चतुर्दश ब्रह्म नाम - ॥ समास सातवां - साधनप्रतिष्ठानिरूपणननाम ॥

श्रीसमर्थ ने ऐसा यह अद्वितीय-अमूल्य ग्रंथ लिखकर अखिल मानव जाति के लिये संदेश दिया है ।


॥ श्रीरामसमर्थ ॥
वस्तु की करे कल्पना अगर । फिर भी वह निर्विकल्प स्वभावतः । वहां कल्पना के नाम पर । शून्याकार ॥१॥
तथापि अगर कल्पना करे उसकी । तो वह कल्पना के हांथ ना आती । चित्त में पहचान ना टिकती । भ्रंश होता ॥२॥
दृष्टि से भी कुछ ना दिखता । मन को कुछ भी न भास होता । न भास होता न दिखता। पहचानें कैसे ॥३॥
देखने जाओ तो निराकार । मन को लगे शून्याकार । कल्पना करने पर अंधकार । भरा लगता ॥४॥
कल्पना करने पर लगे काला । ब्रह्म काला न पीला । आरक्त सफेद ना नीला । वर्णरहित ॥५॥
वर्णा व्यक्ति नहीं होती उसे । जो है भिन्न भास से । रूप ही नहीं कैसे। पहचानें ॥६॥
न दिखने पर पहचान । कितनी रखें हम । यह श्रम का ही कारण । बनता है ॥७॥
जो निर्गुण गुणातीत । जो अदृष्य अव्यक्त । जो अचिंत्य चिंतनातीत । परम पुरुष ॥८॥
॥ श्लोक ॥    
अचिंत्याव्यक्तरूपाय निर्गुणाय गुणात्मने ।
समस्तजगदाधारमूर्तये ब्रह्मणे नमः ॥
अचिंत्य का ही करें चिंतन । अव्यक्त का करें स्मरण । निर्गुण की पहचान । कैसी करें ॥९॥
न दिखे दृष्टि से । जो न होता आकलन मन से । उसे देखना होगा कैसे । निर्गुण को ॥१०॥
असंग का संग धरना । निरावलंबी वास करना । निःशब्द का अनुवाद करना। किस प्रकार से ॥११॥
अचिंत्य का चिंतन करते ही । निर्विकल्प की कल्पना करते ही । अद्वैत पर ध्यान लगाते ही । द्वैत ही उठे ॥१२॥
अब ध्यान ही छोड़ दे । अनुसंधान ही तोड़ दे। तो फिर से पडते । महासंशय में ॥१३॥
द्वैत के भय से भीतर । वस्तु को अनचाहा करें अगर । इससे समाधानी होकर । न रह पाते कभी ॥१४॥
आदत लगे आदत लगाने से । वस्तु मिले आदत लगने से । मिले नित्यानित्य विचार से । समाधान ॥१५॥
वस्तु चिंतन से द्वैत उपजे । छोड़ देने पर कुछ भी न समझे । शून्यत्वसंदेह में पड़े । विवेक के बिन ॥१६॥
इस कारण विवेक धरें । ज्ञान से प्रपंच दूर करें । अहंभाव को क्षीण करें । मगर वह होता नहीं ॥१७॥
परब्रह्म वह अद्वैत । कल्पना करते ही उठे द्वैत । वहां हेतु और दृष्टांत । कुछ भी न चले ॥१८॥
वे स्मरण होते ही भूलिये । या वे भूलकर स्मरण करे। जानकर भी ना जाना जाये । परब्रह्म वह ॥१९॥
उसे ना मिलने से होती भेंट । भेंट करने जाओ तो होता विभक्त । ऐसी यह आश्चर्यजनक बात । गूंगेपन की ॥२०॥
उसे साधने जाओ तो सधैं ना । ना छोड़ने पर छूटे ना । लगा संबंध टूटे ना । निरंतर ॥२१॥
वह सदा रहता ही रहता । देखने जाओ तो दूर होता । न देखने से प्रकट होता । जहां कां वहां ॥२२॥
जहां उपाय ही अपाय । और अपाय ही उपाय । यह अनुभव बिन क्या । समझ सके ॥२३॥
वह न समझते ही समझे । समझकर कुछ भी न समझे । वृत्तिरहित होने पर मिले । निवृत्तिपद ॥२४॥
वह ध्यान में धर कर ना आये । उसका चिंतन हो ना पाये । मन में ना समाये । परब्रह्म वह ॥२५॥
उपमा में उसे कहे जल । फिर भी वह निर्मल निश्चल । विश्व डूबा सकल । परंतु वह सूखा ही रहता ॥२६॥
नहीं प्रकाश के समान । अथवा नहीं अंधकार । अब उसे किसके समान । कहा जाये ॥२७॥
ऐसा ब्रह्म निरंजन । कदापि नहीं दृश्यमान । लगायें उसका अनुसंधान । किस तरह ॥२८॥
अनुसंधान लगाने पर । कुछ भी नहीं लगे अब । उठने लगा मन में कहर । संदेह का ॥२९॥
झूठा ही क्या देखें । कहां जाकर रहें । अभाव लिया जीवन में । सत्यस्वरुप का ॥३०॥
अभाव को ही कहे सत्य । तो वेदशास्त्र कैसे मिथ्य । और व्यासादिकों का कृत्य । व्यर्थ नहीं ॥३१॥
इसलिये मिथ्या कहा न जाये । बहुत ज्ञान के उपाय । बहुतों ने निर्माण किये क्या उन्हें । मिथ्या कहें ॥३२॥
अद्वैतज्ञान का उपदेश । गुरुगीता में महेश । कह गये पार्वतीश । पार्वती प्रति ॥३३॥
अवधूत गीता की निर्माण । गोरक्ष को दिया निरूपण । अवधूत गीता में है वर्णन । ज्ञानमार्ग का ॥३४॥
विष्णुने बनकर राजहंस । विधि को किया उपदेश । वह हंसगीता जगदीश । ने कही स्वमुख से ॥३५॥
ब्रह्मा से नारद उपदेशित । चतुः श्लोकी भागवत । आगे व्यासमुख से बहुत । विस्तृत हुआ ॥३६॥
वसिष्ठसार वसिष्ठ ऋषि ने । कथन किया रघुनाथ से । कृष्ण कहे अर्जुन से । सप्तश्लोकी गीता ॥३७॥
ऐसे कहे भी कितने । बहुत ऋषि बहुत बोले । अद्वैत ज्ञान आदि अंत में । सत्य ही है ॥३८॥
इसलिये मिथ्या आत्मज्ञान । कहते ही होता पतन । प्रज्ञारहित जो जन । उन्हें यह समझे ना ॥३९॥
जहां शेष की प्रज्ञा मंद हुई । श्रुति ने मौन्यमुद्रा धारण की । जानकर भी वर्णन न कर सकी । स्वरूपस्थिति ॥४०॥
स्वयं को ठीक से ना समझे । इसलिये मिथ्या कैसे कहे । या उसे दृढता से धरे । सद्गुरुमुख से ॥४१॥
मिथ्य वही हुआ सत्य । सत्य रहकर किया मिथ्य । संदेह सागर में अकस्मात् । डूब गया मन ॥४२॥
मन को कल्पना का स्वभाव । मन कल्पित सा नहीं वह । उसके कारण दौडे संदेह । अहंकार पथ पर ॥४३॥
तब वह पथ ही छोडें । तब परमात्मा से जुड़े । समूल संदेह तोड़े । साधु की ही संगत में ॥४४॥
मैंपन शस्त्र से टूटे ना । मैंपन फोड़ने से फूटेना । मैंपन छोड़ने पर छूटेना । करो कुछ भी ॥४५॥
मैंपन से वस्तु ना समझे । मैंपन से भक्ति का अस्त होये । मैंपन से शक्ति गले । वैराग्य की ॥४६॥
मैंपन से प्रपंच ना होता । मैंपन से परमार्थ डूबता । मैंपन से सभी कुछ उड़ता । यशकीर्तिप्रताप ॥४७॥
मैंपन से मैत्री टूटे । मैंपन से प्रीति घटे । मैंपन से लिपटे । अभिमान शरीर को ॥४८॥
मैंपन से विकल्प उठे । मैंपनसे होते झगड़े । मैंपन से संमोह फूटे । ऐक्यता का ॥४९॥
मैंपन किसी को भी ना शोभे । वह भगवान प्रति कैसे शोभे । इसलिये मैंपन छोड़कर रहे । वही समाधानी ॥५०॥
मैंपन कैसे त्यागना । ब्रह्म को कैसे अनुभव करना । समाधान कैसे पाना । किस प्रकार से ॥५१॥
मैंपन जानकर त्याग करें । ब्रह्म होकर अनुभव करें । समाधान वह प्राप्त करे । निःसंगता से ॥५२॥
और एक समाधान । मैंपन बिन साधन । करना जाने वही धन्य । समाधानी ॥५३॥
मैं तो ब्रह्म ही हुआ स्वयं । अब साधन करेगा कौन । मन में कल्पना करते ही तब । कल्पना ही उठे ॥५४॥
ब्रह्म को कल्पना न शोभे । वही वहां आकर खड़ी रहे । उसे खोजकर देखे । वही साधू ॥५५॥
निर्विकल्प की कल्पना करे । मगर कल्पक स्वयं न बने। मैंपन का त्याग करें। इस रीति से ॥५६॥
इस ब्रह्म विद्या का आड लेकर ही । कुछ भी न रहे रहकर भी । दक्ष और समाधानी । वही यह जाने ॥५७॥
हम कल्पित करें जिसे । वही हम स्वभाव से । यहां कल्पना के नाम से । शून्य हुआ ॥५८॥
पद से ना विचलित होयें। करें साधन उपाये। तभी फिर स्थिति प्राप्त होये । अलिप्तपन की ॥५९॥
जब राजा राजपद पर रहता । यूं ही चलती सारी सत्ता । साध्य ही होकर तत्त्वतः । साधन करें ॥६०॥
साधन आया देहार्थ । हम देह नहीं कि सर्वथा । ऐसे करके अकर्ता । सहज ही हुआ ॥६१॥
स्वयं ही देह ऐसी कल्पना करें। तो ही फिर साधनत्याग करें। देहातीत होते ही स्वभाव से । देह कैसा ॥६२॥
ना वह साधन ना वह देह । अपना स्वयं निःसंदेह । देह में ही रहकर विदेह । स्थिति ऐसी ॥६३॥
साधनबिन अगर ब्रह्म होता । आकर लगती देहममता । आलस हो प्रबल तत्त्वतः । ब्रह्मज्ञान मिस से ॥६४॥
परमार्थ मिस से अर्थ जागे । ध्यान मिस से निद्रा लगे । मुक्ति मिस से दोष भोगे। अनर्गलता ॥६५॥
निंदा होती निरूपण मिस से । विवाद होता संवाद मिस से । आकर जुड़ता उपाधि मिस से । अभिमान शरीर से ॥६६॥
वैसे ब्रह्मज्ञान मिस से । भीतर आलस आये । कहे पागलपन साधन के । क्यों करें ॥६७॥
॥ श्लोक ॥    
किं करोमि क्व गच्छामि किं गृण्हामिं त्यजामि किम् ।
आत्मना पूरितं सर्व महाकल्पांबुना यथा ॥
वचन का लिया आधार । जैसे कि शस्त्र को घुमाकर । स्वयं पर ही किया वार । उसी तरह ॥६८॥
वैसे उपाय का अपाय । विपरीतता से स्वहित जाये । साधन छोड़ते ही होये । मुक्तता ही बद्ध ॥६९॥
साधन करते ही सिद्धपन । हांथ से जायेगा निकल । इस भय से साधन । करना ही न चाहे ॥७०॥
लोग कहते यह साधक । इसकी ही लज्जा लगती एक । साधन करते ब्रह्मादिक । यह ज्ञात ही नहीं ॥७१॥
अस्तु अब यह अविद्या । अभ्यास के अनुसार विद्या । अभ्यास से प्राप्त करें आद्या । पूर्ण ब्रह्म ॥७२॥
अभ्यास करे कौन । ऐसा श्रोता ने किया प्रश्न । परमार्थ का साधन । कहना चाहिये ॥७३॥
इसका उत्तर श्रोताओं को । दिया अगले समास में जो । निरूपित किया साधन को । परमार्थ के ॥७४॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे साधनप्रतिष्ठानिरूपणनाम समास सातवां ॥७॥

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Last Updated : December 04, 2023

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