भिन्न अंतःकरण मन बुद्धि । नाना तत्त्वों की उपाधि । से अलग आत्मा ॥३९॥स्थूल सूक्ष्म कारण । महाकारण विराट हिरण्य । अव्याकृत मूलप्रकृति जान । ऐसे अष्टदेह ॥४०॥ चार पिंड के चार ब्रह्मांड के । ऐसे विस्तार अष्टदेह के । वृद्धि से प्रकृतिपुरुष के । दशदेह बोलिये ॥४१॥ऐसे तत्त्वों के लक्षण । आत्मा साक्षी विलक्षण । कार्य कर्ता कारण । दृश्य उनके ॥४२॥ जीवशिव पिंड ब्रह्मांड । माया अविद्या के आतंक । यह कहने पर हैं उदंड । परंतु आत्मा तो है अलग ॥४३॥ देखने जाओं तो आत्मा चार । उनके लक्षण है अवधार्य । यह जानकर अभ्यंतर । में सदृढ धरें ॥४४॥एक जीवात्मा दूसरा शिवात्मा । तीसरा परमात्मा जो विश्वात्मा । चौथा जानिये निर्मलात्मा । ऐसे चार आत्मा ॥४५॥ भेद ऊच नीच भासते । परंतु चारो एक ही रहते । इस विषय में दृष्टांत सम्मति सुनें । सावधान होकर ॥४६॥घटाकाश मठाकाश । महदाकाश चिदाकाश । सारे मिलाकर आकाश । एक ही है ॥४७॥ वैसे जीवात्मा और शिवात्मा । परमात्मा और निर्मलात्मा । सारे मिलाकर आत्मा । एक ही है ॥४८॥ घट में व्यापक जो आकाश । उसका नाम घटाकाश । पिंड में व्यापक ब्रह्मांश । उसे जीवात्मा कहते है ॥४९॥ मठ में व्यापक जो आकाश । उसका नाम मठाकाश । वैसे ब्रह्मांड में जो ब्रह्मांश । उसे शिवात्मा कहिये ॥५०॥ मठ के बाहर जो आकाश । उसका नाम महदाकाश । ब्रह्मांडबाहर का ब्रह्मांश । उसे परमात्मा कहते है ॥५१॥ उपाधि विरहित आकाश । उसका नाम चिदाकाश । वैसा निर्मलात्मा परेश । वह उपाधि से अलग ॥५२॥उपाधि के कारण लगे भिन्न । परंतु वह आकाश अभिन्न । वैसा आत्मा स्वानंदघन । एक ही रहता ॥५३॥ दृश्य सबाह्यअंतर में। सूक्ष्मात्मा निरंतर है । उसकी महानता वर्णन करने । शेष समर्थ नहीं ॥५४॥ ऐसे आत्मा के लक्षण । जानने पर न रहे जीवपन । उपाधि खोजे तो अभिन्न । मूलतः ही है ॥५५॥जीवगुण से एकदेशी बने । अहंकारवश जन्म सहे । विवेक से देखें तो प्राणियों को रहे । जन्म कैसा ॥५६॥ जन्ममृत्यु से छूट गया । इसका नामजानिये मोक्ष हुआ । तत्त्व खोजने पर पाया । तत्त्वतः वस्तु ॥५७॥वही वस्तु है स्वयं । यह महाकाव्य के लक्षण । साधु करते निरूपण । अपने ही मुख से ॥५८॥ जिस क्षण अनुग्रह किया । उसी क्षण मोक्ष हुआ । बंधन कुछ आत्मा को । कहें ही नहीं ॥५९॥ अब आशंका मिटी । संदेहवृत्ति अस्त हुई । सत्संग से तत्काल पाई । मोक्षपदवी ॥६०॥ स्वप्न में जो बांधा गया । उसे जागृति से मुक्त किया । ज्ञानविवेक से प्राणी पाया । मोक्ष ऐसे ॥६१॥अज्ञाननिशा के अंत में । संकल्पदुःख नाश पाते । प्राप्ति होती उस गुण से । तत्काल मोक्ष की ॥६२॥तोडने को स्वप्नबंधन । न लगे अन्य साधन । उसके लिये जागृति बिन प्रयत्न । कहें ही नहीं ॥६३॥ वैसा संकल्प से बंधा जीव । उसे नहीं अन्य उपाय । विवेक देखने पर व्यर्थ । बंधन होये ॥६४॥ विवेक देखें बिन । जो जो उपाय वह दे सारे थकान । विवेक से देखें स्वयं । आत्मा ही है ॥६५॥ आत्मा के जगह कुछ भी । बंधमोक्ष दोनों नहीं । जन्ममृत्यु सर्व ही । आत्मत्व में न होते ॥६६॥ इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे मोक्षलक्षणनाम समास सातवां ॥७७॥ N/A References : N/A Last Updated : December 06, 2023 Comments | अभिप्राय Comments written here will be public after appropriate 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