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अध्याय ७५

श्रीवामनपुराण - अध्याय ७५

श्रीवामनपुराणकी कथायें नारदजीने व्यासको, व्यासने अपने शिष्य लोमहर्षण सूतको और सूतजीने नैमिषारण्यमें शौनक आदि मुनियोंको सुनायी थी ।


पुलस्त्यजी बोले - द्विज ! देवोंके ब्रह्मलोक चले जानेपर बलि सदा धर्मसे युक्त ( धार्मिक ) रहते हुए तीनों लोकोंका पालन करने लगा । उस समय संसारको सत्ययुगकी भाँति धर्मसे सम्पन्न हुआ देखकर कलियुग अपने कर्त्तव्यका सेवन करनेके हेतु ब्रह्माकी शरणमें गया । वहाँ जाकर उसने ब्रह्माको इन्द्र आदि देवोंके साथ देखा । वे अपनी प्रभासे सुरों और असुरोंसे युक्त अपने लोकको प्रदीपित कर रहे थे । उन ईश्वर ब्रह्माको प्रणामकर कलिने उनसे कहा - देवश्रेष्ठ ! बलिने मेरे स्वाभाविक कर्मको नष्ट कर दिया है ॥१ - ४॥

योगी भगवान् ब्रह्माने उससे कहा - केवल तुम्हारा ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण लोकका स्वभाव उस बलशालीने हरण कर लिया है । कले ! मरुतके साथ वरुण और देवेन्द्रको देखो । बलिके पराक्रमसे सूर्य भी निस्तेज - से हो गये हैं । सहस्त्रशीर्षा तथा सहस्त्रपाद ( विष्णु ) - के सिवा तीनों लोकोंमें उसके कर्मको बंद करनेवाला कोई नहीं दीखता है । वे अविनाशी बलिद्वारा किये गये सद्धर्मके हेतु मिली हुई उसकी भूमि, स्वर्ग, राज्य, लक्ष्मी एवं यशका अपहरण करेंगे ॥५ - ८॥

भगवान् ब्रह्माके इस प्रकार कहनेपर अव्यय कलि, इन्द्र आदि देवताओंको चिन्तित हुआ देखकर विभीतक वनमें चला गया । नारदजी ! कलिके अदृश्य हो जानेसे तीनों लोकोंमें सत्ययुग प्रवर्तित हो गया । चारों वर्णोंमें चारों चरणोंसे धर्म व्याप्त हो गया । तपस्या, अहिंसा, सत्य, पवित्रता, इन्द्रियनिग्रह, दया, दान, मृदुता, सेवा और यज्ञकार्य - ये सभी समस्त जगतमें छा गये । ब्रह्मन् ! बलिने बलशाली कलिको भी सत्ययुग बना दिया ॥९ - १२॥

सभी वर्ण अपने - अपने धर्ममें स्थित हो गये । द्विजगण अपने - अपने आश्रमोंका पालन करने लगे तथा राजा प्रजापालनरुपी धर्मका आचरण करने लगे । ब्रह्मन् ! इन तीनों लोकोंके धर्म - परायण होनेपर वरदायिनी त्रैलोक्यलक्ष्मी दानवराज बलिके पास आयीं । इन्द्रकी लक्ष्मीको उपस्थित हुई देखकर बलिने पूछा - मुझे यह बतलाओ कि तुम कौन हो और किस उद्देश्यसे आयी हो । कमलकी मालासे अलंकृत लक्ष्मीने उसकी बात सुनकर कहा - बले ! मैं हठात् तुम्हारे पास आयी हूँ; मैं जो ( स्त्री ) हूँ उसे सुनो ॥१३ - १६॥

अमित शक्तिशाली चक्र और गदाको धारण करनेवाले देव विष्णुने इन्द्रको छोड़ दिया है । अतः मैं यहाँ तुम्हारे पास आयी हूँ । उन्होंने ( विष्णुने ) रुपसे सम्पन्न चार युवतियोंकी सृष्टि की । ( पहली युवती ) सत्त्वप्रधाना, श्वेतवर्णकी शरीरवाली, श्वेतवर्णका वस्त्र धारण करनेवाली, श्वेतमाल्य और अनुलेपनसे युक्त एवं श्वेत गजपर आरुढ़ थी । ( दूसरी युवती ) रजोगुणप्रधाना, रक्तवर्णकी शरीरवाली, रक्तवर्णके वस्त्रको धारण करनेवाली, रक्तवर्णके माल्य और अनुलेपनसे युक्त तथा रक्तवर्णके अश्वपर आरुढ़ थी । ( तीसरी युवती ) तमोगुण - प्रधाना, पीतवर्णके शरीरवाली, पीतवर्णका वस्त्र धारण करनेवाली, पीतवर्णकी माला और अनुलेपनसे युक्त तथा सुवर्णके बने रथपर आरुढ़ थी । ( चौथी युवती ) त्रिगुण - प्रधाना, नील शरीरवाली, नीलेवर्णका वस्त्र धारण करनेवाली एवं नीले वर्णकी माला, चन्दन और अनुलेपनसे युक्त तथा नील वर्णके वृषपर आरुढ़ थी । सत्त्वप्रधाना, श्वेतवर्णकी शरीरवाली, श्वेतवस्त्र धारण करनेवाली हाथीपर आरुढ़ ( युवती ) ब्रह्मा, चन्द्रमा एवं चन्द्रमाके अनुयायियोंके पास चली गयी । रजोगुणसे युक्त, रक्तवर्णकी शरीरवाली, रक्तवस्त्र धारण करनेवाली एवं घोड़ेपर आरुढ़ युवतीको ( उन्होंने ) इन्द्र, मनु तथा उनके समानवाले लोगोंखको प्रदान किया । कनकवर्णकी शरीरवाली, पीतवर्णके वस्त्र धारण करनेवाली, सौभाग्यवती, रथपर आरुढ़ा युवतीको ( उन्होंने ) प्रजापतियों, शुक्र एवं वैश्योंको दिया । नीलवर्णके वस्त्रको धारण करनेवाली, भ्रमरके समान, वृषपर स्थित चौथी ( युवती ) दानवों, नैऋतों, शूद्रों एवं विद्याधरोंके पास चली गयी । उस श्वेतरुपाको विप्र आदि सरस्वती कहते हैं ॥१७ - २६॥

यज्ञमें वे ब्रह्माके सहित उसका मन्त्रादिसे सदा स्तुति करते हैं । क्षत्रियजन उस रक्तवर्णाको जयश्री कहते हैं । असुरश्रेष्ठ ! वह इन्द्र तथा मनुके साथ यशोमती हुई । वैश्य तथा प्रजापतिगण उस पीतवसना कनकाङ्गीकी स्तुति सदा लक्ष्मीके नामसे करते हैं । दैत्यों एवं राक्षसोंके साथ शूद्रगण श्रीदेवीके नामसे भक्तिपूर्वक उस नीलवर्णाङ्गीकी स्तुति करते हैं । इस प्रकार उन चक्र धारण करनेवाले देवने उन नारियोंका विभाजन किया ॥२७ - ३०॥

अक्षय निधियाँ इनके स्वरुपमें स्थित हैं । इतिहास, पुराण, साङ्ग वेद, स्मृतियाँ, चौंसठ कलाएँ तथा महापद्म निधि श्वेताङ्गीके अन्तर्गत हैं । मुक्ता, सुवर्ण, रजत, रथ, अश्व, गज, भूषण, शस्त्र, अस्त्र एवं वस्त्रस्वरुप पद्मनिधि रक्ताङ्गीके अन्तर्गत हैं । गो, भैंस, गर्दभ, उष्ट्र, सुवर्ण, वस्त्र, भूमि, ओषधियाँ एवं पशुस्वरुप महानील निधि पीताङ्गीमें स्थित हैं । अन्य सभी जातियोंको अपनेमें समाविष्ट करनेवाली सारी जातियोंमें सर्वश्रेष्ठ जाति ( परसामान्यात्मक ) स्वरुप शङ्खनिधिकी नीलाङ्गी देवीमें स्थिति है । दानव ! इन ( निधियों ) - के स्वरुपके अन्तर्गत पुरुषोंके जो लक्षण होते हैं, मैं उनका वर्णन कर रही हूँ, उन्हें समझो ॥३१ - ३५॥

दानवपते ! महापद्मके आश्रित रहनेवाले मनुष्य सत्य और शौचसे युक्त तथा यजन, दान और उत्सव करनेमें लीन रहते हैं । पद्मके आश्रित रहनेवाले मनुष्य यज्ञ करनेवाले, सौभाग्यशाली, अहङ्कारी, मानप्रिय, बहुत दक्षिणा देनवाले तथा सर्वसाधारण लोगोंसे सुखी होते हैं । महानीलके आश्रित रहनेवाले व्यक्ति सत्य तथा असत्यसे युक्त, देने और लेनेमें चतुर तथा न्याय, अन्याय और व्यय करनेवाले होते हैं । बले ! शङ्खके आश्रित रहनेवाले पुरुष नास्तिक, अपवित्र, कृपण, भोगहीन, चोरी करनेवाले एवं असत्य बोलनेवाले होते हैं । दानव ! मैंने इस प्रकार आपसे उनके स्वरुपका वर्णन किया ॥३६ - ४०॥

वही रागिणी नामकी जयश्री मैं आपके पास आयी हूँ । दानवपते ! मेरी साधुजनोंसे अनुमोदित एक प्रतिज्ञा है । मैं वीर पुरुषका आश्रयण करती हूँ । नपुंसकके पास कभी नहीं जाती । तीनों लोकोंमें आपके सदृश बलवान् दूसरा कोई नहीं है । अपनी बलसम्पत्तिसे तुमने मेरेमें दृढ़ प्रीति उत्पन्न की है, क्योंकि संग्राममें पराक्रम कर तुमने देवराजको जीता है । दानव ! इसीसे आपके श्रेष्ठ सत्त्व एवं सभीसे अधिक बलको देखकर ( आपके प्रति ) मेरी स्थायी एवं उत्तम प्रीति उत्पन्न हो गयी हैं ॥४१ - ४४॥

अतः मैं अत्यन्त बलशाली तथा मानी वीर आपके पास अपने - आप ही आयी हूँ । दानवश्रेष्ठ ! हिरण्यकशिपुके वंशमें उत्पन्न आप असुरेन्द्रके लिये इस प्रकारके कर्मोंके करनेमें कोई आश्चर्य नहीं है । राजन् ! शत्रुओंद्वारा अधिकृत त्रैलोक्यको अपने पराक्रमसे जीतकर आपने दितिके पुत्र अपने प्रतितामहको और विशिष्ट कर दिया है । दानवेन्द्र बलिसे इस प्रकार कहकर चन्द्रवदना शुभा जयश्री ( बलिमें ) प्रवेश करके ( उन्हें ) प्रकाशित करने लगी । उनके प्रवेश कर जानेपर ह्वी, श्री, बुद्धि, धृति, कीर्ति, प्रभा, मति, क्षमा, समृद्धि, विद्या, नीति, दया, श्रुति, स्मृति, धृति, कीर्त्ति, मूर्ति, शान्ति, क्रिया, पुष्टि, तुष्टि एवं अन्य सभी सत्त्वगुणके आश्रित अन्य देवियाँ भी विधवा स्त्रियोंकी भाँति बलिकी छत्रछायामें आनन्दपूर्वक रहने लगीं । अच्छी बुद्धिवाले, आत्मनिष्ठ, यज्ञ करनेवाले, तपस्वी, कोमल स्वभाववाले, सत्यवक्ता, दानी, अभावग्रस्तोंके अभावको दूरकर पालन - पोषण एवं स्वजनोंकी रक्षा करनेवाले दैत्यश्रेष्ठ महात्मा बलि इस प्रकारके गुणोंसे सम्पन्न थे । दानवेन्द्र बलिके स्वर्गका शासन करते समय कोई भूखसे दुखी, मलिन एवं अभावग्रस्त नहीं था । मनुष्य भी सदा शुद्ध धर्म - परायण, इन्द्रियविजयी एवं इच्छानुकूल भोगसे सम्पन्न हो गये ॥४५ - ५२॥

॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें पचहत्तरवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥७५॥

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Last Updated : January 24, 2012

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