चतुर्दश ब्रह्म नाम - ॥ समास दूसरा - ब्रह्मनिरूपणनाम ॥

श्रीसमर्थ ने ऐसा यह अद्वितीय-अमूल्य ग्रंथ लिखकर अखिल मानव जाति के लिये संदेश दिया है ।


॥ श्रीरामसमर्थ ॥
ब्रह्म निर्गुण निराकार । ब्रह्म निःसंग निर्विकार । ब्रह्म का नहीं पारावार । कहते साधु ॥१॥
ब्रह्म सब से व्यापक । ब्रह्म अनेकों में एक । ब्रह्म शाश्वत यह विवेक । शास्त्रों में है कहा ॥२॥
ब्रह्म अच्युत अनंत । ब्रह्म सदोदित संत । ब्रह्म कल्पना रहित । निर्विकल्प ॥३॥
ब्रह्म भिन्न इस दृश्य से । ब्रह्म विलग शून्यत्व से । ब्रह्म इंद्रियों के योग से । अनाकलनीय ॥४॥
ब्रह्म दृष्टि से दिखे ना । मूर्ख के लिये ब्रह्म रहे ना । ब्रह्म साधु बिन आये ना । अनुभव में ॥५॥
ब्रह्म समस्तों से श्रेष्ठतर । ब्रह्म जैसा नहीं सार । ब्रह्म सूक्ष्म अगोचर । ब्रह्मादिकों को ॥६॥
ब्रह्म शब्दों के लिये जैसे तैसे । भिन्न जो बोला गया उससे । परंतु श्रवण अभ्यास से। पायें है ब्रह्म ॥७॥
ब्रह्म के नाम अनंत । फिर भी ब्रह्म नामातीत । ब्रह्म को हेतुदृष्टांत । देने पर न शोभते ॥८॥
ब्रह्म सरीखा दूसरा । देखे तो क्या है खरा । ब्रह्म को दृष्टांत का सहारा । शोभा न दे कभी ॥९॥
श्रुति - यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह ॥छ॥
जहा वाचा निवर्तित होती । मन को नहीं ब्रह्मप्राप्ति । ऐसे कहती श्रुति । सिद्धातवचन ॥१०॥
मन देखे कल्पनारूप में । कल्पना ही नहीं ब्रह्म में। कोई भी वाक्य इसलिये । अन्यथा नहीं ॥११॥
अब मन को जो अप्राप्त । वह होगा कैसे प्राप्त । ऐसा कहोगे तो भी कृत्य । नहीं सद्गुरू बिन ॥१२॥
भंडार गृह भरे हुये । मगर हैं अटके हुये । कुंजी हांथ न आये । तो सभी अप्राप्त ॥१३॥
तब वह कुंजी कौन। दीजिये मुझे निरूपण । ऐसे श्रोता पूछे चिन्ह । वक्ता से ॥१४॥
सद्गुरू कृपा ही कुंजी। जिससे प्रकाशित हुई बुद्धि। द्वैत कपाट खुली । एकसाथ ही ॥१५॥
जहां सुख होता अत्याधिक । मन को प्रवेश वर्जित । मन के बिन प्रयत्न । साधनों का ॥१६॥
उसकी मन के बिना प्राप्ति । अथवा वासना बिना तृप्ति । वहां न चले व्युत्पत्ति । कल्पना की ॥१७॥
वह परा से भी पर । मनबुद्धि अगोचर । संग त्यागते ही सत्वर । होता प्राप्त ॥१८॥
संग अपना त्यागें । तब उसको देखें । अनुभवी इन बोलों से । सुखी होगा ही ॥१९॥
अहम् याने मैं पन । मैं पन याने जीवपन । जीवपन याने अज्ञान । संग जुडा जो ॥२०॥
उस संग को त्यागने से । होता ऐक्य निःसंग से। कल्पना बिन प्राप्ति का ऐसे । अधिकार है ॥२१॥
मैं कौन ना पहचाने । इसका नाम अज्ञान कहियें । अज्ञान जाने पर मिले । परब्रह्म वे ॥२२॥
देहबुद्धि का बड़प्पन । परब्रह्म के पास न टिके जान । वहां होता है निर्वाण । अहंभाव का ॥२३॥
ऊंचनीच का भेद नहीं । राजा रंक एक ही । हो पुरुष अथवा नारी । एक ही पद ॥२४॥
ब्राह्मण का ब्रह्म पवित्र । शूद्र का ब्रह्म सो अपवित्र । ऐसा निराला अलग विचार । वहां होता ही नही ॥२५॥
उच्च ब्रह्म वह राजा का । नीच ब्रह्म वह परिवार का । ऐसा विचार भेदभाव का । उसके पास होता ही नहीं ॥२६॥
सभी के लिये ब्रह्म एक । वहां नहीं ये अनेक । रंक अथवा ब्रह्मादिक । वहीं जाते ॥२७॥
स्वर्ग मृत्यु और पाताल । तीनों लोकों के ज्ञाता सकल । सभी को मिलाकर एक ही स्थल । विश्रांति का ॥२८॥
गुरुशिष्य को एक ही पद । वहां नहीं भेदाभेद । मगर इस देह का संबंध । तोड़ना चाहिये ॥२९॥
देहबुद्धि अंत पाती । सब के लिये एक ही प्राप्ति । एक ब्रह्म द्वितीयं नास्ति । यह श्रुति वचन ॥३०॥
साधु दिखते अलग निराले । मगर वे होते स्वरूप में मिले। सभी मिलकर एक हुये । देहातीत वस्तु ॥३१॥
ब्रह्म नहीं नवीन पुरातन । ब्रह्म नहीं अधिक न्यून । न्यून समझे वे श्वान । देहबुद्धि के ॥३२॥
देहबुद्धि का संशय । करे समाधान का क्षय । चूकता समाधानसमय । देहबुद्धि के योग से ॥३३॥
शरीर का जो बड़प्पन । वही देहबुद्धि के लक्षण । मिथ्या जानकर विचक्षण । करते निंदा देह की ॥३४॥
देह न पाये जब तक मरण । तब तक धरे देहाभिमान । पुनः दिखाये पुनरागमन । फिर से देहबुद्धि ॥३५॥
देह के बडप्पन कारण । आये समाधान में न्यून । देह गिरेगी किस गुण । से यह भी समझे ना ॥३६॥
हित है देहातीत । इस कारण निरूपण देते संत । देहबुद्धि से अनहित । होना ही है ॥३७॥
सामर्थ्य बल से देहबुद्धि । योगियों को भी बाधा करती । देहबुद्धि की उपाधि । बढ़ने लगती ॥३८॥
इस कारण देहबुद्धि ये झड़े । तभी परमार्थ सधे । देहबुद्धि से बिगड़े । ऐक्यता ब्रह्म से ॥३९॥
विवेक वस्तु की ओर खींचे । देहबुद्धि वहां से गिराये । अहंता लाकर करे । अलग ॥४०॥
विचक्षण इस कारण से । त्यागें देहबुद्धि श्रवण से । सत्य ब्रह्म में साचार से । मिल जायें ॥४१॥
सत्य ब्रह्म वह कौन । ऐसा श्रोता करे प्रश्न । प्रत्युत्तर देता स्वयं । वक्ता श्रोता को ॥४२॥
कहे ब्रह्म एक ही है । मगर वह बहुविध भासे । अनेक अनुभव देह से होते । नाना मतों से ॥४३॥
जो जिसने अनुभव किया । वही उसने मान लिया । वहीं उसका आश्वस्त हुआ । अंतःकरण ॥४४॥
ब्रह्म नामरूपातीत । होकर भी नाम बहुत । निर्मल निश्चल प्रशांत । निजानंद ॥४५॥
अरूप अलक्ष्य अगोचर । अच्युत अनंत अपरंपार । अदृश्य अतर्क्स अपार । ऐसे नाम ॥४६॥
नादरूप ज्योतिरूप । चैतन्यरूप सत्तारूप । साक्षरूप सस्वरूप । ऐसे नाम ॥४७॥
शून्य और सनातन । सर्वेश्वर और सर्वज्ञ । सर्वात्मा जगजीवन । ऐसे नाम ॥४८॥
सहज और सदोदित । शुद्ध बुद्ध सर्वातीत । शाश्वत और शब्दातीत । ऐसे नाम ॥४९॥
विशाल विस्तीर्ण विश्वंभर । विमल वस्तु व्योमाकार । आत्मा परमात्मा परमेश्वर । ऐसे नाम ॥५०॥
परमात्मा ज्ञानघन । एकरूप पुरातन । चिद्रूप चिन्मात्र जान । नाम है अनामी के ॥५१॥
ऐसे नाम असंख्यात । परंतु वह परेश नामातीत । उसका करने निश्चितार्थ । रखे है नाम ॥५२॥
वह विश्रांति का विश्राम । आदिपुरुष आत्माराम । एक ही वह परब्रह्म । दूसरा नहीं ॥५३॥
उसे ही समझने के कारण । चौदह ब्रह्मों के लक्षण । कहता हूं उनका श्रवण । करने से होगा निश्चय सुदृढ ॥५४॥
सभी खोटे अलग करें । शेष जो खरा जानिये । चौदह ब्रह्म शास्त्राधार से । कहता हूं ॥५५॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे ब्रह्मनिरूपणनाम समास दूसरा ॥२॥

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Last Updated : December 04, 2023

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