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अध्याय ९२

श्रीवामनपुराण - अध्याय ९२

श्रीवामनपुराणकी कथायें नारदजीने व्यासको, व्यासने अपने शिष्य लोमहर्षण सूतको और सूतजीने नैमिषारण्यमें शौनक आदि मुनियोंको सुनायी थी ।


नारदजीने कहा - महात्मा भगवानने जिस प्रकार बलिको बाँधा था उसे मैंने सुना । परंतु प्रभो ! आपसे और अन्य विषय भी मुझे पूछना है । उसे सुनकर आप मुझे उसके सम्बन्धमें बतलाइये । तात ! आप यह बतलाइये कि देवराज इन्द्रको स्वर्ग देनेके बद वे सर्वात्मस्वरुप भगवान् विष्णु अन्तर्हित होकर कहाँ चले गये । इसके सिवाय यह बी बतलाइये कि सुतलमें रहनेवाले दैत्यश्रेष्ठने क्या किया और विप्रवर ! आप मुझे विशेषरुपसे यह बतायें कि उसके बाद उसकी कौनसी चेष्टा रही ? ॥१ - ३॥

पुलस्त्यजी बोले - वामनदेवने अन्तर्धान होनेके बाद अपना वामन - स्वरुप छोड़ दिया एवं गरुडपर चढ़कर वे देवोंके स्थान ब्रह्मलोकको चले गये । वासुदेवको आया हुआ जानकर कमलके आसनपर बैंठे हुए नित्य - स्वरुपवाले ब्रह्मा ( अपने आसनसे ) उठे और सौहार्द्रभावसे विष्णुको गले लगा लिये । आलिड्गनके बाद विधिपूर्वक अर्चा आदिद्वारा हरिकी पूजा कर ब्रह्माने पूछा - ( भगवन् ) ‘ बहुत समयके बाद आपके यहाँ आन एका क्या कारण्झ हैं ? ’ उसके बाद जगत्पतिने कहा - ब्रह्मन् ! ‘ मैंने महत्त्वपूर्ण कार्य किया है । एक - देवोंके यज्ञभागके लिये मैंने बलिको बाँधा है । ’ यह वचन सुनकर ब्रह्माने प्रसन्न होकर कहा - यह कैसे ! यह कैसे ! आप उस ( बाँधनेके लिये धृत ) रुपको मुझे दिखलाइये । ऐसा वचन कह जानेपर भगवान् गरुडध्वज ( विष्णु ) - ने शीघ्रतासे वह सर्वदेव - स्वरुप अपना रुप दिखला दिया । कमलनयन भगवानके दस हजार योजन विस्तृत तथा उतने ही ऊँचे उस रुपको देखकर पितामहने प्रणाम किया । उसके बाद देरतक प्रणाम कर ब्रह्माने साधु, साधु कहा और श्रद्धापूर्वक नम्रतासे ( उन ) महादेवकी स्तुति करने लगे ॥४ - ११॥

हे देवोंके देव ! वासुदेव ! एकश्रृड्ग ! बहुरुप ! वृषाकपे ! भूतभावन ! सुरों और असुरोंमें श्रेष्ठ ! देवताओं और असुरोंका मथन करनेवाले पीतवस्त्रधारी ! श्रीनिवास ! असुरनिर्मितान्त ! अमितनिर्मित ! कपिल ! महाकपिल ! विष्वक्सेन ! नारायण ! आपको नमस्कार है ! ध्रुवध्वज ! सत्यध्वज ! खड्गध्वज ! तालध्वज ! वैकुण्ठ ! पुरुषोत्तम ! वरेण्य ! विष्णो ! अपराजित ! जय ! जयन्त ! विजय ! कृतावर्त ! महादेव ! अनादे ! अनन्त ! आद्यन्त ! मध्यनिधन ! पुरञ्जय ! धनञ्जय ! शुचिश्रव ! पृश्निगर्भ ! ( आपको नमस्कार है । ) कमलगर्भ ! कमलायताक्ष ! श्रीपते ! विष्णुमूल ! मूलाधिवास ! धर्माधिवास ! धर्मवास ! धर्माध्यक्ष ! प्रजाध्यक्ष ! गदाधर ! श्रीधर ! श्रुतिधर ! वनमालाधर ! लक्ष्मीधर ! धरणीधर ! पद्मनाभ ! ( आपको नमस्कार है । ) विरिञ्चे ! आर्ष्टिषेण ! महासेन ! सेनाध्यक्ष ! पुरुष्टुत ! बहुकल्प ! महाकल्प ! कल्पनामुख ! अनिरुद्ध ! सर्वग ! सर्वात्मन् ! द्वादशात्मक ! सूर्यात्मक ! सोमात्मक ! कालात्मक ! व्योमात्मक ! भूतात्मक ! ( आपको नमस्कार है । ) रसात्मक ! परमात्मन् ! सनातन ! मुञ्जकेश ! हरिकेश ! गुडाकेश ! केशव ! नील ! सूक्ष्म ! स्थूल ! पीत ! रक्त ! श्वेत ! श्वेताधिवास ! रक्ताम्बरप्रिय ! प्रीतिकर ! प्रतिवास ! हंस ! नीलवास ! सीरध्वज ! सर्वलोकाधिवास ! कुशेशय ! अधोक्षज ! गोविन्द ! जनार्दन ! मधुसूदन ! वामन ! आपको नमस्कार है । आप सहस्त्रशीर्ष, सहस्त्रनेत्र, सहस्त्रपाद, कमल, महापुरुष, सहस्त्रबाहु एवं सहस्त्रमूर्ति हैं । आपको देवगण सहस्त्रवदन कहते हैं । आपको नमस्कार है । ॐ विश्वदेवेश ! विश्वभू ! विश्वात्मक ! विश्वरुप ! विश्वसम्भव ! आपको नमस्कार है । आपसे यह विश्व उत्पन हुआ है । आपके मुखसे ब्राह्मण, बाहुसे क्षत्रिय, दोनों जाँघोंसे वैश्य एवं चरणकमलोंसे शूद्र उत्पन्न हुए हैं । स्वयम्भो ! आपकी नाभिसे अन्तरिक्ष, मुखसे इन्द्र एवं अग्नि, नेत्रसे सूर्य, मनसे चन्द्रमा और आपके प्रसादसे मैं हुआ हूँ । आपके क्रोधसे त्रिनेत्र ( शंकरजी ), प्राणसे वायु, सिरसे स्वर्गलोक, कर्णसे दिशाएँ, चरणोंसे यह पृथ्वी, कानसे दिशाएँ एवं तेजसे नक्षत्र उत्पन्न हुए हैं । सम्पूर्ण मूर्त और अमूर्त पदार्थ आपसे उत्पन्न हुए हैं । सम्पूर्ण मूर्त और अमूर्त पदार्थ आपसे उत्पन्न हुए हैं । अतः आप विश्वात्मक हैं । ॐ आपको नमस्कार है । आप पुष्पहास, महाहास, परम, ॐ कार, वषट्कार, स्वाहाकार, वौषट्कार, स्वधाकार, वेदमय, तीर्थमय, यजमानमय, यज्ञमय, सर्वधाता, यज्ञभोक्ता, शुक्रधाता, भूर्द, भुवर्द, स्वर्द, स्वर्णद, गोद एवं अमृतद हैं । ॐ आप ब्रह्मादि, ब्रह्ममय, यज्ञ, वेदकाम, वेद्य, यज्ञधार, महामीन, महासेन, महाशिरा, नृकेसरी, होता, होम्य, हव्य, हूयमान, हयमेध, पोता, पावयिता, पूत, पूज्य, दाता, हन्यमान, ह्नियमाण एवं हर्ता हैं । ॐ आप नीति, नेता, अग्र्य, विश्वधाम, शुभाण्ड, ध्रुव, आरण्येय, ध्यान, ध्येय, ज्ञेय, ज्ञान, यष्टा, दान, भूमा, ईक्ष्य, ब्रह्मा, होता, उदगाता, गतिमानोंकी गति, ज्ञानियोंके ज्ञान, योगियोंके योग, मोक्षर्थियोंके मोक्ष, श्रीमानोंकी श्री, गृह्य, पाता एवं परम हैं । आप सोम, सूर्य, दीक्षा, दक्षिणा, नर, त्रिनयन, महानयन, आदित्यप्रभव, सुरोत्तम, शुचि, शुक्र, नभ, नभस्य, इष ऊर्ज, सह, सहस्य, तप, तपस्य मधु, माधव, काल, संक्रम, विक्रम, पराक्रम, अश्वग्रीव, महामेध, शंकर, हरीश्वर, शम्भु, ब्रह्मेश, सूर्य, मित्रावरुण, प्राग्वंशकाय, भूतादि, महाभूत, ऊर्ध्वकर्मा, कर्त्ता, सर्वपापविमोचन एवं त्रिविक्रम हैं । आपको ॐ नमस्कार है ॥

पुलस्त्यजी बोले - ब्रह्मा एवं तपस्वियोंके इस प्रकार स्तुति करनेपर अद्भुत कर्म करनेवाले विष्णुने प्रपितामह देवसे कहा - अमलसत्ववृत्ते ! ( निर्मल सत्स्वरुपवाले ) आप वर माँगिये । पितामहने प्रसन्नतापूर्वक उनसे कहा - विभो ! मुरारे ! ‘ आप इस पवित्र रुपसे मेरे भवनमें स्थित रहें । मुझे यही वर प्रदान करें । इस प्रकार देवश्रेष्ठके वर माँगनेपर अव्ययात्मा प्रभुने उनसे कहा - ऐसा ही होगा । उसके बाद वे स्वयम्भूके भवनमें वामनरुपसे पूजित होते हुए रहने लगे । वहाँ अप्सराओंका समूह नृत्य करने लगा, सुरेन्द्रके गायक गान करके लगे, विद्याधर श्रेष्ठ तूर्य बजाने लगे एवं देव, असुर तथा सिद्धोंके समूह स्तुति करने लगे । विभुकी समाराधनाके पश्चात् देवेश पितामह ब्रह्मा पापरहित एवं शुद्ध हो गये । स्वर्गमें ब्रह्माने घरमेंसे सुन्दर पुष्पोंको लाकर उनसे विष्णुका पूजन किया । विष्णु स्वर्गमें वामन - रुपसे ( बढ़कर ) हजार योजन विस्तृत हो गये । महर्षे ! वहाँ इन्द्रने ब्रह्माके समान गुणोंसे युक्त पदार्थोंसे उनकी पूजा की । विप्र ! महात्मा भगवान् त्रिविक्रमने बलिको रसातलमें भेजकर देवताओंका जो कल्याण - साधन किया था, वह मैंने आपसे कहा । दैत्यने रसातलमें रहते हुए जो कार्य किया उसका वर्णन मैं अब कर रहा हूँ, उसे सुनिये ॥१२ - १८॥

॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें बानबेवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥९२॥

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Last Updated : January 24, 2012

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