संस्कृत सूची|संस्कृत साहित्य|पुस्तकं|सिद्धसिद्धान्तपद्धतिः| अथ गोपीचंद जी की सबदी सिद्धसिद्धान्तपद्धतिः सिद्धसिद्धान्तपद्धतिः योगविषयः अमरौघप्रबोधः अथ योगमार्तण्डग्रन्थः प्रारम्भः गोरख उपनिषद् मत्स्येन्द्रनाथजी का पद अथ भरथरी जी का सबदी अथ चिरपटजी की सबदी अथ गोपीचंद जी की सबदी अथ जलंधरी पावजी की सबदी अथ गोपीचंद जी की सबदी सिद्धसिद्धान्तपद्धतिः हा ग्रंथ गोरक्षनाथांनी हठ योगावर लिहीला आहे.The Siddha Siddhanta Paddhati is a very early extant Hatha Yoga Sanskrit text attributed to Gorakshanath. Tags : gorakshanathhath yogsanskritगोरक्षनाथसंस्कृतहठ योग अथ गोपीचंद जी की सबदी Translation - भाषांतर रज तजिलै पूता पाट तजिलै । तजिलै हस्ती घोडा ।सति सति भाषत माता मैणावती रे पूता । कलि मैं जीवन थोडा ॥१॥राजा कै घरि राणी होती माता । हमारै होती माई जी ।सवषणै भौ बारै बैठती माता । यहु - ग्यान कहां तैल्याईजी ॥२॥गुरु हमारै गोरष बोलीऐ । चरपट है गुरुभाई जी ।एक सबद हमकूं गुरु गोरषनाथ दीया । सो वो ल्यष्या मैणांवती माई जी ॥३॥सोलासैं राणीमैं बारासै कन्या । बंगाल देस बड भोगीजी ।बारा बरस मोनै राज्यकरण दे । पिछे होऊंगा जोगीजी ॥४॥आजि आजि करता पूता काल्हि काल्हि करंता ।काया झरै कलाल की भाठीजी ।सति सति भाषंत माता मैणावती रे पूता ।यौ तन जलिबलि हिइ मसांण की माटीजी ॥५॥जोग न होसी रे पूता भोगन होसी । न सीझि सो जल विंब की काया ।सति सति भांषत माता मैणावती रे पूता । भूमि भूल्यै रे भाया जी ॥६॥मरौगे मरिजाहू गेरे । फिरि हो हूगे मासांणकी छारंगंजी । कबहूकू परम तत चीन्है जेरे पूता । ज्यूं उतरौ संसार भौ पारंजी ॥७॥कूंण हमकू भात पुलावै । कूंण पषाले पाईजी ।कहा सूं मेरै मैडी मंदिर । कहां तू मैणावती माईजी ॥८॥अलष तुमकूं मात पुलावै । गंग पषालै पाई जी ।रूंषे बिरषे तेरैमेडी मंदिर । घरिघरि मणावती माईजी ॥९॥माता कै उपदेश तजीला । देस बंगाल जी ।गोपीचंद गुरु कै सरणै । भेटत भागा काल जी ॥१०॥छाद्या राजपाट पाणी छाड्या । छाद्याभोग विलासजी ।गोपीचंद धीलाघर सबदी । छादि भया बनवासजी ॥११॥राणी सकल कन्या सब ही । है है कार भईलाजी ।रावत रैति तुरी गज गलबल । राजा गोपीचंद कहां गईलाजी ॥१२॥जलंधरी पाव हाथि दे डीबी । गोपीचंद षंदाया जी । मंदर महल पौलि जहां भीतरी । तहां अलेष जगाया जी ॥१३॥माइ बहन करि भिष्या मांगी । पूरया सींगी नांदजी ।सांमलि साद मिली जब राणी । आइ किया संवादजी ॥१४॥मन राजा मन प्रजा । मन सकलका बंधजी ।मनकूं चीन्हे पारग्रींमी भया । राजा गोपीचंदजी ॥१५॥ग्रहवे कूं नांही देषिबे कूं लषि । चंदसूर विवरजित पषि ।जलमैं बिब द्रपन मैं छाया । ऐसा अचिंत पद गोपीचंद पाया ॥१६॥पाया लो भल पायालो । सरबंथा न सहेती थिति ।रूप सहेती दीसण लागा । पिंड भई प्रतिति ॥१७॥मन थिरंता पवन थिर । पवन थिरंता बिंद ।बिंद थिरंता जिंदा थिर । यूं भाषै गोपीचंद ॥१८॥मन चलंता पवन चलै । पवन चलता बिंद ।बिंद चलंता कंध पडै । यूं भाषै गोपीचंद ॥१९॥ N/A References : N/A Last Updated : November 25, 2016 Comments | अभिप्राय Comments written here will be public after appropriate moderation. Like us on Facebook to send us a private message. TOP