तुलसीदास कृत दोहावली - भाग १३

रामभक्त श्रीतुलसीदास सन्त कवि आणि समाज सुधारक होते. तुलसीदास भारतातील भक्ति काव्य परंपरेतील एक महानतम कवि होत.


ज्ञानमार्गकी कठिनता

कहत कठिन समुझत कठिन साधत कठिन बिबेक ।
होइ घुनाच्छर न्याय जौं पुनि प्रत्यूह अनेक ॥

भगवद्भजनके अतिरिक्त और सब प्रयत्न व्यर्थ है

खल प्रबोध जग सोध मन को निरोध कुल सोध ।
करहिं ते फोटक पचि मरहिं सपनेहुँ सुख न सुबोध ॥

संतोषकी महिमा

सोरठा

कोउ बिश्राम कि पाव तात सहज संतोष बिनु ।
चलै कि जल बिनु नाव कोटि जतन पचि पचि मरिअ ॥

मायाकी प्रबलता और उसके तरनेका उपाय

सुर नर मुनि कोउ नाहिं जेहि न मोह माया प्रबल ।
अस बिचारि मन माहिं भजिअ महामाया पतिहि ॥

गोस्वामीजीकी अनन्यता

दोहा

एक भरोसो एक बल एक आस बिस्वास ।
एक राम घन स्याम हित चातक तुलसीदास ॥

प्रेमकी अनन्यताके लिये चातकका उदाहरण

जौं घन बरषै समय सिर जौं भरि जनम उदास ।
तुलसी या चित चातकहि तऊ तिहारी आस ॥

चातक तुलसी के मतें स्वातिहुँ पिऐ न पानि ।
प्रेम तृषा बाढ़ति भली घटें घटैगी आनि ॥
रटत रटत रसना लटी तृषा सूखि गे अंग ।
तुलसी चातक प्रेम को नित नूतन रुचि रंग ॥
चढ़त न चातक चित कबहुँ प्रिय पयोद के दोष ।
तुलसी प्रेम पयोधि की ताते नाप न जोख ॥
बरषि परुष पाहन पयद पंख करौ टुक टूक ।
तुलसी परी न चाहिऐ चतुर चातकहि चूक ॥
उपल बरसि गरजत तरजि डारत कुलिस कठोर ।
चितव कि चातक मेघ तजि कबहुँ दूसरी ओर ॥
पबि पाहन दामिनि गरज झरि झकोर खरि खीझि ।
रोष न प्रीतम दोष लखि तुलसी रागहि रीझि ॥
मान राखिबो माँगिबो पिय सों नित नव नेहु ।
तुलसी तीनिउ तब फबैं जौ चातक मत लेहु ॥
तुलसी चातक ही फबै मान राखिबो प्रेम ।
बक्र बुंद लखि स्वातिहू निदरि निबाहत नेम ॥
तुलसी चातक माँगनो एक एक घन दानि ।
देत जो भू भाजन भरत लेत जो घूँटक पानि ॥
तीनि लोक तिहुँ काल जस चातक ही के माथ ।
तुलसी जासु न दीनता सुनी दूसरे नाथ ॥
प्रीति पपीहा पयद की प्रगट नई पहिचानि ।
जाचक जगत कनाउड़ो कियो कनौड़ा दानि ॥
नहिं जाचत नहिं संग्रही सीस नाइ नहिं लेइ ।
ऐसे मानी मागनेहि को बारिद बिन देइ ॥
को को न ज्यायो जगत में जीवन दायक दानि ।
भयो कनौड़ो जाचकहि पयद प्रेम पहिचानि ॥
साधन साँसति सब सहत सबहि सुखद फल लाहु ।
तुलसी चातक जलद की रीझि बूझि बुध काहु ॥
चातक जीवन दायकहि जीवन समयँ सुरीति ।
तुलसी अलख न लखि परै चातक प्रीति प्रतीति ॥
जीव चराचर जहँ लगे है सब को हित मेह ।
तुलसी चातक मन बस्यो घन सों सहज सनेह ॥
डोलत बिपुल बिहंग बन पिअत पोखरनि बारि ।
सुजस धवल चातक नवल तुही भुवन दस चारि ॥
मुख मीठे मानस मलिन कोकिल मोर चकोर ।
सुजस धवल चातक नवल रह्यो भुवन भरि तोर ॥
बास बेस बोलनि चलनि मानस मंजु मराल ।
तुलसी चातक प्रेम की कीरति बिसद बिसाल ॥
प्रेम न परखिअ परुषपन पयद सिखावन एह ।
जग कह चातक पातकी ऊसर बरसै मेह ॥
होइ न चातक पातकी जीवन दानि न मूढ़ ।
तुलसी गति प्रहलाद की समुझि प्रेम पथ गूढ़ ॥
गरज आपनी सबन को गरज करत उर आनि ।
तुलसी चातक चतुर भो जाचक जानि सुदानि ॥
चरग चंगु गत चातकहि नेम प्रेम की पीर ।
तुलसी परबस हाड़ पर परिहैं पुहुमी नीर ॥
बध्यो बधिक पर्यो पुन्य जल उलटि उठाई चोंच ।
तुलसी चातक प्रेमपट मरतहुँ लगी न खोंच ॥
अंड फोरि कियो चेटुवा तुष पर्यो नीर निहारि ।
गहि चंगुल चातक चतुर डार्यो बाहिर बारि ॥
तुलसी चातक देत सिख सुतहि बारहीं बार ।
तात न तर्पन कीजिऐ बिना बारिधर धार ॥

सोरठा

जिअत न नाई नारि चातक घन तजि दूसरहि ।
सुरसरिहू को बारि मरत न माँगेउ अरध जल ॥
सुनु रे तुलसीदास प्यास पपीहहि प्रेम की ।
परिहरि चारिउ मास जौ अँचवै जल स्वाति को ॥
जाचै बारह मास पिऐ पपीहा स्वाति जल ।
जान्यो तुलसीदास जोगवत नेही नेह मन ॥

दोहा

तुलसीं के मत चातकहि केवल प्रेम पिआस ।
पिअत स्वाति जल जान जग जाँचत बारह मास ॥
आलबाल मुकुताहलनि हिय सनेह तरु मूल ।
होइ हेतु चित चातकहि स्वाति सलिलु अनुकूल ॥
उष्न काल अरु देह खिन मन पंथी तन ऊख ।
चातक बतियाँ न रुचीं अन जल सींचे रूख ॥
अन जल सींचे रूख की छाया तें बरु घाम ।
तुलसी चातक बहुत हैं यह प्रबीन को काम ॥
एक अंग जो सनेहता निसि दिन चातक नेह ।
तुलसी जासों हित लगै वहि अहार वहि देह ॥

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Last Updated : January 18, 2013

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