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अध्याय ९४

श्रीवामनपुराण - अध्याय ९४

श्रीवामनपुराणकी कथायें नारदजीने व्यासको, व्यासने अपने शिष्य लोमहर्षण सूतको और सूतजीने नैमिषारण्यमें शौनक आदि मुनियोंको सुनायी थी ।


बलिने कहा - ( तात ! ) आपने सब कुछ कह दिया । अब आप जनार्दनकी पूजा करनेसे प्राप्त होनेवाली गतिका कथन करें । किस प्रकारकी आराधना करनेसे वासुदेवको प्रसन्नता होती है ? ( उन ) जगदगुरुको प्रसन्न करनेके लिये किस प्रकारके दान करने चाहिये ( कौन - सी वस्तुएँ प्रशंसित हैं ? ) किस तिथिमें उपवास आदि करनेसे महान् उन्नति होती हैं ? विष्णुकी प्रीति उत्पन करनेवाले कौन - से पवित्र कार्य कहे गये हैं ? दैत्येन्द्र ! आलस्यसे रहित होकर प्रीतिपूर्वक करने योग्य अन्य कार्योंका भी वर्णन आप भलीभाँति मुझसे कीजिये ॥१ - ४॥

प्रह्लादने कहा - बले ! श्रद्धासे भरे और भक्तिसे युक्त होकर जनार्दनके उद्देश्यसे जो दान दिये जाते हैं, उन्हें मुनियोंने कभी भी विनाश न होनेवाला ( दान ) कहा है । वे ही तिथियाँ प्रशंसनीय होती हैं, जिनमें मनुष्य विष्णुकी पूजा करनेके बाद उनमें चित्त एवं मन लगाकर उपवास करता है । ब्राह्मणोंकी पूजा करनेसे जनार्दनकी ( ही ) पूजा होती है । उनसे वैर करनेवाले मूढ़ व्यक्ति निश्चय ही नरकमें जाते हैं । विष्णुमें अनुराग रखनेवाले भक्तिमान् मनुष्यको श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणोंकी पूजा करनी चाहिये । पूर्वकालमें विष्णुने यह कहा था कि ब्राह्मण मेरे शरीर हैं । ज्ञानी ( हो ) अथवा अज्ञानी, ( पर ) ब्राह्मणका तिरस्कार ( कभी ) नहीं करना चाहिये । वह विष्णुका शरीर होता है । अतः उसकी पूजा करनी चाहिये । ( जहाँतक विष्णुपूजाके लिये पुष्पका प्रश्न हैं, ) महासुर ! वर्ण, रस एवं गन्धसे युक्त पुष्प ही उत्तम होते हैं । अब मैं माधवकी प्रसन्नताके लिये कहे गये विशेष पुष्पों, तिथियों एवं दानोंका ( स्पष्टतासे ) वर्णन करता हूँ ॥५ - ११॥

अच्युत ( श्रीविष्णु ) - की अर्चनाके लिये - मालती, शतावरी, चमेली, कुन्द, गुलाब, बहुपुट, बाण, चम्पा, अशोक, कनेर, जूही, पारिभद्र, पाटल, मौलसिरी, गिरिशालिनी, तिलक, अड़हुल, पीतक एवं नागर नामक पुष्प उत्तम हैं । इनके सिवा केतकीको छोड़कर अन्य सुगन्धित पुष्प भी श्रेष्ठ हैं । केशवके पूजनमें बिल्वपत्र, शमीपत्र, भृड्ग एवं मृगाड्कके पत्र, तमाल तथा आमलकीके पत्र प्रशंसनीय हैं । अच्युतके अर्चनमें जिन वृक्षोंके पुष्पोंका प्रयोग होता है उनके पल्लव एवं पत्र भी विष्णुके पूजनके लिये प्रशंसनीय होते हैं । वीरुधोंके किसलय एवं कुश तथा जलमें उत्पन्न होनेवाले अनेक प्रकारके कमल एवं इन्दीवरादिसे विष्णुका पूजब्न करना चाहिये । बले ! वनस्पतियोंके चिकने, पवित्र एवं जलसे धये हुए कोपलोंसे तथा दूबके अड्कुरसे ( विष्णुका ) पूजन करना चाहिये । प्रयत्नपूर्वक चन्दन, कुड्कुम, उशीर, खश, पद्मक एवं कालीयक आदिसे विष्णुका अनुलेपन करना चाहिये । श्रीविष्णुको महिष नामक कण, दारु, सिह्वक, अगरु, सिता, शड्ख एवं जातीफलका धूप प्रिय होता है ॥१२ - २०॥

घृतसे संस्कृत जौ, गेहूँ, शालिधान्य, तिल, मूँग, उड़द और अन्न हरिको प्रिय हैं । हे निष्पाप ! मधुसूदनको गौ, पवित्र भूमि, वस्त्र, अन्न और सोनेके दान प्रिय होते हैं । दानव ! माघमासमें माधवकी प्रसन्नताके लिये तिल, तिलधेनु एवं इन्धनादिका दान करना चाहिये । महान् पुरुषोंको गोविन्दकी प्रीतिके लिये फाल्गुन मासमे चावल, मूँग, वस्त्र तथा कृष्णमृगचर्म दान करना चाहिये । चैत्र मासमें विष्णुकी प्रीतिके लिये ब्राह्मणोंकी भाँतिभाँतिके वस्त्र, शय्या एवं आसनोंका दान करना चाहिये । मधुसूदनकी प्रीप्तिके लिये वैशाख मासमें श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको सुगन्धित गन्ध एवं माल्योंका दान करना चाहिये । त्रिविक्रमकी प्रीतिके लिये सज्जन व्यक्तिको जलका घड़ा, जलधेनु, ताड़का पंखा तथा सुन्दर चन्दनका दान करना चाहिये । भगवान् वामनकी प्रीतिके लिये आषाढ़ मासमें भक्तिपूर्वक जूतेका जोड़ा, छत्र, लवण एवं आँवले आदिका दान करना चाहिये ॥२१ - २८॥

बुद्धिमान् मनुष्यको श्रीधरकी प्रसन्नताके लिये श्रावण मासमें घी और दूधसे भरे घड़े, घृत, धेनु एवं फलोंका दान करना चाहिये । भाद्रपद मासमें हषीकेशकी प्रसन्नताके लिये पायस, मधु, घी, नमक और गुड़से बनाये गये मीठे भातका दान करना चाहिये । मनुष्योंको पद्मनाभकी प्रसन्नताके लिये आश्विन मासमें तिल, घोड़ा, बैल, दही, ताँबा और लोहे आदिका दान करना चाहिये । मनुष्योंको दामोदरकी संतुष्टिके लिये कार्तिक मासमें चाँदी, सोना, दीप, मणि, मुक्ता और फल आदिका दान करना चाहिये । मनुष्योंको केशवकी प्रीतिके लिये मार्गशीर्ष ( अगहन ) मासमें खर, उष्ट्र, खच्चर, हाथी, सामान ढोनेवाला बकरा एवं भेड़का दान करना चाहिये । नारायणकी संतुष्टिके लिये पौष मासमें श्रद्धापूर्वक प्रासाद, नगर, गृह एवं ओढ़नेके वस्त्र आदिका दान करना चाहिये । पुरुषोत्तमकी संतुष्टिके लिये सभी समय दासी, दास, आभूषण एवं मधुर आदि षट् रसोंसे युक्त अन्नका दान करना चाहिये । चक्र धारण करनेवाले देवाधिदेवकी प्रसन्नताके लिये अपनी जो सबसे अधिक इच्छित वस्तु हो अथवा घरमें जो वस्तु पवित्र हो उसका दान करना चाहिये ॥२९ - ३६॥

केशवभगवानका मन्दिर - निर्माण करानेवाला मनुष्य सतत स्थायी पुण्यलोकोंको प्राप्त करता हैं । फूलफलवाले वाटिकाओंका दान करनेवाला इच्छानुसार प्रशंसनीय भोगोंका उपभोग करता है । विष्णुभगवानके मन्दिरका निर्माण करानेवाला पुरुष अपने पितामहसे आगेके आठ कुलपुरुषोंका उद्धार करता है । दैत्य ! पितरोंने यदुश्रेष्ठ योगी एवं तपस्वी ज्यामघके सामने इस गाथाका वर्णन किया था । क्या हमारे कुलमें पवित्र व्रत धारण करनेवाला इस प्रकारका कोई विष्णुभक्त उत्पन्न होगा जो हरिका मन्दिर बनवायेगा ? क्या हमारी सन्ततिमें कोई विष्णुमन्दिरमें श्रद्धापूर्वक चूने आदिसे सफाई करानेवाला और झाडू देनेवाला धार्मिक उत्पन्न होगा ? क्या हमारी सन्ततियोंमें ऐसा कोई होगा जो केशवके मन्दिरमें ध्वजाका दान करेगा और देवदेवेश्वरको दीप, पुष्प और सुगन्धित चन्दन आदि प्रदान करेगा ? महापातकी, पातकी अथवा उपपातकी व्यक्ति विष्णुमन्दिरको भाँति - भाँतिके रंगोंसे सजाकर अथवा दिव्य चित्र बनाकर पापसे मुक्त हो जाता है ॥३७ - ४३॥

असुर ! पितृगणके इस प्रकारके वचनको सुनकर उस नृपश्रेष्ठने पृथ्वीपर मन्दिरका निर्माण करवाया । वह स्वयं उसमें चूने आदिसे सफाई तथा धोना - पोंछना आदि करता था । वह केशवकी विभूतियों, नाना प्रकारकी धातुओंसे निर्मित वस्तुओं तथा पाँच वर्णके तिलकोंसे पूजा करने लगा । बले ! उसने वासुदेवके मन्दिरमें स्वयं विधिपूर्वक सुगन्धित तैल एवं घीसे भरे दीपकका दान किया । ( उसने विष्णुमन्दिरमें ) कुसुम्भ मजीठके रंगमें रँगे श्वेत एवं लाल वर्णके तथा नौ रंगोंवाले भाँति - भाँतिके ध्वजोंको आरोपित किया । ( उसने ) पुष्पों, फलों, लतापल्लवों तथा देवदारु आदि भाँति - भाँतिके वृक्षोंसे पूर्ण उद्यानोंका निर्माण कराया । पाकशालाके अध्यक्षके विधानको जाननेवाले एवं रत्नोंसे अलंकृत करनेवाले अत्यन्त कुशल पुरुषोंसे अधिष्ठित बड़े - बड़े मञ्चोंका निर्माण करवाया । उनमें प्रतिदिन यतियों, ब्रह्मचारियों, ज्ञानियों, श्रोत्रियों, दी नों, अन्धों एवं विकलाङ्गों - लँगडे - लूले आदि पुरुषोंका सत्कार होता था । हमलोगोंने सुना है कि ऐसा कार्य करनेसे श्रद्धावान् और जितेन्द्रिय राजा ज्यामघने विष्णुलोकको प्राप्त कर लिया ॥४४ - ५१॥

बले ! विष्णुलोककी प्राप्तिकी कामना करनेवाले पुरुष आज भी राजा ज्यामघद्वारा प्रदर्शित उसी मार्गका आश्रय लेते हैं । इसलिये राजेन्द्र ! तुम भी हरिका मन्दिर बनवाओ और प्रयत्नपूर्वक उन हरि, बहुश्रुत ब्राह्मणों एवं विशेष रुपसे सदाचारपरायण पवित्र पुराण जानने और प्रवचन करनेवालोंका पूजन करो । ऐश्वर्य रहनेपर वस्त्र, आभूषण, रत्न, गौ, पृथ्वी एवं स्वर्ण आदि ( के दान ) - द्वारा चक्रधर विष्णुको प्रसन्न करो । तुम्हारे इस प्रकारकी क्रिया करनेमें तत्पर रहनेपर मुरारि निश्चय ही तुम्हारा कल्याण करेंगे । बले ! अनन्त अच्युत विभु जगन्नाथका आश्रय ग्रहण करनेवाले व्यक्ति दुखी नहीं होते ॥५२ - ५५॥

पुलस्त्यजी बोले - बलिसे इस प्रकार सत्य तथा श्रेष्ठ वचन कहनेके बाद विष्णुभगवानके चरणोंमें अनुराग रखनेवाले सफलमनोरथ दितीश्वर प्रह्लाद बलिद्वारा किये गये सत्काको ग्रहण कर मोक्षमार्गकी ओर प्रस्थित हो गये । पितामह प्रह्लादके प्रसन्न होकर चले जानेपर बलिका महल चन्द्रमाकी भाँति प्रकाशित होने लगा । महामहिम उस ( बलि ) - ने विश्वकर्मासे केशवका मन्दिर निर्मित करवाया । बलि स्वयं अपनी पत्नीके साथ उस देवालयमें मार्जन, लेपन आदि क्रियाएँ करने लगा । मधुसूदनके लिये महात्मा बलिने जौ एवं शक्कर आदिका उत्तम नैवेद्य निवेदित किया । विशालनयना विन्ध्यावली स्वयं विष्णुमन्दिरमें दीपदान करने लगी । बुद्धिमान् बलि पुराणवेत्ता श्रेष्ठ ब्राह्मणोंसे धार्मिक प्रवचन करवाने लगा ॥५६ - ५९॥

उस प्रकारके धर्ममार्गमें स्थित रहनेवाले असुरोंमें श्रेष्ठ बलिकी रक्षाके लिये दिव्य शरीर धारण करनेवाले जगत्पति परमात्मा जनार्दन ( वहाँ ) विराजने लगे । वे द्वारपर रहते हुए दस हजार सूर्योंके समान तेजवाले मुसलको लेकर दुष्ट शत्रुओंके यूथपतियोंका संहार करते एवं प्राचीर ( परकोटा ) - से रक्षित बलिके भवनमें किसीको प्रवेश नहीं करने देते थे । सभी गुणोंसे सुन्दर लगनेवाले विधाता नारायणके द्वारपाल होनेपर बलि भी अपने महलके भीतर निरन्तर सुरों एवं ऋषियोंमें सर्वश्रेष्ठ नियमनकर्ता हरिका पूजन करने लगा । असुरराज बलि इस प्रकार हरिके चरणकमलोंका अर्चन करते हुए नित्य हरिके वचनोंका स्मरण किया करता था । वह ( नियम ) उसके लिये विनयका अड्कुश हो गया ॥६० - ६३॥

इन्द्रके समान श्रेष्ठ अपने पितामहके कल्याणप्रद इस लोक तथा परलोकमें कल्याणकारी एवं सुन्दर तथ्य वचनोंका स्मरण करते हुए वह वीर दैत्यराज इस वृत्तका पाठ ( आवृत्ति ) करता था । पूर्वमें कठोरतापूर्वक कहे गये और बादमें नवनीतके समान स्रिग्ध ( कोमल ) एवं शुद्ध वृद्धवाक्योंका श्रवण कर तदनुसार आचरण करनेवाले निस्सन्देह आनन्द प्राप्त करते हैं । वृद्धवाक्यरुपी ओषधि आपत्तिरुपी सर्पसे दंशित मन्त्रहीन पुरुषको निस्सन्देह विषसे रहित कर देती है । वृद्धवचनरुपी अमृतको पीने एवं उनके कथनके अनुसार आचरण करनेसे मनुष्योंको जो तृप्ति होती हैं वैसी तृप्ति सोमपानमें कहाँ है ? वृद्धजन आपत्तिमें पडे हुए जिन मनुष्योंका शासन ( मार्गदर्शन ) नहीं करते वे बन्धुओंके लिये शोचनीय तथा जीवित ही मरे हुएके समान होते हैं । आपत्तिरुपी ग्राहसे ग्रस्त जिन व्यक्तियोंको वृद्ध ज्ञानी लोग ( उससे ) मुक्त करानेवाले नहीं होते उन्हें शान्तिकी प्राप्ति नहीं होती । आपत्तिरुपी जलमें डूबे और व्यसनरुपी लहरोंके थपेड़े खानेवाले पुरुषोंका उद्धार वृद्ध वचनके सिवा अन्य किसी भी प्रकार नहीं हो सकता । अतः वृद्धवचनको सुनने एवं तदनुसार आचरण करनेवाला मनुष्य विरोचन - पुत्र बलिके समान शीघ्र सिद्धि प्राप्त करता है ॥६४ - ७१॥

॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें चौरानबेवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥९४॥

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Last Updated : January 24, 2012

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