चतुर्दश ब्रह्म नाम - ॥ समास पहला - मंगलाचरणनाम ॥

श्रीसमर्थ ने ऐसा यह अद्वितीय-अमूल्य ग्रंथ लिखकर अखिल मानव जाति के लिये संदेश दिया है ।


॥ श्रीरामसमर्थ ॥
विद्यावंतों का पूर्वज । मत्तानन एकद्विज । त्रिनयन चतुर्भुज । परशुपाणि ॥१॥
कुबेर से अर्थ । वेदों से परमार्थ । लक्ष्मी से समर्थ । हुआ भाग्योदय ॥२॥
वैसे मंगलमूर्ति आद्या । से उत्पन्न सकल विद्या । जिनसे कवि लाघव गद्या । सत्पात्र हुये ॥३॥
समर्थ के बालक जैसे । सुंदर नाना अलंकारों से । मूलपुरुष के योग से । वैसे ही कवि ॥४॥
करूं नमन ऐसे गणेन्द्र को । विद्याप्रकाश का पूर्णचंद्र जो । जिसके कारण बोधसमुद्र को । आता ज्वार प्रचंड ॥५॥
जो कतृत्व का आरंभ । मूल पुरुष मुलारंभ । जो परात्पर स्वयंभ । आदि अंत में ॥६॥
उनसे ही प्रमदा । इच्छाकुमारी शारदा । आदित्य से होती पैदा । मृगजल सरिता ॥७॥
जो मिथ्या कहते ही उलझाये । लाघवी माया जाल से । वक्ता को भ्रम में डाले । भिन्नता से ॥८॥
जो द्वैत की जननी । अथवा वह अद्वैत की खानी । मूलमाया की ऐसी करनी । अनंत ब्रह्मांडों को रखें गर्भ में ॥९॥
अथवा यह विलक्षण वल्लरी । अनंत ब्रह्मांडों पर छाई । माता मूलपुरुष की । दुहितारूप में ॥१०॥
ऐसे वेदमाता को करें वंदन । आदि पुरुष का जो सत्ता स्थान । अब करें स्मरण । समर्थ सद्गुरू का ॥११॥
पाते ही जिनकी कृपादृष्टि । होती आनंद की वृष्टि । उस सुख से सर्व सृष्टि । आनंदमय ॥१२॥
अथवा वह आनंद का जनक । सायुज्य मुक्ति का नायक । कैवल्यपददायक । अनाथ बंधु ॥१३॥
मुमुक्षु चातक सुस्वर। है वह करुणा अंबर । बरसे कृपा की जलधार । साधकों पर ॥१४॥
अथवा वह भवार्ण के तारणहार । ले जाये बोध से उस पार । बीच भंवर में है आधार । भक्तजनों के ॥१५॥
अथवा वह काल का नियंता । अथवा संकट मोचनकर्ता । अथवा वह भक्तों की माता । परम स्नेहालु ॥१६॥
अथवा जो परलोक का आधार । अथवा वह विश्रांति का ठौर । अथवा सुख का नैहर । सुखस्वरूप ॥१७॥
ऐसा सद्गुरू परमपूर्ण । टूटे भेदभाव का बंधन । देह के बिना साष्टांग नमन । उस प्रभु को ॥१८॥
साधु संत और सज्जन । वंदन कर श्रोताजन । अब कथानुसंधान । सुनो सावधानी से ॥१९॥
संसार यही दीर्घ स्वप्न । लोभ से बडबडाते जन । मेरी कांता मेरा धन । कन्यापुत्र मेरे ॥२०॥
ज्ञानसूर्य का अस्त हुआ । जिससे प्रकाश लुप्त हुआ । अंधकारपूर्ण हुआ । ब्रह्मांड सारा ॥२१॥
नहीं सत्व की चांदनी । जिससे मार्ग दिखे कोई । सर्व भ्रांति के गुणों से ही । अपना आप भी ना देखे ॥२२॥
देहबुद्धि अहंकार से। निद्रित लेते खर्राटे । दुःख से करे आक्रंदन जोर से । विषयसुख के लिये ॥२३॥
सोते में ही मर गये । पुनः जन्मते ही सोये । ऐसे आये और गये । बहुत लोग ॥२४॥
गहन निद्रावस्था के ही कारण । बहुतों ने किया आवागमन । न ली परमेश्वर की पहचान । भोगे कष्ट ॥२५॥
उन कष्टों के निरसन । के लिये चाहिये आत्मज्ञान । इस कारण यह निरूपण । अध्यात्मग्रंथ ॥२६॥
सभी विद्याओं में सार । अध्यात्मविद्या का विचार । दशमोध्याय में शारंगधर । भगवद्गीता में बोले ॥२७॥

॥ श्लोक ॥    
अध्यात्मविद्या विद्यानां वादः प्रवदतामहम् ॥छ॥

इस कारण अद्वैतग्रंथ । आत्मविद्या का परमार्थ । देखने के लिये वही समर्थ । सर्वांग से श्रोता ॥२८॥
जिसका हो चंचल हृदय । वह खोले ही नहीं ग्रंथ । खोले तो अलभ्य । अर्थ यहां का ॥२९॥
जिसे मिला हो परमार्थ । वह देखें यह ग्रंथ । अर्थ खोजनेपर परमार्थ । निश्चय दृढ होता ॥३०॥
जो न करे परमार्थ । उसे न समझे यहां का अर्थ । नेत्र बिन निधानस्वार्थ । अंधे को समझे न ॥३१॥
कोई कहता मराठी क्या ये । भले लोग न सुनते जायें । वे मूर्ख ना जाने उपाय । अर्थान्वय का ॥३२॥
लोहे की संदूक बनाई । नाना रत्नों की पूंजी बनाई । उसे अभागे ने त्याग दी । लोहा कहकर ॥३३॥
वैसी भाषा प्राकृत । अर्थ वेदांत और सिद्धांत । ना जानकर त्यागे भ्रांत । मंदबुद्धिस्तव ॥३४॥
सहज ही मिला धन । त्याग करना मूर्खपन । द्रव्य लें आवरण । देखें ही नहीं ॥३५॥
पारस देखा आंगन में । चिंतामणि पडी राह में । महागुणी दक्षिणावर्त बेल कुएं में । है महागुणी ॥३६॥
वैसे ही प्राकृत में अद्वैत । सुगम और सप्रचित । अध्यात्म मिले अकस्मात् । तो अवश्य लें ॥३७॥
न करते व्युत्पत्ति के श्रम । सकल शास्त्रार्थ होये सुगम । सत्समागम का मर्म । वह ये हैं ऐसा ॥३८॥
जो न व्युत्पत्ति से समझे । समझे वह सत्समागम से । सकल शास्त्रार्थ समझे । स्वानुभव से ॥३९॥
अतः कारण सत्समागम । वहां न लगे व्युत्पत्तिश्रम । जन्मसार्थक का मर्म । है अलग ही ॥४०॥
॥ श्लोक ॥    
भाषाभेदाश्च वर्तन्ते ह्यर्थ एको न संशयः ।
पात्रद्वये यथा खाद्यं स्वादभेदो न विद्यते ॥१॥

भाषा परिवर्तन से कभी । अर्थ व्यर्थ होता नहीं । कार्यसिद्धि तो सर्व ही । अर्थ के पास ही ॥४१॥
तथापि प्राकृत के कारण । संस्कृत हुई सार्थक । अन्यथा वह गुप्तार्थ । कौन जानता ॥४२॥
अस्तु अब यह कहना । भाषा त्याग अर्थ लेना । उत्तम लेकर त्यागना । छाल छिलकों का ॥४३॥
अर्थ सार भाषा पोंचट । अभिमान से होती खटपट । नाना अहंता ने बाट । रोकी मोक्ष की ॥४४॥
शोध लेते ही लक्ष्यांश का । वहां पहले वाच्यांश कैसा । अगाध महिमान भगवंत का । समझना चाहिये ॥४५॥
मूकता के बोल ये । यह जिसका वही जाने । स्वानुभव के चिन्ह ये । स्वानुभवी ही जाने ॥४६॥
अर्थ जाने अध्यात्म का । ऐसा श्रोता मिले कैसा । जिससे बोलते ही वाचा का । समाधान ही होता ॥४७॥
पारखी के सम्मुख रत्न । रखने पर होता समाधान । वैसे ही ज्ञानियों के सम्मुख ज्ञान । कहने की इच्छा होती ॥४८॥
मायाजाल में दुश्चित होये । वे निरूपण के काम न आये । सांसारिकों के क्या समझ में आयें । अर्थ यहां का ॥४९॥

॥ श्लोक ॥    
व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनंदन ।
बहुशाखा ह्यनंताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् ॥छ।॥

व्यवसाय में जो मलिन । उसे न समझे निरूपण । यहां चाहिये सावधान । आत्यंतिक ॥५०॥
नाना सिक्के नाना रत्न । दुश्चितता से ले तो नुकसान । जो प्राणी न जाने परिक्षण । ठगता वहां ॥५१॥
वैसे ही जानें निरूपण । सहजता से न हो आकलन । मराठी ही समझे न । करो कुछ भी ॥५२॥
जहां निरूपण के वचन । और अनुभव का गीलापन । वह संस्कृत से भी गहन । अध्यात्मश्रवण ॥५३॥
मायाब्रह्म पहचानें । अध्यात्म उसे ही कहें । तो भी उस माया का जानें । स्वरूप प्रथम ॥५४॥
माया सगुण साकार । माया सर्वस्व विकार । माया जानियें विस्तार । पंचभूतों का ॥५५॥
माया दृश्य दिखे दृष्टि से । मायाभास मन को भासे । माया क्षणभंगुर नश्वर है । विवेक से देखने पर ॥५६॥
माया अनेक विश्वरूप । माया विष्णु का स्वरूप । माया की सीमा अनाप । कहे जितनी थोडी ही ॥५७॥
माया बहुरूपी बहुरंग । माया ईश्वर का संग । माया देखो तो अभंग । अज्ञान से ॥५८॥
माया सृष्टि की रचना । माया अपनी कल्पना । माया तोडे तो टूटे ना । ज्ञान बिना ॥५९॥
ऐसी माया निरूपित की । स्वल्प संकेत से कही । आगे वृत्ति सावधान करनी । चाहिये श्रोताओं ने ॥६०॥
आगे ब्रह्मनिरूपण । निरूपित है ब्रह्मज्ञान । जिससे टूटे मायाभान । एकसाथ ॥६१॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे मंगलाचरणनाम समास पहला ॥१॥

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Last Updated : December 04, 2023

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