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अध्याय ७३

श्रीवामनपुराण - अध्याय ७३

श्रीवामनपुराणकी कथायें नारदजीने व्यासको, व्यासने अपने शिष्य लोमहर्षण सूतको और सूतजीने नैमिषारण्यमें शौनक आदि मुनियोंको सुनायी थी ।


पुलस्त्यजी बोले - कलिप्रिय ( नारदजी ) ! बलि दैत्यको इसीलिये राजा बनाया गया था । प्रह्लाद उसके परामर्श देनेवाले मन्त्री तथा शुक्राचार्य पुरोहित थे । विरोचनके पुत्र बलि दैत्यको राज्यपर अभिषिक्त हुआ जानकर मयके साथ सभी दैत्य उसे देखनेकी इच्छासे आये । उन ( वहाँ ) आये हुए अपने कुलपुरुषोंको देखकर ( बलिने ) यथाक्रम उनकी पूजा की एवं उनसे पूछा कि मेरे लिये क्या कल्याणकारी है ? उन सभीने उससे कहा - देवमर्दन ! तुम्हारे लिये जो कल्याणकारी और हमारे लिये हितकर कर्म है, उसे सुनो ॥१ - ४॥

तुम्हारे पितामह, हिरण्यकशिपु बलवान, वीर और दानवकुलके पालन करनेवाले थे । तीनों लोकोंके वे इन्द्र हो गये थे । किंतु सिंहशरीर धारणकर देवोंमें श्रेष्ठ श्रीविष्णुने उनके पास आकर श्रेष्ठ दानवोंके सामने ही उन्हें अपने नखोंसे विदीर्ण कर डाला । महाबाहो ! त्रिशूल धारण करनेवाले शंकरने भी उन ( देवों ) - के लिये महान् बलशाली अन्धकका राज्य छीन लिया था । और इन्द्रने तुम्हारे चाचा ( पिताके भाई ) जम्भको मार दिया एवं विष्णुने तुम्हारे सामने कुजम्भको पशुकी तरह मार डाला ॥५ - ८॥

मैं तुमसे बतला दे रहा हूँ कि महेन्द्रने शम्भु, पाक और तुम्हारे भाई सुदर्शन एवं तुम्हारे पिता विरोचनको मार डाला है । [ पुलस्त्यजी कहते हैं कि - ] ब्रह्मन् ! इन्द्रद्वारा किये गये अपने कुलका विनाश सुनकर दानव बलिने समस्त महान् असुरोंको युद्ध करनेके लिये तैयारी करनेकी प्रेरणा दी । फिर तो कुछ असुर रथोंपर, कुछ हाथियोंपर, कुछ घोड़ोंपर और कुछ पैदल ही देवताओंसे युद्ध करनेके लिये चल पड़े । सेनाके आगे - आगे भयङ्कर महाबलशाली सेनापति मय चल रहा था । सेनाके बीचमें बलि, पीछे कालनेमि, बायीं ओर प्रसिद्ध पराक्रमवाला शाल्व तथा दाहिनी बगलमें भयङ्कर तारक नामका असुर कुशलतासे चल रहा था ॥९ - १३॥

कलिप्रिय ( नारदजी ) ! हजारों, दस - दस लाखों, ( ही नहीं, ) दस - दस करोड़ोंकी संख्यामें - असंख्य दैत्य देवताओंसे युद्ध करनेके लिये निकल पड़े । असुरोंकी ( इस प्रकारकी ) युद्ध करनेकी तैयारीको सुनकर देवताओंके स्वामी इन्द्रने देवताओंसे कहा - देवताओ ! हम सब देवगण भी लड़ाई करनेके लिये दल - बलके साथ आये हुए दैत्योंसे लड़नेके लिये चलें । इस प्रकारकी घोषणा कर बलवान् भगवान् देवपति इन्द्र अपने सारथि मातालिद्वारा नियन्त्रित घोड़ोंवाले रथपर चढ़ गये । इन्द्रके रथपर चढ़ जानेपर देवता लोग भी अपने - अपने वाहनोंपर सवार होकर युद्धकी इच्छासे बाहर निकल चले ॥१४ - १७॥

आदित्य, वसु, रुद्र, साध्य, विश्वेदेव, अश्विनीकुमार, विद्याधर, गुह्यक, यक्ष, राक्षस, पन्नग, राजर्षि, सिद्ध तथा अनेक प्रकारके भूत एकत्र हो गये । कुछ हाथियोंपर, कुछ रथोंपर और कुछ घोड़ोंपर आरुढ़ हुए । नारदजी ! कुछ देवगण पक्षियोंद्वारा वाहित होनेवाले उज्ज्वल विमानोंपर चढ़कर वहाँ पहुँच गये, जहाँ दैत्योंकी सेना ( पहलेसे ) डटी हुई थी । इसी समय बुद्धिमान् गरुड़जी आ गये । देवोंमें श्रेष्ठ विष्णु उनपर आरुढ़ होकर आ गये ॥१८ - २१॥

फिर तो हजार आँखोंवाली इन्द्रने सभी देवताओंके साथ सिर झुकाकर उन आये हुए तीनों लोकोंके स्वामी नित्य ( विष्णुभगवान् ) - की वन्दना की । उसके बाद कार्तिकेय देवसेनाके अग्रभागकी, गदाधारी श्रीविष्णु सेनाके पीछे भागकी और सहस्त्रलोचन इन्द्र बीचभागकी रक्षा करते हुए चलने लगे । नारद मुने ! जयन्त बार्यी ओरकी सेनाको समेटकर चले एवं बलवान् वरुण दाहिनी बगलकी सेनाको समेटकर चले एवं बलवान् वरुण दाहिनी बगलकी सेनाको समेटकर चले । उसके बाद नाना प्रकारके अस्त्र - शस्त्रोंको धारण करनेवालोंसे गठित और स्कन्द, विष्णु, वरुण एवं सूर्यसे संरक्षित देवोंकी यशस्विनी सेना शत्रुसैन्यके निकट पर्वतपर पहुँच गयी ॥२२ - २५॥

उदयाचलके वृक्ष एवं पक्षियोंसे रहित रमणीय शुभ एवं समतल पथरीले मैदानमें देवों और दैत्योंका भारी बलि, पीछे कालनेमि, बायीं ओर प्रसिद्ध पराक्रमवाला शाल्व तथा दाहिनी बगलमें भयङ्कर तारक नामका असुर कुशलतासे चल रहा था ॥९ - १३॥

कलिप्रिय ( नारदजी ) ! हजारों, दस - दस लाखों, ( ही नहीं, ) दस - दस करोड़ोंकी संख्यामें - असंख्य दैत्य देवताओंसे युद्ध करनेके लिये निकल पड़े । असुरोंकी ( इस प्रकारकी ) युद्ध करनेकी तैयारीको सुनकर देवताओंके स्वामी इन्द्रने देवताओंसे कहा - देवताओ ! हम सब देवगण भी लड़ाई करनेके लिये दल - बलके साथ आये हुए दैत्योंसे लड़नेके लिये चलें । इस प्रकारकी घोषणा कर बलवान् भगवान् देवपति इन्द्र अपने सारथि मातलिद्वारा नियन्त्रित घोड़ोंवाले रथपर चढ़ गये । इन्द्रके रथपर चढ़ जानेपर देवता लोग भी अपने - अपने वाहनोंपर सवार होकर युद्धकी इच्छासे बाहर निकल चले ॥१४ - १७॥

आदित्य, वसु, रुद्र, साध्य, विश्वेदेव, अश्विनीकुमार, विद्याधर, गुह्यक, यक्ष, राक्षस, पन्नग, राजर्षि, सिद्ध तथा अनेक प्रकारके भूत एकत्र हो गये । कुछ हाथियोंपर, कुछ रथोंपर और कुछ घोड़ोंपर आरुढ़ हुए । नारदजी ! कुछ देवगण पक्षियोंद्वारा वाहित होनेवाले उज्ज्वल विमानोंपर चढ़कर वहाँ पहुँच गये, जहाँ दैत्योंकी सेना ( पहलेसे ) डटी हुई थी । इसी समय बुद्धिमान् गरुड़जी आ गये । देवोंमें श्रेष्ठ विष्णु उनपर आरुढ़ होकर आ गये ॥१८ - २१॥

फिर तो हजार आँखोंवाले इन्द्रने सभी देवताओंके साथ सिर झुकाकर उन आये हुए तीनों लोकोंके स्वामी नित्य ( विष्णुभगवान् ) - की वन्दना की । उसके बाद कार्तिकेय देवसेनाके अग्रभागकी, गदाधारी श्रीविष्णु सेनाके पीछे भागकी और सहस्त्रलोचन इन्द्र बीचभागकी रक्षा करते हुए चलने लगे । नारद मुने ! जयन्त बायीं ओरकी सेनाको समेटकर चले । उसके बाद नाना प्रकारके अस्त्र - शस्त्रोंको धारण करनेवालोंसे गठित और स्कन्द, विष्णु, वरुण एवं सूर्यसे संरक्षित देवोंकी यशस्विनी सेना शत्रुसैन्यके निकट पर्वतपर पहुँच गयी ॥२२ - २५॥

उदयाचलके वृक्ष एवं पक्षियोंसे रहित रमणीय शुभ एवं समतल पथरीले मैदानमें देवों और दैत्योंका भारी युद्ध हुआ । मुनि नारदजी ! पहले समयमें जैसा युद्ध बन्दर एवं हाथियोंके बीच हुआ था, वैसा ही घमासान संग्राम उन दोनों सेनाओंमें हुआ । सुरतापस ! रथसे उड़ी हुई युद्धकी पिङ्गल वर्णकी धूल युद्ध - भूमिके ऊपर आकाशमें स्थित सन्ध्याकालके लाल बादलकी भाँति लग रही थी । उस समय चल रहे घनघोर युद्धमें कुछ भी नहीं जाना जा रहा था । चारों ओर लगातार ‘ ( काटकर ) टुकड़े - टुकड़े कर दो ’, ‘ विदीर्ण कर दो ’ के शब्द ही सुनायी पड़ रहे थे ॥२६ - २९॥

उसके बाद देवोंके साथ दैत्योंकी भयङ्कर मारकाटसे उत्पन्न रक्तप्रवाहकी धारा बह चली, जो धूलको शान्त करनेवाली हो गयी - रक्त और धूल मिलकर कीच बन गयी । धूलके शान्त हो जानेपर देवता आदि बुद्धिमान् कार्तिकेयके साथ बड़े दानवदलपर टूट पड़े । कुमार कार्तिकेयके बाहुबलसे रक्षित देवताओंने दैत्योंका हनन किया और मयके द्वारा रक्षित दैत्योंने प्रहार करते हुए देवताओंको मारा । किंतु नारदजी ! उसके बाद अमृतरसका आस्वाद न लेने अमृत न पीनेके कारण कार्तिकेयके सहित श्रेष्ठ देवता युद्धमें दैत्योंसे पराजित हो गये ॥३० - ३३॥

देवताओंको पराजित हुआ देखकर शत्रुओंका दमन करनेवाले गरुडध्वज विष्णु शार्ङ्गधनुषको चढ़ाकर चारों ओर बाणोंकी वर्षा करने लगे । श्रीविष्णुद्वारा लोहेके मुँहवाले बाणोंसे मारे जा रहे दैत्य कालनेमि नामके महान् असुरकी शरणमें गये । ब्रह्मन् ! उन्हें ( दैत्योंको ) अभय दान देकर और माधव ( विष्णु ) - को अजेय जानकर भी ( वह ) उपेक्षित व्याधिके सदृश ( घमण्डमें ) बढ़ने लगा । बलवान् वह कालनेमि जिस देवता, यक्ष या किन्नरको हाथसे छू ( पकड ) लेता था उसे लेकर अपने फैले मुँहमें झोंक देता था ॥३४ - ३७॥

वह दैत्येन्द्र कालनेमि बिना अस्त्रका था; फिर भी दानवोंके साथ मिलकर क्रोध करके हाथ, पैर और नखके प्रहारसे ही इन्द्र, सूर्य और चन्द्रमाके साथ देवसेनाको तेजीसे मारने लगा । वह आगके समान चक्रोंसे आकाश एवं पृथ्वीपर नीचे - ऊपर चारों ओर वार करने लगा । उस समय उसका रुप प्रलय - कालमें समस्त जगतको दग्ध करनेवाली आग ( प्रलयाग्नि ) - के समान था ।

उस बलिष्ठ शत्रुको बढ़ते देखकर देवता, गन्धर्व, सिद्ध, साध्य, अश्विनीकुमार आदि भयसे इधर - उधर ( देखते हुए घबड़ाकर ) चारों ओर भागने लगे । उछलते - कूदते हुए दैत्य अत्यन्त घमण्डके साथ देवोंसे पूजित सुन्दर मुकुटवाले विष्णुभगवानके सामने जाकर अनेक प्रकारके शस्त्रास्त्रोंके आघातसे उनके ( अजेयत्ववाले ) यशको समाप्त करने लगे - विष्णुकी पराजय मानने लगे । इस प्रकार प्रहार कर रहे मय, बलि एवं कालनेमि आदि दैत्योंको देखकर विष्णुके नेत्र क्रोधसे लाल हो गये । फिर तो उन्होंने अपनी दृष्टिसे ही रथ, हाथी और घोड़ोंको शक्ति और पराक्रमसे रहित कर दिया तथा उसी तरह सुन्दर पंखोंवाले लोहेके बने अर्द्धचन्द्रके समान ‘ नाराच ’ बाणोंसे पर्वतको ढक दिया, जैसे मेघ पर्वतको ढक देते हैं । विष्णुके हाथोंसे छोड़े गये कालदण्डके समान अर्धचन्द्राकार उन लोहेके बने ‘ नाराच ’ बाणोंसे ढके हुए बलि एवं मय आदि दैत्योंने डरकर तुरंत पहले दानवेन्द्र शतमुख कालनेमिको प्रेषित किया । वह अति बलवान् देव सेनापति लोकनाथ केशवके सामने उपस्थित हुआ ॥३८ - ४१॥

गदा उठाये हुए सौ सिरवाले पर्वतश्रृंगके समान कालनेमिको देखकर विष्णुने ( अपने ) शार्ङ्गधनुषको छोड़कर हाथमें जल्दीसे चक्रको ले लिया । इनको देखकर बहुत देरतक जोरसे हँसते हुए मेघके समान बोलनेवाले उस कालनेमि दानवने दैत्यरुपी वृक्षोंके काटनेवाले सुख - दुःखकी परवाह न करनेवाले मनस्वी हरिसे कहा - यही दानव - सेनाको डरानेवाला शत्रु, अत्यन्त क्रोधी, मधुको मारनेवाला, हिरण्याक्षका वध करनेवाला और फूलोंसे की गयी पूजासे प्रसन्न होनेवाला है । यह खल मेरी आँखोंके सामने आकर अब कहाँ जा सकता है । यह कमलनयन यदि इस सम्कय मेरे साथ युद्ध करे तो अपने घर नहीं जा सकेगा और तब देवता लोग मेरी मुट्ठीमें पिसनेसे शिथिल अङ्गोंवाले इस ( विष्णु ) - को भयसे कातर नेत्रोंसे धूलिधूसरित हुआ देखेंगे । मधुसूदन भगवान् विष्णुसे ऐसा कहकर क्रोधसे अधरोष्ठको फड़काते हुए कालनेमिने, गरुड़पर अपनी गदा इस प्रकार फेंकी जैसे इन्द्र पर्वतपर वज्र फेंकते हैं । भगवान् विष्णुने दानवके हाथसे छूटी हुई उस भयदायिनी गदाको आते देखकर चक्रसे उसे ऐसे नष्ट कर दिया जैसे पूर्वकृत कर्म भाग्यहीन मनुष्यके मनोरथको नष्ट कर देता है ॥४२ - ४६॥

गदाको काटकर विष्णुभगवान् दानवके निकट चले गये और उन्होंने शीघ्रतासे उसकी मोटी - मोटी बाहुओंको काट डाला । भुजाओंके कट जानेपर कालनेमि दूसरे दग्ध पर्वतके समान दिखलायी पड़ने लगा । उसके बाद माधव ( लक्ष्मीपति ) - ने क्रोधपूर्वक चक्रसे उसके सिरको काटकर पके हुए ताड़के फलके समान धरतीपर गिरा दिया । वनमें ठूँटे तरकुलके समान बाहुओं एवं सिरसे हीन कबन्ध कचल पर्वतराज मेरुके समान खड़ा रहा । मुने ! जैसे महेन्द्रने वज्रसे बाँह और सिररहित बलको पृथिवीपर गिराया था, उसी प्रकार पक्षिश्रेष्ठ गरुड़ने अपनी छातीसे धक्का देकर उस ( कबन्ध ) - को पृथ्वीपर गिरा दिया । उस दानव - सेनापति ( कालनेमि ) - के मारे जानेपर बाणासुरके सिवा देवोंसे अत्यन्त पीड़ित सभी दैत्य शस्त्र, पट्टा, ढाल और वस्त्रको छोड़कर भाग गये ॥४७ - ५१॥

॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें तिहत्तरवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥७३॥

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Last Updated : January 24, 2012

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