ज्ञानदशक मायोद्भवनाम - ॥ समास चौथा - सूक्ष्मपंचभूतनिरूपणनाम ॥

३५० वर्ष पूर्व मानव की अत्यंत हीन दीन अवस्था देख, उससे उसकी मुक्तता हो इस उदार हेतु से श्रीसमर्थ ने मानव को शिक्षा दी ।


॥ श्रीरामसमर्थ ॥
पिछले आशका का मूल । अब होगा प्रांजल । वृत्ति करें शांत । निमिष एक ॥१॥
ब्रह्म में मूलमाया हुई । उसके गर्भ से माया आई । फिर वह गुण प्रसवित हुई। इसलिये गुणक्षोभिणी ॥२॥
आगे उससे कौन । सतत्त्वरजोतमोगुण । तमोगुण से निर्माण । हुये पंचभूत ॥३॥
ऐसे भूत उद्भव हुये । आगे तत्त्व विस्तारित हुये । एवं तमोगुण से हुये । पंचमहाभूत ॥४॥
मूलमाया गुणों से परे । वहां भूत कैसे होते । ऐसी आशंका पीछे । ली है श्रोताओं ने ॥५॥
और एक एक भूत में । पंचभूत रहते । उनकी भी स्थिति है कैसे । प्रांजल करूं ॥६॥
सूक्ष्मदृष्टि के कौतुक । मूलमाया पंचभौतिक । श्रोता ने विमल विवेक । करना चाहिये ॥७॥
पहले उन भूतों को जानें । रूप कैसे पहचानें । तब उन्हें खोजकर देखें । सूक्ष्म दृष्टि से ॥८॥
पहचान नहीं भीतर । उन्हें पहचानें किस प्रकार । इस कारण भूतों की पहचान चतुर । नाम से सुनें ॥९॥
जो जो जड़ और कठिन । वे सब पृथ्वी के लक्षण । मृदु और गीलापन । वह आप ॥१०॥
जो जो उष्ण और सतेज । वह सब जानें तेज । अब वायु भी सहज । निरूपित है ॥११॥
चैतन्य और चंचल । वह यह वायु ही केवल । शून्य अवकाश निश्चल । आकाश जानें ॥१२॥
ऐसे पंचमहाभूत । पहचान के लिये धरें संकेत । अब एक में पांच भूत । सावधानी से सुनो ॥१३॥
जो त्रिगुण से भी पार । उसका सूक्ष्म विचार । इसकारण अतितत्पर । होकर सुनें ॥१४॥
सूक्ष्म आकाश में पृथ्वी कैसे । वही निरूपित करुं पहले। यहां धारणा धरें । श्रोतेजन ॥१५॥
आकाश याने अवकाश शून्य । शून्य याने वह अज्ञान । अज्ञान याने जडत्व जान । वही पृथ्वी ॥१६॥
आकाश स्वयं है मृद । वही आप स्वतः सिद्ध । अब तेज वह भी विशद । करके दिखायें ॥१७॥
अज्ञान से भासित जो भास । वही तेज का प्रकाश । अब वायु सावकाश । संपूर्ण कहेंगे ॥१८॥
वायु आकाश में नहीं भेद। आकाश जितना ही वह स्तब्ध । तथापि आकाश में जो निरोध । वही वायु ॥१९॥
आकाश में आकाश का मिश्रण । इसका तो नहीं लगे कथन। इस प्रकार किया निरूपण । आकाश पंचभूत ॥२०॥
वायु में पंचभूत । वे भी सुनें एकचित्त । कहते हैं वे समस्त । यथान्वय ॥२१॥
हल्का फूल फिर भी जड़। मंद वायु फिर भी कठिन । वायु चलने से कड़ाकड़ । टूटते पेड़ ॥२२॥
वजन बिन पेड़ टूटे। ऐसा तो कहीं भी ना घटे । वजन वही उसकी जड़ता है । पृथ्वी का अंश ॥२३॥
यहा श्रोता आक्षेप लेते । वहां पेड़ कहां से आये थे । पेड़ न थे फिर भी शक्ति है । कठिन रूप ॥२४॥
बन्हि स्फुलिंग सूक्ष्म । अल्पांश से रहता उष्ण । वैसे सूक्ष्म में जडत्व । सूक्ष्म रूप से ॥२५॥
मृदुपन वही आप । भासे तेज का स्वरूप । वायु वहां चंचलरूप । सहज ही रहे ॥२६॥
सभी से मिलकर आकाश । सहज ही रहे अवकाश । पंचभूतों के अंश । वायु में निरूपित किये ॥२७॥
अब तेज के लक्षण । भासित होना वह कठिन । तेज में ऐसी पहचान । पृथ्वी की ॥२८॥
भासित भास लगे मृद । तेज में आप वही प्रसिद्ध । तेज में तेज स्वतः सिद्ध । कहना ना पड़े ॥२९॥
तेज में वायु वह चंचल । तेज में आकाश निश्चल । तेज के पंच वे सकल । निरूपित किये ॥३०॥
अब आप के लक्षण । आप वही जिसमें मृदपन । मृदपन जो कठिन । वही पृथ्वी ॥३१॥
आप में आप सहज ही रहे । तेज मृदपन से भासे । वायु स्तब्धता से दिखे। मृदत्व में ॥३२॥
आकाश का न लगे कथन । व्यापकता उसका सहज गुण। आप में पंचभूतों के नाम । सूक्ष्मता से निरूपित किये ॥३३॥
अब पृथ्वी के लक्षण । पृथ्वी स्वयं कठिन । कठिनता में जो मृदपन । वही आप ॥३४॥
कठिनता का जो भास । वही तेज का प्रकाश । कठिनता में निरोधांश । वही वायु ॥३५॥
आकाश सभी को व्यापक । यह तो प्रकट ही विवेक । आकाश में ही कुछेक । भास भासे ॥३६॥
आकाश तोड़ने पर टूटेना । आकाश फोडने पर फूटेना । आकाश दूर हटे ना । तिलमात्र ॥३७॥
अस्तु अब पृथ्वी के अंतर्गत । दिखाया भूतों का संकेत । एक भूत में पंचभूत । वे भी निरूपित किये ॥३८॥
परंतु यूं ही देखने से ना समझे । बलात् ही मन में संदेह उठे । भ्रांतिरूप में अहंता चढे । अकस्मात् ॥३९॥
सूक्ष्म दृष्टि से यदि देखा जाता । वायु ही लगे तत्त्वता । सूक्ष्म वायु को ढूंढा जाता। पंचभूत दिखते ॥४०॥
एवं पंचभौतिक पवन । वही मूलमाया जान । माया और सूक्ष्म त्रिगुण । वे भी पंचभौतिक ॥४१॥
भूतों में गुणों को मिलाइये । उसको अष्टधा कहिये । पंचभौतिक जानिये । अष्टधा प्रकृति ॥४२॥
खोजकर देखे बिन । संदेह करना मूर्खपन । इसकी देखें पहचान । सूक्ष्म दृष्टि से ॥४३॥
गुणों से आये भूत । पाये दशा वे स्पष्ट । जडत्त्व में आकर समस्त । तत्त्व हो गये ॥४४॥
आगे तत्त्व विंवचना । पिंडब्रह्मांड तत्त्वरचना । जनों में हुआ जो कहना । प्रकट ही है ॥४५॥
यह भूतकर्दम कहा गया । सूक्ष्म संकेत से दिखलाया । ब्रह्मांडगोल उभारा गया । तत्पूर्वी ॥४६॥
कथा इस ब्रह्मांडपार की । जब हुई नहीं थी सृष्टि । मूलमाया सूक्ष्मदृष्टि । से पहचानें ॥४७॥
सप्तकंचुक प्रचंड ! नहीं हुआ था ब्रह्मांड । माया अविद्या के विद्रोह। इस ओर ॥४८॥
ब्रह्मा विष्णु महेश्वर । यह इस ओर का विचार । पृथ्वी मेरू सप्तसागर । इसी ओर ॥४९॥
नाना लोक नाना स्थान । चंद्र सूर्य तारांगण । सप्त द्वीप चौदह भुवन । इस ओर ॥५०॥
शेष कूर्म सप्त पाताल । इक्कीस स्वर्ग अष्ट दिक्पाल । तैंतीस कोटि देव सकल । इस ओर ॥५१॥
बारह आदित्य ग्यारह रूद्र । नव नाग सप्त ऋषेश्वर । नाना देवों के अवतार । इसी ओर ॥५२॥
मेघ मनु चक्रवर्ती । नाना जीवों की उत्पत्ति । अब रहने दो कहूं कितनी । विस्तृति यह ॥५३॥
सकल विस्तारों का मूल । वह यह मूलमाया ही केवल । पीछे निरूपित की सकल । पंचभूतिक ॥५४॥
सूक्ष्म भूत जो कहे गये । वे ही आगे जडत्व में आये। वे सारे ही हैं कहे। अगले समास में ॥५५॥
पंचभूत पृथगाकार से । आगे निरूपित है विस्तार से । पहचानने कारण अत्यादर से । श्रोतां श्रवण करें । ॥५६॥
पंचभौतिक ब्रह्मगोल । जिन्हें समझे यह प्रांजल । दृश्य त्यागकर केवल । वस्तु ही पाते ॥५७॥
महाद्वार पार कीजिये । तब देवदर्शन पाईये। वैसे ही दृश्य यह त्यागिये । जान कर ॥५८॥
इसकारण दृश्य के गर्भ में । पंचभूत है घने । एकता वश आलिंगन पड जाये । दृश्य पंचभूत में ॥५९॥
एवं पंचभूतों के ही दृश्य । सृष्टि रची सावकाश । श्रोता कर अवकाश । श्रवण करें ॥६०॥
इति श्रीदासबोधे
गुरुशिष्यसंवादे सूक्ष्मपंचभूतनिरूपणनाम समास चौथा ॥४॥

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Last Updated : December 06, 2023

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