वास्तुप्रकरणम्‌ - श्लोक १४५ ते १६२

अनुष्ठानप्रकाश , गौडियश्राद्धप्रकाश , जलाशयोत्सर्गप्रकाश , नित्यकर्मप्रयोगमाला , व्रतोद्यानप्रकाश , संस्कारप्रकाश हे सुद्धां ग्रंथ मुहूर्तासाठी अभासता येतात .


अथ त्याज्या : । कुयोगे पापलग्ने च चरलग्ने चरांशके । शुभकर्मणि ये वर्ज्यास्ते वर्ज्या : स्यु : प्रवेशने ॥१४५॥

क्रूरयुक्तं क्रूरविद्धं मुक्तं क्रूरग्रहेण च ॥ यद्रंतव्यं न तच्छस्तं त्रिविधोत्पातदूषितम्‌ ॥१४६॥

लत्तया निहतं यच्च क्रांतिसाम्येन दुषितम्‌ । प्रवेशे त्रिविधे त्याज्यं ग्रहणेनाभिदुषितम्‌ ॥१४७॥

स्थिरलग्ने रियरांशे च प्रवेश : शुभद : स्मृत : । चरलग्ने चरांशे च प्रवेशो न शुभावह : ॥१४८॥

अकपाटमनाच्छन्नमदत्तवलिभोजनम्‌ । गृहं न प्रविशेदेव विपदामाकरं हि तत्‌ ॥१४९॥

अथ लग्नशुद्धि : । केंद्र १ । ४ । ७ । १० त्रिकोणा ९ । ५ य ११ धन २ त्रि ३ संस्थै : शुभैस्त्रिषष्ठाय ३ । ६ । ११ गतै : खलैश्व । लग्नांत्य १ । १२ षष्ठाष्टम ६ । ८ वर्जितेन चंद्रेण लक्ष्मीनिलयप्रवेश : ॥१५०॥

प्रवेशलग्नान्निधन ८ स्थितो य : क्रूरग्रह : क्रूरगृहे यदि स्यात्‌ । प्रवेशकर्त्तारमथ त्रिवर्षाद्धंत्यष्टवर्षैं : शुभराशिगश्वेत्‌ ॥१५१॥

( त्याज्य योगादि ) मृत्यु आदि दुष्टयोगोंमें , पापग्रहकी राशिके लग्नमें , चरलग्न , चरनवांशकमें और शुभकर्ममें वर्जे हुए दुष्ट दिनोंमें गृहप्रवेश नहीं करना ॥१४५॥

पापग्रह करके युक्त नक्षत्र और पापग्रहोंसे वेधित नक्षत्र तथा पापग्रहों करके त्यागा हुआ नक्षत्र या पापग्रह आनेवाला नक्षत्र , या उत्पातोंके दिनका नक्षत्र , लात लगा हुआ नक्षत्र और क्रांतिसाम्य दोष या ग्रहणका नक्षत्र तीनों प्रकारके प्रवेशमें त्या राने चाहिये ॥१४६॥१४७॥

स्थिरलग्न स्थिरनवांशकमें गृहप्रवेश शुभ है और चरलग्न चरनवांशकमें अशुभ है ॥१४८॥

परन्तु किवांड ( कपाट ) रहित हो और आपरसे आच्छादन नहीं किया हुआ हो तथा वास्तुशांति ब्राह्मण भोजनादिसे रहित हो तो उस घरमें प्रवेश नहीं होना चाहिये , कारण कि दु : खके करनेवाला होता है ॥१४९॥

( लग्नशुद्धि ) शुभग्रह केंद्र १ । ४ । ७ । १० त्रिकोण ९ । ५ । ११ । २ । ३ स्थानोंमें बिना चन्द्रमा अन्यस्थानोंमें हो तो और १ । १२ । ६ । ८ इन स्थानोंके बिना चन्द्रमा अन्यस्थानोंमें हो तो गृहप्रवेश करना शुभदायक है ॥१५०॥

यदि लग्नसे आठवें स्थानमें पापग्रह पापराशिपर होवें तो प्रवेश करनेवालेको तीसरे वर्षमें मारते हैं और शुभग्रहोंकी राशिपर होवें तो आठ बरससे मारे ॥१५१॥

अथ स्नानशुद्धि : । विवाहे सप्तमें शुद्धं यात्रायामष्टमं तथा । दशमं च गृहारंभे चतुर्थं च प्रवेशने ॥१५२॥

स्थिरलग्ने स्थिरे राशौ नैधने शुद्धिसंयुते । गृहप्रवेश : शुभदां लग्नात्केंद्रे गुरौ भृगौ ॥१५३॥

अथाष्टमगे चंद्रे विशेष : । अष्टमस्ये निशानाथे यदि योगशतैरपि । तदा ते निष्कला ज्ञेया वृक्षा वज्रहता इव ॥१५४॥

क्षीणचन्द्रोऽन्त्यषष्ठाष्टसस्थितो लग्नतस्तथा ॥ भार्याविनाशनं वर्षात्सौम्ययुक्ते त्रिवर्षत : ॥१५५॥

अथ प्रवेशे विशेषविचार : । कृत्वा शुक्र पृष्ठतो वामतोऽर्कं विप्रान्‌ पूज्यानग्रत : पूर्वकुंभम्‌ । हर्म्यं रम्यं तोरणस्त्रग्वितानै : स्त्रीभि : स्त्रग्वी गीतमाल्यैर्विशेत्तत्‌ ॥१५६॥

( स्थानशुद्धि ) विवाहमें सातवां घर ग्रहरहित शुभ होता है और यात्रामें आठवां , गृहारंभमें दशवां और गृहप्रवेशमें चौथा स्थान शुद्ध चाहिये ॥१५२॥

स्थिरलग्न स्थिर नवांशक हो , आठवां स्थान शुद्ध हो और लग्नमें या केन्द्रमें गुरु शुक्र होवें तो गृहप्रवेश शुभका देनेवाला होता है ॥१५३॥

यदि आठवें चन्द्रमा हो तो सैकडों योग ऐसे निष्फल हो जाते हैं जैसे वज्र करके वृक्ष नष्ट हो जाते हैं ॥१५४॥

लग्नसे छठे ६ आठवें ८ क्षीण चन्द्रसा हो तो एक बरससे स्त्री मरजावे और शुभग्रह होवें तो तीन बरसमें मरे ॥१५५॥

शुक्रको पिछाडी तथा अर्कको वामभागमें करके ब्राह्मणोको पूजके अगाडीको जलसे पूर्ण किया हुआ कुंभ सुंदर तोरन माला चांदनी आदिसे विभूषित गीत गाती हुई स्त्रियों करके सहित घरमें प्रवेश करे ॥१५६॥

अथ वामार्कलक्षणम्‌ । रंध्रा ८ त्पुत्रा ५ द्धना २ दाया ११ त्पंचस्वर्के स्थिते क्रमात्‌ । पूर्वाशादिमुखं गेहं विशेश्द्धामो भवेद्यत : ॥१५७॥

अथ प्रवेशे कलशचक्रम्‌ । भू १ र्वेदपंचकं ४ । ४ । ४ । ४ । ४ त्रि ३ स्त्रि : ३ प्रवेशे कलशेऽर्कभात्‌ । मृतिर्गतिर्धंन श्री : रयाद्वैरं शुक्‌स्थिरता सुखम्‌ ॥१५८॥

अथ प्रवेशकृस्यम्‌ । कृत्वाऽग्रतो द्विजवरानथ पूर्णकुंभं दध्यक्षताम्रदलपुष्पफलोपशोभम्‌ । दत्त्वा हिरण्यवसनानि तथ द्विजेश्र्यो मांगल्यशांतिनिलयं स्वगृहं विशेच्च ॥१५९॥

गृह्योक्तहोमविधिना बलिकर्म कुर्यात्प्रासादवास्तुशमने च विधिर्य उक्त : । संतर्पयेद्द्विजवरानथ भक्ष्यभोज्ये : शुक्लांबर : स्वभवनं प्रविशेत्सुरूपम्‌ ॥१६०॥

अथ सर्व्देवप्रतिष्ठामुहूर्त्ता : । तत्र तावत्सामान्यत : सर्वेषां देवानां प्रतिष्ठाकाल : । अथात : संप्रवक्ष्यापि प्रतिष्ठाकालमुत्तमम्‌ । चैत्रे वा फाल्गुने वाऽयि ज्येष्ठे वा माधवे तथा ॥१६१॥

माघे वा सर्वदेवानां प्रतिष्ठा शुभदा भवेत्‌ । प्राप्य पक्षं शुभं शुक्लमतीते दक्षिणायने ॥१६२॥

( वामरवि ) पूर्वको मुखवाले घरमे आठवें स्थानसे पांच स्थानोंमें सूर्य होनेसे वाम रवि होता है और दक्षिण द्वारमें पांचवें स्थानसे पांच घरोंमें सूर्य होनेसे वाम रवि होता है , पश्चिम मुखके घरमें दूसरे स्थानसे पांच स्थानोंमें और उत्तर मुखके घरमें ग्यारहवें स्थानसे पांच स्थानोंमें सूर्य होनेसे वाम रवि होता है ॥१५७॥

( कलश ) चक्रम्‌ ) सूर्यके नक्षत्रसे १ नक्षत्र मृत्यु करे , ४ घर छुटाव , ४ धन करें ४ श्री करें , ४ वैर करें , ४ शोक करें , ३ स्थिरता करें ३ सुख करें ॥१५८॥

प्रथम ब्राह्मणोंको सुवर्ण वस्त्र देवे फिर उनको अगाडी करके और दधि , चावल , आमके पात , पुप्प , नारेल आदिसे पूर्ण कलश लेके मांगलिक शांति युक्त शब्दोंसे घरमें प्रवेश करे ॥१५९॥

परन्तु पहले दिन वास्तुशांतिके लिखेमुखव होम बलि कर्म करके और ब्राह्मणोंका भक्ष्य भोज्य पदार्थ भोजन कराके नवीन सफेद वस्त्र पहरे हुए श्रेष्ठ घरमें प्रवेश करे ॥१६०॥

( सर्व देवोंकी प्रतिष्ठाका शुहूर्त्त ) चैत्र , फाल्गुन ज्येष्ठ , वैशाख , माघ इन महीनोंमें तथा शुक्लपक्षमें उत्तरायण सूर्य आनेसे सर्व देवोंकी प्रतिष्ठा शुभ है ॥१६१॥१६२॥

N/A

References : N/A
Last Updated : November 11, 2016

Comments | अभिप्राय

Comments written here will be public after appropriate moderation.
Like us on Facebook to send us a private message.
TOP