वास्तुप्रकरणम्‌ - श्लोक १६३ ते १९४

अनुष्ठानप्रकाश , गौडियश्राद्धप्रकाश , जलाशयोत्सर्गप्रकाश , नित्यकर्मप्रयोगमाला , व्रतोद्यानप्रकाश , संस्कारप्रकाश हे सुद्धां ग्रंथ मुहूर्तासाठी अभासता येतात .


अथ प्रतिप्ठाविधाने तिथिविचार : । पंचमी च द्वितीया च तृतीया सप्तमी तथा । दशमी पौर्णमासी च तथा श्रेष्ठा त्रयोदशी ॥१६३॥

आसु प्रतिष्ठा विधिवत्कृता बहुफला भवेत्‌ । या तिथिर्यस्य देवस्य तस्यां वा तस्य कीर्तिता ॥१६४॥

प्रतिषद्धनदस्योक्ता प्रवित्रारोहणे तिथि : । श्रियो देव्या द्वितीया च तिथीनामुत्तमा स्मृता ॥१६५॥

तृतीया तु भवान्याश्व चतुर्थी तत्सुतस्य च । पंचमी सोमराजस्य पष्ठी प्रोक्ता गुहस्य च ॥१६६॥

सप्तमी भास्करे प्रोक्ता दशमी वासुकेस्तथा । एकादशी ऋषीणां च द्वादशी चक्रपाणिन : ॥१६७॥

त्रयोदशी त्वनंगस्य शिवस्योक्ता चतुर्दशी । मम चैव मुनिश्रेष्ठ पौर्णमासी तिथि : स्मृता ॥१६८॥

( प्रतिष्ठाकरनेमें तिथियोंका विचार ) ५।२।३।७।१०।१५।१३ इन तिथियोंमें प्रतिष्ठा करनेसे बहुत फलको देती हैं , अथवा जिस देवताकी जो तिथि है उसी तिथिमें प्रतिष्ठा शुभ है ॥१६३॥१६४॥

प्रतिपदामें कुत्रेरकी प्रतिष्ठा शुभ , है , द्वितीयामें लक्ष्मीकी , तृतीयामें भवानीकी , चोथमें गणेशकी , पंचमीमें चन्द्रमाकी , छठमें स्वामीकार्त्तिककी , सप्तमीमें सूर्यकी , दशमीमें वासुकिसर्पकी , एकादशीमें ऋषियोंकी , द्वादशी में विष्णुकी , त्रयोदशीमें कामदेवकी , चतुर्दशीमें शिवकी और पूर्णिमामें ब्रह्माकी प्रतिष्ठा शुभ है ॥१६५॥१६८॥

अथ वारा : । सोमो बृहस्पतिश्वैव शुक्रश्चैव तथा बुध : । एते वाग : शुभा : प्रोक्ता : प्रतिष्ठायज्ञकर्भणि ॥१६९॥

अथ नक्षत्राणि । आपाढे द्वे तथा मूलमुत्तराद्वयमेव च । ज्येष्टाश्रवणरोहिण्य : पूर्वाभाद्रपदा तथा ॥१७०॥

हरतोऽश्विनी रेवती च पुष्यो मृगशिरास्तथा । अनुराधा तथा स्वाती प्रतिष्ठासु प्रशस्यते ॥१७१॥

चंद्रताराबलोपेते पूर्वाह्णे शोभने दिने । शुभलग्ने शुभांशे च कर्तुर्नो निधनोदये ॥१७२॥

अयने विषुवद्वन्द्वे षडशीतिमुखे तथा । सुराणां स्थापनं कार्य्यं विधिद्दष्टेन कर्मणा ॥१७३॥

अथ मुहूर्त्ता : । प्राजापत्ये तु शयनं श्वेते तूत्थापनं तथा । मुहूर्त्ते स्थापनं कुर्यांत्पुनर्ब्राह्मे विचक्षण : ॥१७४॥

दिनमध्यगते सूर्य्यें मुहूर्त्तेऽभिजिदष्टमे । सर्वकामसमृद्ध : स्यात्सर्वोपद्रववर्जित : ॥१७५॥

सोम , गुरु , शुक्र , बुध यह वार प्रतिष्ठामें शुभ हैं ॥१६९॥

पूर्वाषाढा , उत्तराषाढा , मू , उ . २ , ज्ये , श्रे , रो . पूर्वाभा , ह , अश्वि , पुष्य , मृ , अनु , स्वा . यह नक्षत्र संपूर्ण प्रतिष्ठामें श्रेष्ठ हैं ॥१७०॥

१७१॥

चन्द्रमा तारा बलवान्‌ हो तथा शुभ दिनका प्रात : काल हो . श्रेष्ठ लग्न शुभ नवांशक हो , यजमानकी जन्मकी आठवीं राशि विना लग्न हो अथवा अयन पलटता हो तथा मेष , तुला , धन , मिथुन , कन्याकी संक्रांतिका पुण्य दिन हो तो विधिपूर्वक देवताओंका स्थापन करना श्रेष्ठ है ॥१७२॥१७३॥

प्राजापत्य मुहूर्त्तमें देवोंका शयन करावे और श्वेतमुहूर्त्तमें उठाना ( जागृत ) शुभ है , ब्राह्ममुहूर्त्तमें स्थापन करना श्रेष्ठ है ॥१७४॥

अथवा मध्याहमें सूर्य सानेसे आठवां अभिजित्‌ मुहूर्त्त है सो संपूर्ण दोषोंके दूर करके कार्य सिद्ध करता है उसमें स्थापन करे ॥१७५॥

अथ देवतांतरेण कालविशेष : तत्र तावच्छिवप्रतिष्ठाकाल : । उत्तराशागते भाना लिंगस्थापनमुत्तमम्‌ । दक्षिणे त्वयनेऽपूज्यं द्विवर्षाद्वै भयावहम्‌ ॥१७६॥

स्वगृहे स्यापनं नेष्टं तथा वै दक्षिणायने । स्थापनं तु प्रकर्त्तव्यं शिशिरादावृतुत्रये ॥१७७॥

प्रावृषि स्थापितं लिंगं भवेद्वरदयोगदम्‌ । हेमंते ज्ञानदं लिंगं शिशिरे सर्वभूतिदम्‌ ॥१७८॥

लक्ष्मीप्रद वसंते च ग्रीष्मे च जयशांतिदम्‌ । यतीनां सर्वकाले तु लिंगस्यारोपणं मतम्‌ ॥१७९॥

माघफाल्गुनवैशाखज्येष्ठाषाढेषु पंचसु । श्रावणे च नभस्ये च लिंगस्थापनमुत्तमम्‌ ॥१८०॥

लग्नं च वृश्विक : सिंहो मेषो मिथुनकर्कटौ । तथा कन्या तुला कुंभो वृषभश्व प्रशस्यते ॥१८१॥

( जुदे जुदे देवोंकी प्रतिष्ठाका विचार ) उत्तरायणसूर्यमें लिंगस्थापन करना शुभ है यदि दक्षिणायनमें करें तो दो बरसके अनंतर भय होता है ॥१७६॥

अपने घरमें तथा दक्षिणायनमें लिंगस्थापन नहीं करना और शिशिर , वसंत , ग्रीष्म ऋतुमें स्थापन , करना चाहिये ॥१७७॥

प्रावृट्‌कालमें स्थापित हुआ लिंग वरको देता है , हेमंतमें ज्ञान देता है , शिशिरमें संपत्ति देता है ॥१७८॥

वसंतमें लक्ष्मी देता है , ग्रीष्मऋतुमें जय शांति करे और यतिसंन्यासियोंको सदैव लिंगस्थापन करना शुभ है ॥१७९॥

माघ , फाल्गुन , वैशाख ज्येष्ठ , आषाढ यह मास और श्रावण भाद्रपद भी लिंगस्थापनमें शुभ हैं ॥१८०॥

वृश्विक , सिंह , मेष मिथुन , कर्क , कन्या , तुला , कुंभ , वृष , यह लग्न श्रेष्ठ हैं ॥१८१॥

अथ विष्णुप्रतिष्ठायां विशेष : मार्गशीर्षफमाघौ द्वौ निंदितौ ब्रह्मणा पुरा । मासेषु फाल्गुन : श्रेष्ठश्वैत्रौ वैशाख एव च ॥१८२॥

पूर्वपक्षे शुभे काले स्थिरे चोर्ध्वमुखेऽपि भे । अनुकूले च लग्ने च हरि : स्थाप्यो नरैस्तथा ॥१८३॥

चरराशिं परित्यज्य स्थिरराशिं प्रगृह्य च । सुप्रशस्ते मुहूर्त्ते वै प्रतिष्ठां कारयेद्धरे : ॥१८४॥

अथ देवीप्रतिष्ठाकाल : । गुरौ मेषगते शुक्रे देवीं संस्थापयेदथ । इहैव स भवेद्धन्यो मृतो गच्छेत्परं पदम्‌ ॥१८५॥

तस्मान्मेषगते शुक्रे उत्तमा नवमी स्मृता । तथा माघाश्विनौ मासावुत्तमौ परिकीर्त्तितौ ॥१८६॥

न तिथिर्न च नक्षत्रं नोपवासोऽत्र कारणम्‌ । मातृभैरववाराहनारसिंहत्रिविक्रमा : ॥१८७॥

महिषासुरहत्र्यश्व स्थाय्या वै दक्षिणायने । सर्वकालं प्रकर्त्तव्यं कृष्नपक्षे विशेषत : ॥१८८॥

रात्रिरूपा यतो देवी दिवारूपो महेश्वर : । अत : स्वकालपूजाभि : सिद्धिदा परमेश्वरी ॥१८९॥

( विष्णुकी प्रतिष्ठाका विशेष विचार ) मार्गशिर , माघ यह ५ महीने विष्णुकी प्रतिष्ठामें ब्रह्मा करके पूर्व त्यागे हुए हैं और फाल्गुन , चैत्र , वैशाख यह श्रेष्ठ हैं ॥१८२॥

शुक्लपक्ष हो स्थिर काल हो और ( ऊर्ध्वमुख ) उ . २ . रो . पुष्य . आ . श्र ध . श , यह नक्षत्र होवे . श्रेष्ठ लग्न हो तब विष्णु स्थापन करना शुभ है ॥१८३॥

चरराशिके लग्नोंको त्यागके स्थिर राशिके लग्नमें श्रेष्ठ मुहूर्त्तमें विष्णुस्थापन करे ॥१८४॥

( देवीकी प्रतिष्ठाका विचार ) गुरु , शुक्र भेषराशिपर हों तब देवीस्यापन करे तो इस लोकमें धन्य धन्य होके मरनेके बद परम मोक्षको जाता है ॥१८६॥

इस वास्ते मेषके शुक्रमें नौमी तिथिमें और माघ , आश्विनके मासमें देवीप्रतिष्ठा श्रेष्ठ है ॥१८५॥

देवीकी प्रतिष्ठामें तिथि नक्षत्र उपवास व्रत आदिकी जरूरत नहीं है कारण कि मातृका , भैरव , वाराह नृसिंह , वामन , दुर्गा यह देवता दक्षिणायन सूर्यमें ही स्थापन करने शुभ हैं और सदैव मुहर्त्त श्रेष्ठ है , परन्तु कृष्णपक्षमें विशेष श्रेष्ठ है ॥१८७॥१८८॥

कारण कि रात्रिरूपा देवी है और दिनरूप महादेव हैं इसवास्ते अपने समय ( रात्रि ) में ही देवी पूजा करनेसे फलको देती है ॥१८९॥

अथ देवताविशेपेण नक्षत्रविशेप : । विष्णो : पूर्वोदिते भेऽनुराधाचित्राद्वयो : सिते । रोहिणीश्रवणज्येष्ठापुष्ये चाभिजितीरितम्‌ ॥१९०॥

विधिवासवय : सम्यक्‌ प्रतिष्ठापनमार्यकै : । भानोर्हस्तेऽनुराधायां कुबेरस्कंदयोरपि ॥१९१॥

मूले दुगीदिकानां च श्रवणे जुगतस्य हि । खेत्यां धर्महेरंबफणिप्रथमरक्षसाम्‌ ॥१९२॥

यक्षभुताऽसुराणां च वाग्देव्या : स्थापनं स्मृतम्‌ । व्यासागस्त्यग्रहाणां च वाल्मीके : पुष्वभे तथा ॥१९३॥

यत्र सप्तर्षयो यांति धिष्ण्ये तेषां तु तत्र च । सवेंषामेव रोहिण्यामुत्तरात्रितयं तथा ॥ धनिष्ठायां दिगीशानां प्रतिष्ठापनमीरितम्‌ ॥१९४॥

( जुदे जुदे देवोंके नक्षत्र ) विष्णुकी प्रतिष्ठाका नक्षत्र पहिला लिख चुके हैं सो ही जानना और ब्रह्मा , इन्द्र्के स्थापनमें , अनु . चि . स्वा . मृ . रो . श्र . ज्ये . पुष्यअभि , यह नक्षत्र शुभ हैं , सूर्यके स्थापनमें , हस्त नक्षत्र शुभ है , कुवेर स्वामिकार्त्तिकके स्थापनमें अनुराधा शुभ है ॥१९०॥१९१॥

दुर्गा भैरव आदि क्रूरदेवोंका मूल , नक्षत्रमें स्थापन श्रेष्ठ है , जैनियोंका पारशनाथ तथा वीद्धका स्थापन श्रवणमें शुभ है , धर्मराज , गणेशजी , शेपनाग , शिवके गण , राक्षस , यक्ष , भूत , दैत्य , सरस्वती इनका रेवतीमें स्थापन करना श्रेष्ठ है , और व्यास , वाल्मीकि , अगस्त्य , सूर्यादिग्रह इनका स्थापन पुष्यनक्षत्रमें शुभ है ॥१९२॥१९३॥

सप्तऋषिलोग जिस नक्षत्रपर हों उसीमें श्रेष्ठ है और रो . उ . ३ . यह संपूर्ण देवोंके अर्थ श्रेष्ठ हैं और इंद्रादि दिक्फलोंका स्थापन धनिष्ठा नक्षत्रमें शुभ जानना ॥१९४॥

N/A

References : N/A
Last Updated : November 11, 2016

Comments | अभिप्राय

Comments written here will be public after appropriate moderation.
Like us on Facebook to send us a private message.
TOP