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अध्याय ५२

श्रीवामनपुराण - अध्याय ५२

श्रीवामनपुराणकी कथायें नारदजीने व्यासको, व्यासने अपने शिष्य लोमहर्षण सूतको और सूतजीने नैमिषारण्यमें शौनक आदि मुनियोंको सुनायी थी ।


पुलस्त्यजी बोले - उसके बाद पर्वतद्वारा सम्यक् रुपसे पूजित होकर भगवान् रुद्र बहुत प्रसन्न हुए । उसके बाद शङ्करने अरुन्धतीसहित सप्त महर्षियोंका स्मरण किया । महात्मा शङ्करके द्वारा स्मृत किये गये वे ऋषिगण सुन्दर कन्दराओंवाले महान् शैल मन्दपर आ गये । उन ( ऋषियों ) - को आये हुए देखकर त्रिपुरासुरका नाश क नेवाले महादेवने अभ्युत्थानकर उनका पूजन किया; फिर यह वचन कहा - प्रभो ! यह पर्वतश्रेष्ठ देवताओंद्वारा प्रशंसनीय एवं पूजन्जीय होनेसे धन्य है, ( और आज यह ) आपके चरणकमलोंकी अनुकम्पासे निष्पाप हो गया । अब आप लोग इस विस्तृत, सम, रम्य तथा शुभ पर्वतशिखरपर बैठें । इसकी शिला कमल - वर्णकी तथा चिकनी एवं कोमल है ॥१ - ५॥

पुलस्त्यजी ( फिर ) बोले - भगवान् शङ्करके द्वारा इस प्रकार कहे जानेपर महर्षिगण अरुन्धतीके साथ शैलशिखरपर बैठ गये । ऋषियोंके बैठ जानेपर देवताओंमें अग्रणी तथा संयत - चित्तवाले नन्दी अर्घ्य आदिसे उनकी पूजा कर खड़े हो गये । उसके बाद सुरपालक शिवने विनयसे युक्त सप्तर्षियोंसे अपने यशकी वृद्धि तथा देवताओंके कल्याणके लिये धर्मसे युक्त वचन कहा ॥६ - ८॥

शङ्करजीने कहा - कश्यप ! अत्रि ! वसिष्ठ ! विश्वामित्र ! गौतम ! भरद्वाज ! अङ्गिरा ! आप सभी लोग सुनें - प्राचीन कालमें दक्षकी आत्मजा सती मेरी प्रिया थीं । उसने दक्षके ऊपर कुपित होकर योगदृष्टिसे अपने प्राणोंका त्याग कर दिया । वही आज फिर उमा नामसे गिरिराज हिमालयकी कन्या हुई हैं । द्विजसत्तमो ! आप लोग मेरे लिये पर्वतराजसे उसकी याचना करें ॥९ - ११॥

पुलस्त्यजी बोले - शङ्करजीके ऐसा कहनेपर सप्तर्षियोंने ' बहुत अच्छा ' - यह वचन कहा एवं ' ॐ नमः शङ्कराय ' कहकर वे हिमालयके यहाँ गये । उसके पश्चात् शङ्करने अरुन्धीसे कहा - ' सुन्दरि ! तुम भी जाओ । स्त्रियोंके धर्मकी गति स्त्रियाँ ही जानती है । ' शङ्करसे इस प्रकार कहनेपर लोकाचारको दुर्ल्लङ्घय प्रतिपादित करनेवाली अरुन्धती अपने पतिके साथ ' नमस्ते रुद्र ' ऐसा कहकर हिमालपर गयीं । उन लोगोंने ओषधियोंसे भरे हिमालयकी चोटीपर जाकर सुरपुरीके समान हिमालयकी पुरीको देखा ॥१२ - १५॥

उसके बाद वे पर्वतोंकी पत्नियों, शान्तचित्तवाले सुनाभादि पर्वतों, गन्धर्वों, किंनरों, यक्षों एवं अन्य दूसरोंसे भी पूजित ( सम्मानित ) होकर स्वर्णकी भाँति प्रकाशमान हिमालयके सुन्दर भवनमें प्रविष्ट हुए । फिर तपस्या करनेसे निष्पाप हुए वे सभी महात्मा महाद्वारपर जाकर द्वारपालके निकट रुक गये । उसके बाद द्वारपर स्थित गन्धमादन पर्वत पद्मरागके बने विशाल दण्डको हाथमें धारण किये हुए शीघ्र उनके पास गया ॥१६ - १९॥

उसके बाद मुनियोंने उससे कहा - द्वारपाल ! तुम श्रीमान् शैलपतिसे जाकर यह शुभ समाचार निवेदित करो कि हम सब विशेष कार्यके लिये यहाँ आये हैं । ऋषियोंके ऐसा कहनेपर शैलेन्द्र गन्धमादन पर्वतोंसे घिरे हुए शैलराजके पास गया और पृथ्वीपर घुटनोंके बल बैठ गया । फिर दण्डको काँखमें दबाकर एवं दोनों हाथ मुखके निकट ले जाकर उसने यह वचन कहा ॥२० - २२॥

गन्धमादनने कहा - शैलराज ! ये ऋषिगण किसी कार्यकी याचनाके हेतु आपसे भेंट करनेकी इच्छावाले होकर आये हैं और द्वारपर स्थित हैं ॥२३॥

पुलस्त्यजी बोले - द्वारपालकी बात सुननेके बाद पर्वतराज उठकर स्वयं उत्तम अर्ध्य करनेके बाद उन्हें सभा - स्थानमें लिवा लाये । फिरे उनके यथायोग्य आसन ग्रहण कर लेनेपर वक्ताके अभिप्रायको स्पष्टतः समझनेवाले शैलराजने उन ऋषियोंसे यह वाक्य कहा ॥२४ - २५॥

हिमवानने कहा - [ ऋषियो ! मेरे लिये ] आप लोगोंका यहाँ पधारना ऐसा ही है जैसे बिना बादलकी वृष्टी तथा बिना फूलके फलका उदगम; यह अतर्क्य एवं अचिन्त्य है । परमपूज्यो ! आजसे मैं धन्य हो गया । आज ही मैं ( अन्वर्थक ) शैलराज हुआ । आज ही मेरा शरीर शुद्ध हुआ; क्योंकि आप लोगोंने आज मेरे आँगनको पवित्र किया है । द्विजोत्तमो ! जिस प्रकार सारस्वत तीर्थका जल पवित्र कर देता है, उसी प्रकार आप लोगोंने चरण रखकर तथा अपनी पवित्र दृष्टिसे देखकर हमें पवित्र कर दिया है । ब्राह्मणो ! मैं आप लोगोंका दास हूँ । इस समय मैं पुण्यवान् हुआ हूँ । जिस उद्देश्यसे आप लोग अर्थी - याचना करनेवाले - हुए हैं, उसके लिये मुझे आज्ञा दें । महर्षियो ! मैं स्त्री, पुत्र, नाती और भृत्योंके साथ आपका आज्ञाकारी सेवक हूँ; अतः आदेश दीजिये ॥२६ - ३०॥

पुलस्त्यजी बोले - गिरिराजकी बात सुनकर प्रशस्तव्रती ऋषियोंने वृद्ध अङ्गिरा मुनिसे कहा - ( मुने ! ) आप हिमवानको कार्यका निवेदन करें । इस प्रकार कश्यप आदि ऋषियोंसे प्रेरणा प्राप्तकर अङ्गिरा मुनि उन गिरिराज हिमालयसे ( उनके अनुरोधके उत्तरमें ) यह श्रेष्ठ वचन बोले ॥३१ - ३२॥

अङ्गिराने कहा - पर्वतराज ! हम लोग अरुन्धतीके साथ आपके घर जिस कार्यके लिये आये हैं, उसे ( आप ) सुनें । गिरीश्वर ! जिन महात्मा सर्वात्मा, दक्षयज्ञके विनाशक, शूलधारी, शर्व, त्रिनेत्र, वृषवाहन, जीमूतकेतु, शत्रुघ्न, यज्ञभोक्ता, स्वयंप्रभु शङ्कर ईश्वरको कुछ लोग शिव, स्थाणु, भव, हर, भीम, उग्र, महेशान, महादेव एवं पशुपति कहते हैं, उन्होंने ही हम लोगोंको आपके पास भेजा है ॥३३ - ३६॥

( बात यह है कि - ) आपकी यह ' काली ' कन्या समस्त लोकोंमें सुन्दर है । इसके लिये देवेश ( भगवान् शङ्कर ) प्रार्थना कर रहे हैं । आपको उन्हें उसका दान दे देना चाहिये । गिरिश्रेष्ठ ! वही पिता धन्य है जिसकी पुत्री रुपवान्, निष्कलङ्क, कुलीन और श्रीमान् शुभ पतिको प्राप्त करती है । शैल ! ये देवी चार प्रकारके जितने जड - जङ्गम प्राणी हैं उनकी माता ( हो जाती ) हैं; क्योंकि शङ्करजी सबके पिता कहे गये हैं । ( हम सबका निवेदन है कि ) समस्त देवता शङ्करको प्रणामकर तुम्हारी पुत्रीको भी प्रणाम करें; इसलिये इसे समर्पित कर दें । ( और इस प्रकार आप ) अपने शत्रुओंके सिरपर अपना भस्मयुक्त चरण रखें ( शत्रुओंको विजित करें ) । हम लोग याचना करनेवाले हैं, शङ्कर वर हैं, आप दाता जो कल्याणकारी जँचे, उसे करें ॥३७ - ४१॥

पुलस्त्यजी बोले - अङ्गिराकी वह वाणी सुनकर कालीने ( लज्जासे ) अपना मुख नीचे झुका लिया । सहसा वे प्रसन्न होकर पुनः उदास हो गयीं । उसके बाद गिरिराजने गन्धमादन पर्वतसे कहा - ( गन्धमादन ! ) जाओ ! सभी पर्वतोंको आनेके लिये आमन्त्रित कर आओ । उसके पश्चात् वेगशाली पर्वत ( गन्धमादन ) - ने चारों ओर शीघ्रतापूर्वक घर - घर जाकर मेरु आदि सभी श्रेष्ठ पर्वतोंको आनेके लिये निमन्त्रण दे दिया । वे सभी पर्वत भी कार्यकी महत्ता समझकर शीघ्रतासे आ गये और सुवर्णमय आसनोंपर उत्सुकतापूर्वक बैठ गये ॥४२ - ४५॥

उदय, हेमकूट, रम्यक, मन्दर, उद्दालक, वारुण, वराह, गरुडासन, शुक्तिमान्, वेगसानु, दृढश्रृङ्ग, श्रृङ्गवान्, चित्रकूट, त्रिकूट, मन्दरकाचल, विन्ध्य, मल, पारियात्र, दुर्दर, कैलास, महेन्द्र, निषध, अञ्जन - ये सभी प्रमुख पर्वत तथा छोटे - छोटे अन्य पर्वत उन ऋषियोंको प्रणाम कर सभामें बैठ गये ॥४६ - ४९॥

उसके पश्चात् उन गिरीशने अपनी भार्या मेनाको बुलाया । ( वे ) कल्याणी भामिनी अपने पुत्रके साथ आयीं और तब उन साध्वीने ऋषियोंके चरणोंमें प्रणाम किया एवं समस्त ज्ञातियोंसे अनुज्ञा लेकर वे पुत्रके साथ बैठ गयीं । नारदजी ! उसके बाद सभी पर्वतोंके भी बैठ जानेपर उनकी अनुमति लेकर उक्तिके अभिप्रायके विज्ञाता महाशैलने मधुर वचन कहा ॥५० - ५२॥

हिमवानने निवेदन किया - ( उपस्थित सज्जनो ! ) ये पुण्यात्मा सप्तर्षि भगवान् शङ्करके लिये मेरी कन्याकी याचना कर रहे हैं । शङ्करके लिये कन्या देनेका प्रस्ताव हैं - यही आप लोगोंसे निवेदन करना है । आप लोग ही मेरे ज्ञाति - बन्धु हैं; अतः अपनी बुद्धीके अनुसार परामर्श दें । आप - ( के मत ) - का उल्लङ्घन कर मैं ( कन्याका ) दान नहीं करुँगा; अतः आप लोग उचित परामर्श दें ॥५३ - ५४॥

पुलस्त्यजी बोले - हिमवानके प्रस्तावकी बात सुनकर मेरु आदि सभी श्रेष्ठ गिरिवरोंनें अपने - अपने आसनपर आसीन होते हुए ही कहा - ( गिरिराज ! ) याचना करनेवाले सप्तर्षि हैं और त्रिपुरासुरका वध करनेवाले शङ्कर वर हैं । शैलराज ! इस कालीको आप उनके लिये प्रदान करें । जामाता हम लोगोंके मनपसंद हैं । उसके बाद मेनाने अपने पतिसे कहा - शैलेन्द्र ! मेरी बात सुनिये । पितरोंकी आराधना करनेके बाद उन देवोंने ( इस कन्याको ) मुझे इसीलिये दिया था कि भूतपति ( शिव ) - द्वारा इससे जो पुत्र उत्पन्न होगा, वह दैत्येन्द्र महिष एवं तारकका वध करेगा ॥५५ - ५८॥

मेना तथा पर्वतोंके इस प्रकार कहनेपर हिमवानने अपनी कन्यासे कहा - पुत्रि ! अब मैंने तुझे शङ्करका दे दिया । फिर उन्होंने ऋषियोंसे कहा - हे तपोधनो ! यह मेरी पुत्री तथा शङ्करकी वधू काली भक्तिसहित विनम्रभावसे आप लोगोंको प्रणाम करती है । उसके बाद अरुन्धतीने लज्जित हो रही कालीको ( अपनी ) गोदमें बैठाकर शङ्करके प्रेमभरे शुभ नामोंके उच्चारणसे उसे भलीभाँति आश्वस्त किया । उसके बाद सप्तर्षियोंने कहा - शैलराज ! ( अब आप ) जामित्र ( सप्तम भावकी शुद्धता ) गुणसे संयुक्त मङ्गलमय पवित्र तिथिको सुनिये । ( आजके ) तीसरे दिन चन्द्रमा उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रसे योग करेगा । उसे मैत्र नामक मुहूर्त्त कहते हैं ॥५९ - ६३॥

उस तिथिमें शङ्कर मन्त्रपूर्वक आपकी पुत्रीका पाणिग्रहण करेंगे । आप अनुमति दें; ( अब ) हम लोग जा रहे हैं । उसके बाद शैलराजने उन ऋषिश्रेष्ठोंको सुन्दर फल - मूलोंसे विधिपूर्वक पूजितकर विदा किया । वे ऋषि भी आकाशमार्गसे अत्यन्त वेगसे मन्दरगिरिपर आ गये और शङ्करको प्रणाम किया । उन महर्षिजनोंने पुनः महेशको प्रणाम कर कहा - शङ्कर ! आप वर हैं एवं गिरिजा वधू हैं । ब्रह्माके साथ तीनों लोक आप घनवाहन ( शिव ) - का ( इस रुपमें ) दर्शन करेंगे । ( - ऐसी सबकी लालसा है ) ॥६४ - ६७॥

उसके बाद शङ्करने प्रसन्न होकर क्रमानुसार अरुन्धतीके साथ सप्तर्षियोंका विधिपूर्वक पूजन ( सत्कार ) किया । ( शिवद्वारा ) भलीभाँति पूजित होकर वे सभी ऋषि देवोंसे मन्त्रणा करनेके लिये चले गये । फिर ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र एवं सूर्य आदि ( देवता ) भी शिवका दर्शन करने आ गये । ( पुलस्त्यजी कहते हैं - ) महर्षे ! वहाँ जाकर ( शङ्करको ) प्रणाम करनेके बाद वे लोग शङ्करके गृहमें प्रविष्ट हुए । उन्होंने नन्दी आदिका स्मरण किया । ( फलतः ) वे सभी आकर शङ्करको प्रणाम करनेके बाद बैठ गये । देवों एवं गणोंसे घिरे खुली जटावा ले वे शङ्करजी वनमें सर्ज्ज और कदम्बके मध्य प्ररोहयुक्त ( बरोहवाले ) वटवृक्षके समान सुशोभित हो रहे थे ॥६८ - ७१॥

॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें बावनवाँ अध्याय हुआ ॥५२॥

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Last Updated : January 24, 2012

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