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अध्याय ६१

श्रीवामनपुराण - अध्याय ६१

श्रीवामनपुराणकी कथायें नारदजीने व्यासको, व्यासने अपने शिष्य लोमहर्षण सूतको और सूतजीने नैमिषारण्यमें शौनक आदि मुनियोंको सुनायी थी ।


ब्रह्माने कहा - परस्त्रीसे संगत होना, पापियोंके साथ रहना और सब प्रणियोंके प्रति ( किसी भी प्राणीके साथ ) कठोरतका व्यवहार करना पहला नरक कहा कहा गया है । दोषयुक्त एवं वर्जित - ग्रहण न करने योग्य - वस्तुओंका लेना, जो वधके योग्य नहीं है उसे मारना अथवा बन्धनमें डालना ( बन्दी बनाना ) और अर्थ ( धन - रुपये - पैसे ) - के लिये किया जानेवाला विवाद ( मुकदमा उठाना ) तीसरा नरक होता है । सभी प्राणियोंको भय देना, संसारको सार्वजनिक सम्पत्तिको नष्ट करना तथा अपने नियत धर्म - नियमोंसे विचलित होना पाँचवाँ नरक गया है । फलोंकी चोरी, ( अच्छे ) उद्देश्यसे रहित घूमना ( अवारापन ) एवं वृक्ष आदि वनस्पतियोंका काटना घोर पाप तथा दूसरा नरक कहा जाता है । पत्र ( पुष्प आदि ) एवं फल चोराना, किसीको बाँध ( बन्धुवा बनाये ) रखना, किसीके प्राप्तव्यकी प्राप्तिमें विघ्न - बाधा डालकर उसे नष्ट कर देना, घोड़ा - गाड़ी आदि सवारीके जूए ( आदि सामानों ) - की चोरी कर लेना छठा पाप कहा गया है । भुलावेमें पड़कर राजाके अंशका चुरा लेना एवं मूर्खतावश साहस कर राजपत्नीका संसर्ग एवं राज्यका अमङ्गल ( नुकसान ) करना सातवाँ नरक कहा जाता है । किसी वस्तु पुरश्चरण आदि तान्त्रिक अभिचारोंसे किसीको मारनाया व्यक्तिपर लुभा जाना, लालच करना, पुरुषार्थ प्राप्त धर्मयुक्त अर्थका विनाश करना चौथे प्रकारका नरक कहलाता है ॥१ - ४॥

मृत्यु - जैसा अपार कष्ट देना तथा मित्रके साथ छल - छद्म, झूठी शपथ और अकेले मधुर पदार्थ खाना और लारमिली वाणीको आठवाँ नरक कहते हैं ॥५ - ८॥

ब्राह्मणको देशसे निकाल देना, ब्राह्मणका धन चुराना, ब्राह्मणोंकी निन्दा करना तथा बन्धुओंसे विरोध करना नवाँ कहा जाता है । शिष्टाचारका नाश, शिष्टजनोंसे विरोध, नादान बालककी हत्या, शास्त्रग्रन्थोंकी चोरी तथा स्वधर्मका नाश करना दसवाँ नरक कहा जाता है । षडङ्गनिधन अर्थात् छः अङ्गोंवाली वेद - विद्याको नष्ट करना और षाडगुण्य अर्थात् सन्धि - विग्रह, यान, आसनद्वैधीभाव, समाश्रय ( राजनीति - गुणों ) - का प्रतिषेध ग्यारहवाँ घोर नरक कहा गया है । सज्जनोंसे सदा वैर - भाव, आचरसे रहित रहना, बुरे कार्यमें लगे रहना एवं संस्कारविहीनताको बारहवाँ नरक कहा गया है ॥९ - १२॥

धर्म, अर्थ एवं सत्कामनाकी हानि, मोक्षका नाश एवं इनके समन्वयमें विरोध उत्पन्न करनेको तेरहवाँ नरक कहा जाता है । कृपण, धर्महीन, परित्याज्य एवं आग लगानेवालेको चौदहवाँ निन्दित नरक कहते हैं । विवेकहीनता, दूसरेके गुणमें दोष निकलना, अमङ्गल करना, अपवित्रता एवं असत्य करना, विशेष रुपसे क्रोध करना, सभीके प्रति आततायी बन जाना एवं घरमें आग लगाना सोलहवाँ नरक कहलाता है ॥१३ - १६॥

परस्त्रीकी कामना, सत्यके प्रति ईर्ष्या रखना, निन्दित एवं उद्दण्ड व्यवहार करना नरक देनेवाला कहा गया है । इन पुन्नाम आदि पापोंसे युक्त पुरुष ( भी ) निस्सन्देह ' पुत्र ' के द्वारा जगत्पति जनार्दनको प्रसन्न कर सकता है । पापहारी सुसन्ततिसे प्रसन्न होकर भगवान् जनार्दन पुन्नामके घोर नरकको पूर्णतया नष्ट कर देते हैं । साध्य ! इसीलिये सुतको ' पुत्र ' कहा जाता है । अब इसके बाद मैं शेष पापोंका लक्षण बतलाता हूँ ॥१७ - २०॥

द्विजश्रेष्ठ ! देवऋण, ऋषिऋण, प्राणियोंके ग्रहण - विशेषतः मनुष्यों एवं पितरोंका ऋण, सभी वर्णोंको एक समझना, ॐकारके उच्चारणमें उपेक्षा - भाव रखना, पापकामोंका करना, मछली खाना तथा अगम्या स्त्रीसे संगत होना - ये महापाप हैं । घृत - तैल आदिका बेचना, चाण्डाल आदिसे दान लेना, अपना दोष छिपाना और दूसरेका दोष प्रकट करना - ये घोर पाप हैं । दूसरेका उत्कर्ष देखकर जलना, कड़वी बात बोलना, निर्दयपना, नाम कहनेसे भी अधर्मजनक टाकिता और तालवादिता, भयङ्करता तथा अधार्मिकताके कार्य नरकके कारण हैं । इन पापोंसे युक्त मनुष्य ( भी ) यदि परमज्ञानी शङ्करको ( अपनी आराधनासे ) संतुष्ट कर लेता है तो शेष पापोंको वह पूर्णरुपसे जीत लेता है । धर्मपुत्र ! उस जन्ममें किये गये ( अपने ) सभी कायिक, वाचिक एवं मानसिक कर्म तथा माता - पिता एवं आश्रितजनों और भाइयों एवं बान्धवोंद्वारा किये गये कर्म भी विलीन हो जाते हैं । साध्य ! सुत और शिष्यका यही धर्म हैं । इसके विपरीत होनेपर विपरीत गति प्राप्त होती हैं, अतएव विद्वान् व्यक्तिको चाहिये कि पुत्र और शिष्यकी ( परम्परा ) बनाये रखे । इसी अभिप्रायकी दृष्टिसे शिष्यकी अपेक्षा पुत्र अत्यन्त श्रेष्ठ होता है कि शिष्य केवल शेष पापोंसे मुक्त करता है पुत्र सम्पूर्ण पापोंसे बचा लेता है ॥२१ - २९॥

पुलस्त्यजी बोले - पितामहकी बात सुनकर साध्य तपोधन सनत्कुमारने कहा - देव ! मैं तीन बार सत्यका उच्चारण करके कहता हूँ कि मैं आपका पुत्र हूँ । अतः मुझे आप योगका उपदेश दीजिये । तब महायोगी पितामहने उनसे कहा - पुत्र ! तुम्हारे मातापिता यदि तुमको मुझे दे दें तो तुम मेरे ( स्वत्वप्राप्तिमें अधिकृत ) ' दायाद ' ( भागीदार ) पुत्र हो जाओगे । सनत्कुमारने कहा - भगवन् ! आपने जो यह ' दायाद ' शब्द कहा है उसका अर्थ क्या है ? ) कृपया ) उसकी विवेचना कीजिये । नारदजी ! भगवान् पितामह साध्यप्रधान सनत्कुमारका वचन सुनकर हँसते हुए बोले वत्स ! सुनो ॥३० - ३३॥

ब्रह्माने कहा - ' औरस ', ' क्षेत्रज ', ' दत्त ', ' कृत्रिम ', ' गूढोत्पन्न ' और ' अपविद्ध ' - ये छः बान्धव दायाद अर्थात् ( दायभागके अधिकारी ) होते हैं । इन छः पुत्रोंसे ऋण, पिण्ड, धनकी क्रिया, गोत्रासाम्य, कुलवृत्ति और स्थित प्रतिष्ठा रहती हैं । ( इसके अतिरिक्त ) कानीन, सहोढ, क्रीत, पौनर्भव, स्वयंदत्त और पारशव - ये छः दायाद - बान्धव कहे जाते हैं । इनके द्वारा ऋण एवं पिण्ड आदिका कार्य नहीं होता । ये केवल नामधारी होते हैं । ये गोत्र एवं कुलसे सम्पत नहीं होते ॥३४ - ३७॥

सनत्कुमारने उनकी बात सुनकर ( पुनः ) कहा - ब्रह्मन् ! आप इन सभीका विशेष लक्षण मुझे बतलाइये । उसके पश्चात् देवोंके स्वामी ब्रह्माने कहा - पुत्र ! इन्हें मैं विशेषरुपसे बतलाता हूँ; सुनो । अपनेद्वारा उत्पन्न किया गया पुत्र ' औरस ' कहलाता है । यह अपना ही प्रतिबिम्ब होता है । पतिके नपुं क, उन्मत्त ( पागल ) या व्यसनी होनेपर उसकी आज्ञास्से अनातुरा ( कामवासनासे रहित ) पत्नी जो पुत्र उत्पन्न करती है, उसे ' क्षेत्रज ' कहते हैं । माता - पिता यदि दूसरेको अपने पुत्रको साँप दें तो वह ' दत्तक ' ( या गोद लिया हुआ ) कहा जाता है । श्रेष्ठजन मित्रके पुत्र और मित्रद्वारा दिये गये पुत्रको ' कृत्रिम पुत्र ' कहते हैं ॥३८ - ४१॥

वह पुत्र ' गूढ ' होता है, जिसके विषयमें यह ज्ञान न हो कि गृहमें किसके द्वारा वह उत्पन्न हुआ है । बाहरसे स्वयं लाये हुए पुत्रको ' अपविद्ध ' कहते हैं । कुमारी कन्याके गर्भसे उत्पन्न पुत्रका नाम ' कानीन ' होता है । गर्भिणी कन्यास्से विवाहके बाद उत्पन्न पुत्रको ' अपविद्ध ' कहते हैं । कुमारी कन्याके गर्भसे उत्पन्न पुत्रका नाम ' कानीन ' होता है । गर्भिणी कन्यासे विवाहके बाद उत्पन्न पुत्रको ' सहोढ ' कहते हैं । मूल्य देकर खरीदा हुआ पुत्र ' क्रीत ' पुत्र कहलाता है । ' पुनर्भव ' पुत्र दो प्रकारका होता है । एक कन्याको एक पतिके हाथमें देकर पुनः उससे छीनकर दूसरे पतिके हाथमें देनेपर जो पुत्र उत्पन्न होता है उसे ' पुनर्भव ' पुत्र कहते हैं । दुर्भिक्ष, व्यसन या अन्य किसी कारणसे जो स्वयंको ( किसी दूसरेके हाथमें ) समर्पित कर देता है उसे ' स्वयंदत्त ' पुत्र कहते हैं ॥४२ - ४५॥

सुव्रत ! व्याही गयी या क्वाँरी अविवाहित शूद्राके गर्भसे ब्राह्मणका जो पुत्र होता है उसका नाम ' पारशव ' पुत्र है । पुत्र ! इन कारणोंसे तुम स्वयं आत्मदान नहीं कर सकते । अतः शीघ्र जाकर अपने माता - पिताको बुला लाओ । [ पुलस्त्यजी कहते हैं - ] मुने ! इसके बाद सनत्कुमारने विभु ब्रह्माके कहनेसे अपने माता - पिताका स्मरण किया । नारदमुनि ! वे दम्पति पितामहका दर्शन करनेके लिये वहाँ आ गये । धर्म और अहिंसा दोनों ब्रह्माको प्रणाम कर बैठ गये । उनके सुखसे बैठ जानेपर सनत्कुमारने यह वचन कहा ॥४६ - ४९॥

सनत्कुमारने कहा - तात ! मैंने योग जाननेके लिये पितामहसे प्रार्थना की थी । उन्होंने मुझसे अपना पुत्र होनेके लिये कहा था । अतः आप मुझे प्रदान कर दें । पुत्रके इस प्रकार कहनेपर उन दोनों योगचार्योंने पितामहसे कहा - प्रभो ! हम दोनोंका यह पुत्र आपका हो । ब्रह्मन् ! आजसे यह पुत्र आपका होगा । इतना कहकर वे शीघ्र ही जिस मार्गसे आये थे उसीसे फिर चले गये । पितामहने भी उस विनयी पुत्र सनत्कुमारको द्वादशपत्रयोगका उपदेश किया ( जो आगे वर्णित है - ) ॥५० - ५३॥

इन ( भगवान् वासुदेव ) - की शिखामें स्थित ' ओङ्कार ', सिरपर स्थित मेष और वैशाखमास - ये इनके प्रथम पत्रक हैं । मुखमें स्थित ' न ' अक्षर और वहींपर विद्यमान वृषराशि तथा ज्येष्ठमास - ये उनके द्वितीय पत्रक कहे गये हैं । दोनों भुजाओंमें स्थित ' मो ' अक्षर, मिथुनराशि एवं आषाढ़मास - ये उनके तृतीय पत्रक हैं । उनके नेत्रद्वयमें विद्यमान ' भ ' अक्षर कर्कराशि और श्रावणमासये चतुर्थ पत्रक हैं ॥५४ - ५७॥

( उनके ) हदयके रुपमें विद्यमान ' ग ' अक्षर, सिंहराशि और भाद्रपदमास - ये पञ्चम पत्रक हैं । ( उनके ) कवचके रुपमें विद्यमान ' व ' अक्षर, कन्याराशि और आश्विनमास ये षष्ठ पत्रक हैं । ( उनके ) अस्त्र - समूहके रुपमें विद्यमान ' ते ' अक्षर, तुलाराशि और कार्तिकमास - ये सप्तम पत्रक हैं । मुने ! ( उनके ) नाभिरुपसे विद्यमान ' वा ' अक्षर वृश्चिकराशि और मार्गशीर्षमास - ये अष्टम पत्रक हैं ॥५८ - ६१॥

( उनके ) जघनरुपमें विद्यमान ' सु ' अक्षर, धनुराशि और पौषमास - ये नवम पत्रक हैं । ( उनके ) ऊरुयुगलरुपमें विद्यमान ' दे ' अक्षर, मकराशि और माघमास - ये दशम पत्रक हैं । ( उनके ) दोनों घुटनोंके रुपमें विद्यमान ' वा ' अक्षर, कुम्भराशि और फाल्गुनमास - ये एकादश पत्रक हैं । ( उनके ) चरणद्वयरुपमें विद्यमान ' य ' अक्षर, मीनराशि और चैत्रमास - ये द्वादश पत्रक हैं । ये ही केशवके द्वादश पत्र हैं ॥६२ - ६५॥

उनका चक्र बारह अरों, बारह नाभियों और तीन व्यूहोंसे युक्त हैं । इस प्रका की उन परमेश्वरकी एक मूर्ति है । मुनिश्रेष्ठ ! मैंने तुमसे भगवानके इस द्वादशपत्रक ( ॐ नमो भगवते वासुदेवाय - इस ) स्वरुपका वर्णन किया, जिसके जाननेसे पुनः ( जन्म - ) मरण नहीं होता । उनका द्वितीय सत्त्वमय, श्रीवत्सधारी, अविनाशीस्वरुप चतुर्वर्ण, चतुर्मुख, चतुर्बाहु एवं उदार अङ्गोंसे युक्त है । हजारों पैरों एवं हजारों मुखोंसे सम्पन्न श्रीसंयुक्त तमोगुणमयी उनकी तृतीय शेषमूर्ति प्रजाओंका प्रलय करती है ॥६६ - ६९॥

उनका चतुर्थ रुप राजस है । वह रक्तवर्ण, चार मुख एवं दो भुजाओंवाला एवं माला धारण किये हुए हैं । यही सृष्टि करनेवाला आदिपुरुष रुप हैं । महामुने ! ये तीन व्यक्त मूर्तियाँ अव्यक्त ( अदृश्य तत्त्व ) - से उत्पन्न होती हैं । इनसे ही मरीचि आदि ऋषि तथा अन्यान्य हजारों पुरुष उत्पन्न हुए हैं । मुनिवर ! तुम्हारे सामने मैंने विष्णुके अत्यत प्राचीन और मति - पुष्टिवर्द्धक रुपका वर्णन किया है । [ अब आगेकी कथा सुनिये - ] दुरात्मा मुरु यमराजके कहनेसे पुनः उन चतुर्भुज ( विष्णु ) - के पास गया । मुने ! मधुसूदनने आये हुए उससे पूछा - असुर ! तुम किसलिये आये हो ? उसने कहा - मैं तुम्हारे साथ आज युद्ध करने आया हूँ । असुरारि ( विष्णु ) - ने फिर उससे कहा ॥७० - ७३॥

यदि तुम मेरे साथ युद्ध करनेके लिये आये हो तो ज्वरसे पीड़ितके सदृश तुम्हारा हदय बारंबार क्यों काँप रहा हैं ? मैं तो कातरके साथ युद्ध नहीं करुँगा । मधुसूदनके इस प्रकार कहनेपर ' कैसे, कहाँ ? किसका ? ' इस प्रकार बार - बार कहते ' कैसे, कहाँ ? किसका ?' इस प्रकार बार - बार कहते हुए बुद्धिहीन मुरुने अपने हदयपर हाथ रखा । इसे देखकर हरिने आसानीसे ( अत्यन्त लाघवतासे ) चक्र निकाला और उस शत्रुके हदय - कमलपर उसे छोड़ दिया ( जिससे उसका शत्रुके हदय - कमलपर उसे छोड़ दिया ( जिससे उसका हदय विदीर्ण हो गया ) । उसके बाद सभी देवता सन्तापरहित होकर भगवान् पद्मनाभ विष्णुकी स्तुति करने लगे । मैंने ( ब्रह्माने ) तुमसे तीक्ष्ण चक्र धारण करनेवाले विष्णुद्वारा ( कौशलसे ) किये गये दैत्यके विनाशका वर्णन किया । इसीसे विभु नृसिंह ' मुरारि ' नामसे प्रसिद्ध हुए ॥७४ - ७७॥

॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें इकसठवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥६१॥

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Last Updated : January 24, 2012

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