तुलसीदास कृत दोहावली - भाग १७

रामभक्त श्रीतुलसीदास सन्त कवि आणि समाज सुधारक होते. तुलसीदास भारतातील भक्ति काव्य परंपरेतील एक महानतम कवि होत.


साधुजन किसकी सराहना करते है

आपु आपु कहँ सब भलो अपने कहँ कोइ कोइ ।
तुलसी सब कहँ जो भलो सुजन सराहिअ सोइ ॥

संगकी महिमा

तुलसी भलो सुसंग तें पोच कुसंगति सोइ ।
नाउ किंनरी तीर असि लोह बिलोकहु लोइ ॥
गुरु संगति गुरु होइ सो लघु संगति लघु नाम ।
चार पदारथ में गनै नरक द्वारहू काम ॥
तुलसी गुरु लघुता लहत लघु संगति परिनाम ।
देवी देव पुकारिअत नीच नारि नर नाम ॥
तुलसी किएँ कुसंग थिति होहिं दाहिने बाम ।
कहि सुनि सकुचिअ सूम खल गत हरि संकर नाम ॥
बसि कुसंग चह सुजनता ताकी आस निरास ।
तीरथहू को नाम भो गया मगह के पास ॥
राम कृपाँ तुलसी सुलभ गंग सुसंग समान ।
जो जल परै जो जन मिलै कीजै आपु समान ॥
ग्रह भेषज जल पवन पट पाइ कुजोग सुजोग ।
होहिं कुबस्तु सुबस्तु जल लखहिं सुलच्छन लोग ॥
जनम जोग में जानिअत जग बिचित्र गति देखि ।
तुलसी आखर अंक रस रंग बिभेद बिसेषि ॥
आखर जोरि बिचार करु सुमति अंक लिखि लेखु ।
जोग कुजोग सुजोग मय जग गति समुझि बिसेषु ॥

मार्ग-भेदसे फल-भेद

करु बिचार चलु सुपथ भल आदि मध्य परिनाम ।
उलटि जपें 'जारा मरा' सूधें'राजा राम' ॥

भलेके भला ही हो, यह नियम नहीं है

होइ भले के अनभलो होइ दानि के सूम ।
होइ कपूत सपूत कें ज्यों पावक में धूम ॥

विवेककी आवश्यकता

जड़ चेतन गुन दोष मय बिस्व कीन्ह करतार ।
संत हंक गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार ॥

सोरठा

पाट कीट तें होइ तेहि तें पाटंबर रुचिर ।
कृमि पालइ सबु कोइ परम अपावन प्रान सम ॥

दोहा

जो जो जेहिं जेहिं रल मगन तहँ सो मुदित मन मानि ।
रसगुन दोष बिचारिबो रसिक रीति पहिचानि ॥
सम प्रकास तम पाख दुहुँ नाम भेद बिधि कीन्ह ।
ससि सोषक पोषक समुझि जग जस अपजस दीन्ह ॥

कभी-कभी भलेको बुराई भी मिल जाती है

लोक बेदहू लौं दगो नाम भले को पोच ।
धर्मराज जम गाज पबि कहत सकोच न सोच ॥

सज्जन और दुर्जनकी परीक्षाके भिन्न-भिन्न प्रकार

बिरुचि परखिऐ सुजन जन राखि परखिऐ मंद ।
बड़वानल सोषत उदधि हरष बढ़ावत चंद ॥

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Last Updated : January 18, 2013

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