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अध्याय ३८

श्रीवामनपुराण - अध्याय ३८

श्रीवामनपुराणकी कथायें नारदजीने व्यासको, व्यासने अपने शिष्य लोमहर्षण सूतको और सूतजीने नैमिषारण्यमें शौनक आदि मुनियोंको सुनायी थी ।


ऋषियोंने कहा - ( प्रभो ! ) मङ्कणक किस प्रकार सिद्ध हुए ? वे महान् ऋषि किससे उत्पन्न हुए थे ? नृत्य करते हुए उन मङ्कणकको महादेवने क्यों रोका ? ॥१॥

लोमहर्षणने कहा - ( ऋषियो ! ) मङ्कणकमुनि महर्षि कश्यपके मानसपुत्र थे । ( एक समय ) वे ब्राह्मण देवता वल्कल - वस्त्र लेकर स्नान करने गये । वहाँ रम्भा आदि सुन्दरी अप्सराएँ भी गयी थीं । अनिन्द्य, कोमल एवं मनोहर ( रुपवाली वे सभी ) अप्सराएँ उनके साथ ( ही ) स्त्रान करने लगीं । उसके बाद मुनिके मनमें विकृति हो गयी; फलतः उनका शुक्र जलमें स्खलित हो गया । उस रेतको उन महातपस्वीने उठाकर घड़ेमें रख लिया । वह कलशस्थ ( रेत ) सात भागोंमें विभक्त हो गया । उससे सात ऋषि उत्पन्न हुए, जिन्हें मरुदगण कहा जाता है । ( उनके नाम हैं - ) वायुवेग, वायुबल, वायुहा, वायुमण्डल, वायुज्वाल, वायुरेता एवं वीर्यवान् वायुचक्र । उन ( मङ्कणक ) ऋषिये ये सात पुत्र चराचरको धारण करते हैं । ब्राह्मणो ! मैंने यह सुना है कि प्राचीन कालमें सिद्ध मङ्कणकके हाथमे कुशके अग्रभागसे छिद जानेके कारण घाव हो गया था; उससे शाकरस निकलने लगा । वे ( अपने हाथसे निकलते हुए उस ) शाकरसको देखकर प्रसन्न हो गये और नाचने लगे ॥२ - ८॥

इससे ( उनके नृत्य करनेसे उनके साथ ) सम्पूर्ण अचर - चर जगत् भी नाचने लगा । उनके तेजसे मोहित जगतको नाचते देखकर ब्रह्मा आदि देव एवं तपस्वी ऋषियोंने मुनिके ( हितके ) लिये महादेवसे कहा - देव ! आप ऐसा ( कार्य ) करें, जिससे ये नृत्य न करें ( उन्हें नृत्यसे विरत करनेका उपाय करें ) । उसके बाद हर्षसे अधिक मग्न उन मुनिको देखकर एवं देवोंके हितकी इच्छासे महादेवने कहा - मुनिसत्तम ! ब्राह्मणश्रेष्ठ ! आप तो तपस्वी एवं धर्मपथमें स्थित रहनेवाले हैं । फिर आपके इस हर्षका क्या कारण है ? ॥९ - १२॥

ऋषिने कहा - ब्रह्मन् ! क्या आप नहीं देखते कि मेरे हाथसे शाकका रस चू रहा हैं; जिसे देखकर मैं अत्यन्त आनन्दमग्न होकर नृत्य कर रहा हूँ । महादेवजीने हँसकर आसक्तिसे मोहित हुए उन मुनिसे कहा - विप्रवर ! मुझे आश्चर्य नहीं हो रहा है । ( किंतु ) आप इधर देखें । विप्रेन्द्रो ! श्रेष्ठ मुनिसे ऐसा कहकर देदीप्यमान भगवान् देवाधिदेव महादेवने अपनी अंगुलिके अग्रभागसे अपने अंगूठेको ठीक किया । उसके बाद उस चोटसे हिमतुल्य ( स्वच्छ ) भस्म निकलने लगा । उसे देखनेके बाद ब्राह्मण लज्जित होकर ( महादेवके ) चरणोंमें गिर पड़े और बोले - ॥१३ - १६॥

मैं महात्मा शूलपाणि महादेवके अतिरिक्त किसीको नहीं मानता । शूलपाणे ! मेरी दृष्टिमें आप ही चराचर समस्त संसारमें सर्वश्रेष्ठ हैं । अनघ ! ब्रह्मा आदि देवता आपके ही आश्रित देखे जाते हैं । आप ही देवताओंमें प्रथम हैं और आप ( सब कुछ ) करने एवं करानेवाले तथा महत्स्वरुप हैं । आपकी कृपासे सभी देवगण निर्भय होकर मोदमग्न होते रहते हैं । ऋषिने इस प्रकार महादेवजीकी स्तुति करनेके बाद उन्हें प्रणामकर कहा - भगवन् ! आपकी कृपासे मेरे तपका क्षय न हो । तब महादेवजीने प्रसन्न होकर उन ऋषिसे यह वचन कहा - ॥१७ - २०॥

( सदाशिव ) ईश्वरने कहा - विप्र ! मेरी कृपासे तुम्हारी तपस्या सहस्त्रों प्रकारसे बढ़े । मैं तुम्हारे साथ इस आश्रममें सदा निवास करुँगा । जो मनुष्य इस सप्तसारस्वततीर्थमें स्त्रन करके मेरी पूजा करेगा, उसे इस लोक और परलोकमें कुछ भी दुर्लभ नहीं होगा । वह निः संदेह उस सारस्वतलोकको जायगा एवं ( मुझ ) शिवके अनुग्रहसे परम पदको प्राप्त करेगा ॥२१ - २३॥

॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें अड़तीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥३८॥

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Last Updated : January 24, 2012

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