मूर्खलक्षणनाम - ॥ समास पहला - मूर्खलक्षणनाम ॥

इस ग्रंथराज के गर्भ में अनेक आध्यात्मिक ग्रंथों के अंतर्गत सर्वांगीण निरूपण समाया हुआ है ।


॥ श्रीरामसमर्थ ॥
ॐ नमो जी गजानना । एकदंता त्रिनयना । कृपादृष्टि से भक्तजनों का । अवलोकन करें ॥१॥
तुम्हें नमन हे वेदमाता । श्रीशारदा हे ब्रह्मसुता । अंतरंग में वास करें कृपावंता । स्फूर्ति रूप में ॥२॥
वंदन कर सद्गुरूचरण । कर रघुनाथ स्मरण । त्यागार्थ मूर्खलक्षण । कथन करूं ॥३॥
एक मूर्ख एक पढतमूर्ख । उभय लक्षणों के कौतुक । श्रोतासम्मुख सादर विवेक । रखना चाहिये ॥४॥
पढतमूर्खों के लक्षण । अगले समास में निरुपण । सावधान होकर विचक्षण । सुनें आगे ॥५॥
अब प्रस्तुत विचार । कहने को लक्षण अपार । मगर उनमें से कुछ तत्पर । होकर सुनें ॥६॥
है जो प्रापंचिक जन । नहीं जिन्हें आत्मज्ञान । जो केवल अज्ञान । उनके लक्षण ॥७॥
जन्मा जिनके उदरसे । करे जो विरोध उनसे । पत्नी को माने सखी जैसे । वह एक मूर्ख ॥८॥
छोड़कर सभी गोत्रज । स्त्री आधीन जीवित । कहे अंतरंग की बात । वह एक मूर्ख ॥९॥
परस्त्री से प्रेम करे । श्वशुरगृह में वास करे । कुल देखे बिन कन्या वरे । वह एक मूर्ख ॥१०॥
समर्थ पर दिखाये अहंता । अंतरंग में माने समता । सामर्थ्यबिन करे सत्ता । वह एक मूर्ख ॥११॥
अपनी ही स्वयं करे स्तुति । स्वदेश में भोगे विपत्ति । कथन करे पुरखों की कीर्ति । वह एक मूर्ख ॥१२॥
अकारण हास्य करे । कहने पर विवेक भी ना धरे । जो बहुतों से बैर करे । वह एक मूर्ख ॥१३॥
अपनों से रखकर दूरी । परायों से करे मैत्री । परन्यून कहे जो रात्री । वह एक मूर्ख ॥१४॥
बहुत जगतें जन । उनमें करे शयन । परस्थल पर बहुत भोजन । करे वह एक मूर्ख ॥१५॥
मान अथवा अपमान । स्वयं करे परिछिन्न । सप्त व्यसनों में जिसका मन । वह एक मूर्ख ॥१६॥
रखकर पराई आस । छोड़े प्रयत्न सावकाश । आलस्य का संतोष । माने वह एक मूर्ख ॥१७॥
घर में विवेक समझाये । और सभा में लजाये । शब्द बोलते लड़खड़ाये । वह एक मूर्ख ॥१८॥
अपने से जो श्रेष्ठ । माने स्वयं को उनके अत्यंत निकट । सिखलाने पर माने विकट । वह एक मूर्ख ॥१९॥
ना सुननेवालों को सिखाये । श्रेष्ठों को ज्ञातृत्व दिखलाये । जो बड़ों को उलझाये । वह एक मूर्ख ॥२०॥
अचानक एकाएक । हुआ विषयों में बेहिचक । स्वैराचार करे मर्यादा लांघ । वह एक मूर्ख ॥२१॥
औषध न लेता रहकर व्यथा । पथ्य ना पाले सर्वथा । प्राप्त पदार्थ अमान्य करे सदा । वह एक मूर्ख ॥२२॥
संग बिना विदेश करे । पहचान बिना संग धरे । महापूर में कूद पडे । वह एक मूर्ख ॥२३॥
जहां स्वयं को मिले सन्मान । वहां अखंड करे गमन । रक्षा न कर सके मानाभिमान । वह एक मूर्ख ॥२४॥
सेवक बन गया लक्ष्मीवंत । होता उसका अंकित । सर्वकाल जो दुश्चित । वह एक मूर्ख ॥२५॥
कारण का न कर विचार । अपराधबिना करे जो दण्डित । स्वल्प के लिये जो कृपण । वह एक मूर्ख ॥२६॥
देवविमुख पितृविमुख । शक्ति बिन करे बकबक । जिसके मुख में गालीगलौज । वह एक मूर्ख ॥२७॥
दांत भींचे घरवालों पर । दीन बेचारा रहे बाहर । ऐसा जो है मूढ पागल । वह एक मूर्ख ॥२८॥
नीच याति से संगत करे । परांगना से एकांत रखे । मार्ग पर खाते खाते जाये । वह एक मूर्ख ॥२९॥
स्वयं न जाने परोपकार । उपकार का अनुपकार । करे थोड़ा बोले अपार । वह एक मूर्ख ॥३०॥
क्रोधी पेटू आलस । मलिन कुटील मानस । धैर्य नहीं जिस के पास । वह एक मूर्ख ॥३१॥
विद्या वैभव ना धन । पुरुषार्थ सामर्थ्य ना मान । करे कोरा अभिमान । वह एक मूर्ख ॥३२॥
कायर झूठा दगाबाज़ । कुकर्मी कुटिल निर्लज्ज । निद्रा का जिसमें अधिक्य । वह एक मूर्ख ॥३३॥
ऊंचाई पर वस्त्र पहने । चौबारे पर बाहर बैठे । सर्वकाल नग्न दिखे । वह एक मूर्ख ॥३४॥
दंत चक्षु और घ्राण । पाणि वसन और चरण । सर्वकाल जिसके मलिन । वह एक मूर्ख ॥३५॥
वैधृति और व्यतिपात । जाये जब हो नाना कुमुहूर्त । अपशकुन में करे घात । वह एक मूर्ख ॥३६॥
क्रोध अपमान कुबुद्धि से । स्वयम् का ही वध करे । दृढ बुद्धि नही होती जिसे । वह एक मूर्ख ॥३७॥
जो प्रिय जनों को परम खेद दे । सुख का शब्द भी ना दे । नीच जनों को वंदे । वह एक मूर्ख ॥३८॥
अपनी रक्षा करे । शरणागतों को दुत्कारे । लक्ष्मी का भरोसा करे । वह एक मूर्ख ॥३९॥
पुत्र कलत्र और दारा । इनको ही जो माने सहारा । ईश्वर को जो बिसरा । वह एक मूर्ख ॥४०॥
जो जैसे जैसे करता । वह वैसा वैसा पाता । यह ना जो जानता । वह एक मूर्ख ॥४१॥
पुरुषों से अष्ट गुणन । स्त्रियों को ईश्वर की देन । ऐसी की बहुत जिसने । वह एक मूर्ख ॥४२॥
दुर्जनों के वचनों पर । चले मर्यादा लांघकर । दिन में मूंद लिये नेत्र । वह एक मूर्ख ॥४३॥
देवद्रोही गुरुद्रोही । मातृद्रोही पितृद्रोही । ब्रह्मद्रोही स्वामीद्रोही । वह एक मूर्ख ॥४४॥
पर पीड़ा में माने सुख । परसंतोष में माने दुःख । गत वस्तु का करे शोक । वह एक मूर्ख ॥४५॥
अनादर से बोलता । बिना पूछे साक्ष देता । निंद्य वस्तु का अंगिकार करता । वह एक मूर्ख ॥४६॥
तुक तोडकर बोले । मार्ग छोडकर चले । कुकर्मी मित्र बना ले । वह एक मूर्ख ॥४७॥
सच की रक्षा ना जाने कदा । विनोद करे सर्वदा । हंसनेपर खीज कर झगड़ता । वह एक मूर्ख ॥४८॥
लगाये कठि न होड़ । अकारण करे बड़बड़ । बोलना ही ना जाने मुखजड । वह एक मूर्ख ॥४९॥
वस्त्र शास्त्र दोनों न होते । उंचे स्थलपर जाकर बैठे । गोत्रजों का जो विश्वास करे । वह एक मूर्ख ॥५०॥
तस्कर को पहचान बताये । देखी जो वस्तु वही मांगे । क्रोध से अपना अनहित करे । वह एक मूर्ख ॥५१॥
समता करे हीन जनों से । बोल बोले बराबरी से । प्राशन करे बामहस्त से । वह एक मूर्ख ॥५२॥
समर्थों से मत्सर धरे । अलभ्य वस्तु का द्वेष करे । घर के घर में ही चोरी करे । वह एक मूर्ख ॥५३॥
त्यागकर जगदीश । मनुष्यपर करे विश्वास । सार्थक किये बिना बिताये आयुष्य । वह एक मूर्ख ॥५४॥
संसार दुःखों के कारण । ईश्वर को दे दूषण । मित्र के बारें में कहे न्यून । वह एक मूर्ख ॥५५॥
अल्प अन्याय क्षमा न करे । सर्वकाल जो दंडित करे । जो विश्वासघात करे । वह एक मूर्ख ॥५६॥
समर्थों के मन से टूटे । जिससे सभा का भाव घटे । क्षण में भला क्षण में पलटे । वह एक मूर्ख ॥५७॥
बहुत पुराना सेवक । त्यागकर रखे और एक । जिसकी सभा निर्नायक । वह एक मूर्ख ॥५८॥
अनीति से द्रव्य जोड़े । धर्मनीति न्याय छोड़े । संगती के मनुष्य तोडे । वह एक मूर्ख ॥५९॥
घर में रहकर सुंदरी । जो सदा ही परद्वारी । बहुतों का उच्छिष्ट अंगिकारी । वह एक मूर्ख ॥६०॥
अपना अर्थ दूसरों के पास । और दूसरों का करे अभिलाष । हीनों से करे लेन देन । वह एक मूर्ख ॥६१॥
अतिथि का अंत देखता । कुग्राम में रहता । सर्वकाल चिंता करता । वह एक मूर्ख ॥६२॥
जहां दो बातचीत करते । वहां तीसरा जाकर बैठे । दोनों हाथों से मस्तक खुजाये । वह एक मूर्ख ॥६३॥
जल में कुल्ला करे । पैर से पैर खुजलाये । हीन कुल में सेवा करे । वह एक मूर्ख ॥६४॥
बराबरी करे स्त्री बालक से । पागलों के सन्निघ बैठे । उदंड श्वान पाले । वह एक मूर्ख ॥६५॥
परस्त्री से कलह करे । मूक वस्तुपर शस्त्र मारे । मूर्ख की संगति करे । वह एक मूर्ख ॥६६॥
कलह देखते खड़ा रहे । मिटाये बिना कौतुक देखे । सच रहते झूठ सहन करे । वह एक मूर्ख ॥६७॥
लक्ष्मी के आनेपर । भूल जाता जो पिछली पहचान । देव ब्राम्हण पर करे शासन । वह एक मूर्ख ॥६८॥
न होने तक अपना काम । रहे बहुत विनम्र । दूसरों का न करे काम । वह एक मूर्ख ॥६९॥
पढे अक्षर छोड़कर । अथवा जोड़े स्वयम् के अक्षर । न रखे पुस्तक सम्हाल कर । वह एक मूर्ख ॥७०॥
स्वयं कभी न करे पठन । ना करने दे किसी को पठन । बांधकर रखे बंधन । वह एक मूर्ख ॥७१॥
ऐसे ये मूर्खों के लक्षण । श्रण से चातुर्य में होते निपुण । सयाने लोग देकर ध्यान । सुनते सदा ॥७२॥
लक्षण ऐसे हैं अपार । मगर कुछ एक मतिअनुसार । कहे हैं त्यागार्थ । श्रोताओं ने क्षमा करनी चाहिये ॥७३॥
उत्तम लक्षणों को करें ग्रहण । त्याग करें मूर्खलक्षण । अगले समास में संपूर्ण । निरूपित किये ॥७४॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे मूर्खलक्षणनाम समास पहला ॥१॥

॥ जय जय रघुवीर समर्थ ॥

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Last Updated : November 29, 2023

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