वास्तुप्रकरणम्‌ - श्लोक १२८ ते १४४

अनुष्ठानप्रकाश , गौडियश्राद्धप्रकाश , जलाशयोत्सर्गप्रकाश , नित्यकर्मप्रयोगमाला , व्रतोद्यानप्रकाश , संस्कारप्रकाश हे सुद्धां ग्रंथ मुहूर्तासाठी अभासता येतात .


अथ प्रवेशे द्वारवशात्तिथय : । नन्दायां १ । ६ । ११ दक्षिणद्वारं भद्रायां २।७।१२ पश्विमामुखम्‌ । जयाया ३।८।१३ मुत्तरद्वारं पूर्णायां ५।१०।१५ पूर्वतो विशेत ॥१२८॥

अथ वारास्तत्फलं च । गुरुशुक्रबुधाख्येषु वारेषु च सुखार्थदम्‌ । प्रवेशे तु शनौ स्थैर्यं किंचिच्चौरभयं भवेत्‌ ॥१२९॥

व्यर्कारवारतिथिषु रिक्तामावर्जितेषु च । दिवा वा यदि वा रात्रौ प्रवेशो मंगलप्रद : ॥१३०॥

अथ गृहप्रवेशनक्षत्राणि । चित्रोत्तराधातृशशांकमित्रवस्वंत्यवारीश्वरमेषु नूनम । आयुर्द्धनारोग्यसुपुत्रपौत्रसत्कीर्त्तिद : स्यात्त्रिविध : प्रवेश : ॥१३१॥

( गृहप्रवेशकी तिथि ) नदा तिथियों १।६।११ में दक्षिण द्वारक घरमें प्रवेश करना शुभ है , भद्रा तिथियों २।७।१२ में पश्चिम द्वारके घरमें और जया तिथियों ३।८।१३ में उत्तर द्वारके घरमें , पूर्णा तिथियों ५ । १० । १५ में पूर्वके द्वारके घरमें प्रवेश करना श्रेष्ठ है ॥१२८॥

( गृहप्रवेशमें वारादि ) बृहस्पति , शुक्र बुधवार प्रवेशमें शुभ हैं और स्थिर कार्य शनिवारको भी करना लिखा है परंतु चोरोंका भय होता है ॥१२९॥

आदित्य मंगलके विना वारोंमें और रिक्ता ४।१।१४ अमावास्याके विना तिथियोंमें दिन हो चाहे रात्रि हो गृहप्रवेश मंगलका देनेवाला होता है ॥१३०॥

( नवीन घरमें प्रवेशके नक्षत्र ) चि . उ . ३ , रो . मृ . अनु . ध .. रे . श . इन नक्षत्रोंसें तीनोंही प्रवेश करें तो आयु , धन , आरोग्य , श्रेष्ठ पुत्र , पौत्र , कीर्ति प्राप्त होती है ॥१३१॥

अथ जीर्णगृहप्रवेशे विशेष : । धनिष्ठाद्वितये पुष्ये त्र्युत्तरे रोहिणीद्वये । चित्रास्वात्यनुराधांत्ये प्रविशेज्जीर्णमंदिरम्‌ ॥१३२॥

अथ निषिद्धनक्षत्राणि । अर्कनिलेपादितिदस्त्रविष्णुऋक्षे प्रविष्टं नवमन्दिरं यत्‌ । अब्दत्रयात्तत्परहस्तयात शेषेषु धिष्ण्येषु च मृत्युदं स्यात्‌ ॥१३३॥

अथ बास्तुपूजननक्षत्राणि । चित्रा शतभिपा स्वाती हस्त : पुष्य : पुनर्वसु : । रोहिणी रेवती मूलं श्रवणोत्तरफाल्गुनी ॥१३४॥

धनिष्ठा चोत्तराषाढोत्तराभाद्रपदान्विता : । अश्विनी मृगशीर्षं च ह्यनुराधा तथैव च ॥१३५॥

वास्तुपूजनमेतेषु नक्षत्रेषु करीति य : । स प्राप्नोति नरो लक्ष्मीमिति शास्त्रेषु निश्वय : ॥१३६॥

अथ वास्तुपूजाऽकरणेऽनिष्टफलम्‌ । वास्तुपूजामकृत्वा य ; प्रविशेन्नवमन्दिरे ॥ रोगान्नानाविधान्‌ क्लेशानश्नुते सर्वसंकटम्‌ ॥१३७॥

गृहादिकरणे यत्र नार्चिता वास्तुदेवता : । तत्र शून्य़ं भवेत्सद्म रक्षोविघ्नादिभिर्हतम्‌ ॥१३८॥

निर्माणे मंदिराणां च प्रवेशे त्रिविधेऽपि बा । वास्तुपूजा प्रकत्तव्या सर्वदा शुभकांक्षिणा ॥१३९॥

( पुराने घरका प्रवेश नक्षत्र ) ध . श . पुष्य उ . रो . मृ . चि . स्वा . अनु . र . इन नक्षत्रोंमें पुराने घरका प्रवेश शुभ है ॥१३२॥

( निषिद्ध नक्षत्र ) ह . कृ , पुन अश्वि . श्र . इन नक्षत्रोंमें नवीन घरमें प्रवेश करे तो मृत्यु होवे ॥१३३॥

( वास्तुपूजाके नक्षत्र ) चि . श . खा . ह . पु . पु . रो . रे . मू . श्र . उत्तराफा , ध . उ . षा . उ भा . अश्वि . मृ . अनु . इन नक्षत्रोंमें वास्तुकी पूजा करे तो लक्ष्मी प्राप्त होवे ॥१३४॥१३६॥

( वास्तुकी पूजा न करनेमें अनिष्ट फल ) यदि वास्तुकी पूजा शांति करे विना नवीन घरमें प्रवेश हो तो रोग , नाना क्लेश , सर्व प्रकारका संकट भोगता है ॥१३७॥

घर , दुकान , बैठक , शाला आदि नवीन करके वास्तुकी पूजा शांति नहीं करे तो वह स्थान राक्षस , भूत , प्रेतोंके विघ्नोसे शून्य ( सूना ) होजाता है ॥१३८॥

इस वास्ते नवीन घर आदिके तीनों प्रकारके प्रवेशमें शुभकी कामनावालेको वास्तुपूजा करनी चाहिये ॥१३९॥

अथ त्रिविधप्रवेशलक्षणम्‌ । अपूर्वसंज्ञ : प्रथम : प्रवेशो यात्रावसाने स तु पूर्वसंज्ञ : । द्वंद्वाह्वयस्त्वग्निभयादिजात : प्रवेश एवं त्रिविध : प्रदिष्ट : ॥ नवप्रवेशे त्वथ कालशुद्धिर्न द्वन्द्वमौपूर्विकयो : कदाचित्‌ ॥१४०॥

अथ विशेषलक्षणम्‌ । अपूर्वो नवगेहादौ प्रवेशे मुनिभि : स्मृत : ॥१४१॥

सपूर्वस्तु प्रवासांते पूर्वाऽपूर्व इत : पर : । आरम्भोदितभैर्मामै : कार्योऽपूर्व : प्रवेशक : ॥१४२॥

पूर्वापूर्वोऽश्विनीमूलप्रवणार्कान्वितैस्तथा । सपूर्वस्तुत्तराचित्रानुराधारेवतीमृगे ॥१४३॥

रोहिण्यां कथित : प्राज्ञै : प्रवेशस्त्रिविधो गृहे । द्वन्द्वसौपूर्विकगृहे मासदोषो न विद्यते ॥१४४॥

( तीन प्रकारके प्रवेशका लक्षण ) नवीन घरमें प्रवेश होवे सो अपूर्व संज्ञक है और यात्राके अनंतर प्रवेश होवे सो पूर्वसंज्ञक है , अग्नि आदि द्वारा नष्ट हुए घरमें प्रवेश होवे सो द्वंद्वसंज्ञक होता है इसप्रकार प्रवेश तीन प्रकारका है नवीन घरके प्रवेशमें कालशुद्धि देखना और पूर्वसंज्ञक द्वंद्वसज्ञंक प्रवेशमें कालकी जरूरत नहीं हि ॥१४०॥

अपूर्वसंज्ञा नवीन घरमें प्रवेशकी मुनियोंने कही है और यात्राके अनंतरके प्रवेशकी पूर्वसंज्ञा है और तीसरी अग्नि आदिके द्वारा नष्ट हुए घरके प्रवेशकी पूर्वापूर्व संज्ञा है सो गृहारंभके नक्षत्र महीनों करके अपूर्व प्रवेश शुभ होता है और अ . मृ . श्र . ह . इन नक्षत्रों सहित गृहारंभ नक्षत्रोंमें पूर्वाऽपूर्व शुभ है और उ . ३ , चि . अनु . रे . मृ . रो . इन नक्षत्रोंमें पूर्वप्रवेश शुभ है इस प्रकार तीन भेद प्रवेशका जानना , परंतु द्वंद्वसंज्ञक प्रवेशमें तथा पूर्वसंज्ञक प्रवेशमें मासआदिका दोष नहीं है ॥१४१॥१४४॥

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Last Updated : November 11, 2016

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