अध्याय पहला - श्लोक २१ से ४०

देवताओंके शिल्पी विश्वकर्माने, देवगणोंके निवासके लिए जो वास्तुशास्त्र रचा, ये वही ’ विश्वकर्मप्रकाश ’ वास्तुशास्त्र है ।


वज्र ( बिजली ) और अग्निसे दूषितमें और भग्न ( फ़ूटा ) में सर्प और चाण्डालसे युक्तमें और जिस घरमें उल्लू वसमे हों और जिस घरमें सात दिन तक काग वसे हो ॥२१॥

और जिसमें रात्रिमें मृग वसे अथवा गो बिलाव ये अत्यन्त शब्द करैं और जिसमें हाथी घोडे आदि अत्यन्त शब्द करें और जो घर स्त्रियोंके युध्दसे अत्यन्त दूषित हो ॥२२॥

जिस घरमें कबूतरोंके घर हों मधूकादिनिलय अर्थात मोहोर बैठती हो और इस प्रकारके अनेक जो उत्पात हैं उनसे दूषित घरके होनेपर वास्तुशान्तिको करैं ॥२३॥

इसके अनन्तर भूमिके लक्षणका वर्णन करते हैं। इसके अनन्तर जगतके कल्याणकी कामनासे भूमिको वर्णन करता हूँ कि, ब्राम्हण आदिवर्णोंके घरोंकी क्रमसे श्वेत रक्त पीत और कृष्णवर्णकी भूमि होती है ॥२४॥

सुंदर जिसमें गन्ध हो ऎसी श्वेतभूमि ब्राम्हणी और रुधिरके समान जिसमें गन्ध हो ऐसी भूमि क्षत्रिया, सहतके समान जिसमें गंध हो ऎसी भूमि वैश्या और मदिराके समान जिसमें गंध हो ऎसी भूमि शूद्रा होती है ॥२५॥

जो भूमि मधूर हो वह ब्राम्हणी और जो कषैली हो वह क्षत्रिया और जो अम्ल ( खट्टी ) हो वह वैश्या और जो तिक्त ( चरपरी ) होती है वह शूद्रा कही है ॥२६॥

जो भूमि चौकोर हो जिसका हाथीके समान आकार हो और जिसका सिंह बैल घोडा हाथीमे समान रुप हो और गोल भद्रपीठस्थानकी भूमि त्रिशूल और शिवलिंगके तुल्य हो ॥२७॥

और प्रासादकी ध्वजा और कुंभ आदि जिसमें हों ऎसी भूमि देवताओंकों भी दुर्ल्लभ हैं जो भूमि त्रिकोण हो और जिसका शकट ( गाडा ) के समीन आकार हो और जो सूप और बीजनेके तुल्य हो ॥२८॥

और जो मूरज ( मृदंग ) बाजके तुल्य हो और सांप मेंढकके तुल्य जिसका रुप हो और जो गर्दभ और अजगरके समान हो और बगला और चिपिटके समान जिसका रुप हो ॥२९॥

और मुद्रर उल्लू काक इनकी जो तुल्य हो, सूकर उष्ट्र बकरी इनकी जो तुल्य हो, धनुष परशु ( कुल्हाड ) इनकी समान जिसका रुप हो ॥३०॥

और कृक लास ( कर्केटा ) और शव ( मुर्दा ) जिसका इनके समान रुप हो और दु:खसे गमन करने योग्य हो इतने प्रकारकी भूमिको वर्ज दे । जो भूमि मनोरम हो उसकी यत्न्रसे परीक्षा करै ॥३१॥

और दूसरी वह भूमि दृढ होती है जो उत्तर और पूर्वको नीची हो ब्राम्हणोंके गृहकी भूमि गभ्भीर हो और क्षत्रियोंकी ऊंची होती है ॥३२॥

और वैश्योंकी भूमि सम ( न ऊंची न नीची ) कही है और शूद्रोंके लिये विकट भूमि श्रेष्ट कही है- अथवा सब वर्णोंके लिये समान जो भूमि है वह श्रेष्ठ कही है ॥३३॥

और सफ़ेद वर्णकी भूमि सब वर्णोंको शुभ कही है जिस भूमिमें कुशा और काश हों वह ब्राम्हणोंको और जिसमें दूब हो वह क्षत्रियोंको श्रेष्ठ है ॥३४॥

जिसमें फ़ल पुष्प लता हों वह वैश्योंको और जिसमें तृण हों वह शूद्रोंको श्रेष्ठ है, जो भूमि नदीके घात ( कटाव ) के आश्रयमें हो और जो बडे बडे पत्थरोंसे युक्त हो ॥३५॥

और जो पर्वतके अग्रभागसे मिली हो और जिसमें गढे और छिद्र हों जो और सूपके समानहो, जिसकी कान्ति लकुट ( दण्ड ) के समानहो और जिस भूमिका निन्दित रुप हो ॥३६॥

और जो भुमि मूसलके समान और महाघोर हो और जो भल्ल भल्लूक ( रीछ ) से युक्तहो और जिसका मध्यमें विकट रुप हो ॥३७॥

और जो कुत्ता गीदडके समानहो और जो रुखी और दांतोंसे युक्त हो और चैत्य श्मशान वाँमी और जंबूकका स्थान इनसे रहित हो ॥३८॥

और चतुष्पथ ( चौराहा ) महावृक्ष और देव मंत्री ( भूत आदि ) इनका जिसमें निवासहो और जो नगरसे दूर हो और जो गढोंमें युक्तहो ऐसी भूमिको वर्जदे ॥३९॥

इति भूमिलक्षणम ॥ इसके अनन्तर फ़लोंका वर्णन करते है - जिस भूमिमें अपने वर्णकी गंध होय और जिसका सुंदर रुपहो वह भूमि धन धान्य और सुखके देनेवाली होती है और इससे विपरीत हो तो फ़लभी विपरीत होता है इससे भूमिकी परीक्षा करनी ॥४०॥

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Last Updated : January 20, 2012

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