वास्तुप्रकरणम्‌ - श्लोक ६७ ते ९०

अनुष्ठानप्रकाश , गौडियश्राद्धप्रकाश , जलाशयोत्सर्गप्रकाश , नित्यकर्मप्रयोगमाला , व्रतोद्यानप्रकाश , संस्कारप्रकाश हे सुद्धां ग्रंथ मुहूर्तासाठी अभासता येतात .


गृहारम्भे सुनक्षत्राणि । इज्योत्तरात्रयाहींदुविष्णुधातृजलोडुषु । गुरुणा सहितेष्वेषु कृतं गेहं श्रिया युतम्‌ ॥६७॥

द्विदैवत्वाष्ट्रवारीशरुद्रादितिवसूडुषु । शुक्रेण सहितेष्वेषु कृतं धान्यप्रद गृहम्‌ ॥६८॥

हस्तार्यमत्वाष्ट्रदस्त्रर्क्षानुराथोडुभेषु च । बुधेन सहितेष्वेषु ध पुत्रसुखप्रदम्‌ ॥६९॥

अथ निषिद्धयोगा : । शत्रुक्षेत्रगतै : खेटैर्नीचस्थैर्वाऽपराजितै : । प्रारंभे यस्य भवने लक्ष्मीस्तस्य विनश्यति ॥७०॥

एकोऽपि परभागस्थो दशमे सप्तमेऽपि वा । वर्णादिपे बलैर्हीने तदूगृहं परहस्तगम्‌ ॥७१॥

लग्नगे शशिनि क्षीणे मृत्युस्थाने च भूसुते । प्रारंभ : क्रियते यस्य शीघ्रं तद्धि विनश्यति ॥७२॥

( गृहारम्भमें अच्छे नक्षत्र ) पुष्य , उ . ३ , आश्ले , मृ , श्र , रो , श , इन नक्षत्रोपर गुरु होनेसे गृहारंभ करे तो लक्ष्मीवान्‌ होता है ॥६७॥

विशाखा , चि , श , आ , पुन , ध , इन नक्षत्रोंपर शुक्र होनेसे गृहारंभ करे तो बहुत धान्य देनेवाला घर होता है ॥६८॥

ह , उ , फा , चि , अश्वि , अनु इन नक्षत्रोंपर बुध होनेसे गृहारंभ करे तो पुत्रोंका सुख होता है ॥६९॥

( निषिद्धयोग ) अपने शत्रुकी राशियोंपर ग्रह हो या नीच राशिप्र हो या पापग्रहों करके जीता हुआ हो तो गृहारंभ करनेसे लक्ष्मीका नाश होता है ॥७०॥

एक भी ग्रह दशवें सातवें स्थानमें परभागमें हो और वर्णका स्वामी निर्बल हो तो घर दूलरेके हाथमें चला जाता है ॥७१॥

लग्नमें क्षीण चंद्रमा हो , आठवें मंगल हो तो गृहारंभ करनेसे थोडे ही दिनोंम नाश होता है ॥७२॥

अथ खननविधि : ज्योति : शास्त्रानुसारेण सुदिने शुभवासरे । सुलग्ने सुमुहूर्त्तें च सुस्नात : प्राङ्‌मुखो गृही ॥७३॥

गणेशं गंधपुष्पाद्यैर्लोकपालानथ ग्रहान्‌ । पूजयेत्क्षेत्रपालांश्व क्रूरभूतांश्व बाह्यत : ॥७४॥

ब्रह्माणं वास्तुपुरुष तद्रेहस्थाश्व देवता : । गृहादे : शिल्परूपत्वाद्विश्वकर्माणमेव च ॥७५॥

लोहदंडं च संपूज्य भैरवं च तथव च । तद्दिक्पालान्नमस्कृत्य पृथिवीं च विशेषत : ॥७६॥

तत्र संपूजयेद्विप्रान्‌ दैवज्ञं च तथैव च ॥ तत : कुर्यादगृहारंभं सवसिद्धिप्रदायकम्‌ ॥७७॥

अथ शिलान्यास : । दक्षिणपूर्वे कोणे कृत्वा पूजां शिलां न्यसेत्प्रथमाम्‌ । शेषा : प्रदक्षिणेन स्तंभाश्वैवं प्रतिष्ठाप्या : ॥७८॥

( पाया खोदनेका विधान ) ज्योतिष शास्त्रके अनुसार शुभ दिनमें और श्रेष्ठ लग्न मुहूर्त्तमें स्नान किया हुआ गृहस्थ पूर्वको मुख करके गंध पुष्य आदि द्रव्योंसे गणपति , लोकपाल , सूर्यादि नवग्रहोंकी और क्षेत्रपाल , क्रूरभूतगण , ब्रह्मा , वास्तुपुरुष , गृहदेवता , विश्वकर्मा आदि देवोंका पूजन करे ॥७३॥७५॥

और लोहदंड ( करणी कस्सी ) आदिको पूजकर भैरवका , पृथ्वीका पूजन करे , फिर इंद्रादि दिक्पालोंको नमस्कार करके ब्राह्मणोंका , ज्योतिषीका पूजन करे , अनंतर गृहारंभ करनेसे सर्वसिद्धिका देनेवाला गृह होता है ॥७६॥७७॥

( शिलास्थनमु , ) प्रथम शिला दक्षिण पूर्वके बीचमें अर्थात्‌ अग्निकोणमें स्थापन करनी चाहिये फिर बाकी प्रदक्षिण क्रमसे स्थापन करे ॥७८॥

शिलान्यासे नक्षत्राणि । शिलान्यास : प्रकर्त्तव्यो गृहाणां श्रवणे मृगे । पौष्णे हस्ते च रोहिण्यां पुष्याश्चिन्युत्तरात्रये ॥७९॥

अथ स्तंभन्यास : । प्रासादेषु च हर्म्येषु गृहेष्वन्येषु सर्वदा । आग्नेय्यां प्रथमं स्तंभं स्थापयेत्तद्विधानत : ॥८०॥

अथ स्तंभस्थापने कूर्मचक्रम्‌ । तिथिस्तु पचगुणिता कृत्तिकाद्यक्षसंयुता । तथा द्वादशमिश्रा च नवभागेन भाजिता ॥८१॥

जले वेदा ४ मुनि ७ श्चंद्र : १ स्थले पंच ५ द्वयं २ वसु ८ त्रि ३ षट्‌क ६ नव ९ चाकाशे त्रिविधं कूर्मलक्षणम्‌ ॥८२॥

अथ फलम्‌ । जले लाभस्तथा प्रोक्त : स्थले हानिस्तथैव च । आकाशे मरणं प्रोक्तमिदं कूर्मस्य चक्रकम्‌ ॥८३॥

अथ स्तंभचक्रम्‌ । सूर्याधिष्ठितभद्वयं प्रथमतो मध्ये तथा विंशतिस्तंभाग्रे रस ६ संख्यया मुनिवरैरुक्तं मुहूर्त्तं शुभम्‌ । स्तंभाग्रे मरणं भवेद्‌गृहपतेर्मूले धनार्थक्षयो मध्ये चैव तु सर्वसौख्यमतुलं प्राप्नोति कर्त्ता सद ॥८४॥

( शिलास्थापन नक्षत्र ) श्र . मृ . रे . ह . रो . पुष्य . अश्वि . उ . ३ . इन नक्षत्रोंम करना शुभ है ॥७९॥

( स्तंभस्थापन ) इसीप्रकार राजालोगोंके घरोंमें और देवमंदिर , धनवानोंके घरोंमें प्रथम स्तंभ अग्निकोणमें ही स्थापन करना चाहिये ॥८०॥

( स्तंभस्थानमें कूर्मचक्र ) वर्तमान तिथिको पांच गुणी करे , कृत्तिकासे लेकर दिनके नक्षत्रतककी संख्या मिलावे और बारह फिर मिलावे . अनन्तर नौका भाग देवे , यदि ४ । ७ । १ बचें तो कूर्मका जलमें निवास है और ५ । २ । ८ बचे तो स्थलमें जानना , यदि ३ । ७ । ९ बचे तो आकाशमें वसता है ॥८१॥८२॥

जलमें निवास हो तो लाभ करे , स्थलमें हो तो हानि कर और अकाशमें हो तो मृत्यु , करे ॥८३॥

( स्तंभचक्र ) सूर्यको नक्षत्रसे २ नक्षत्र तो स्तंभको मूलके हैं , फिर २० मध्य भागके हैं , ६ नक्षत्र अग्रभागके हैं सो अग्रभागके ६ मृत्यु करें , मूलके २ धनका नाश करें , मध्यके २० नक्षत्र अतुल सुख करें ॥८४॥

अथ स्तंभस्थापने निषिद्धनक्षत्रादि । धनिष्ठापंचके चैव कुर्यात्स्तंभसमुच्छ्रयम्‌ । सूत्राधारशिलान्यासप्राकारादि समारभेत्‌ ॥८५॥

अथ द्वारशाखारोपणमुहूर्त्त : । द्वारस्थापननक्षत्राण्युच्यंते वडवोत्तरा : । हस्तपुष्यश्रुतिमृगस्वातीपूषाश्व रोहिणीआ ॥८६॥

प्रतिपत्सु न कर्त्तव्यं कृते दुःखमवाप्नुयात्‌ । द्वितीयायां द्रव्यहानि : पशुपुत्रविनाशनम्‌ ॥८७॥

तृतीया रोगदा ज्ञेया चतुर्थी भंगकारिणी । कुलक्षयकरी षष्ठी दशमी धननाशिनी ॥८८॥

विरोधलृदमा पूर्णा शेषाश्व तिथय : शुभा : । पंचमी धनदा चैव मुनिनंदवसौ शुभम्‌ ॥८९॥

अथ द्वारशाखारोपणे लग्नशुद्धि : । केंद्रत्रिकोणेषु शुभै : पापैख्याया ३ । ११ रिगै ६ स्तथा । द्यूनां ७ बरे १० शुद्धियुते द्वारशाखावरोपणम्‌ ॥९०॥

( स्तंभस्थापनमें निषिद्ध नक्षत्रादि ) ध . श . पृर्वाभा . उत्तराभा . रे . इन पंचकोंमें स्तंभ स्थापन नहीं करना चाहिये और सूत्राधार , शिलान्यास , भीत आदि करने शुभ हैं ॥८५॥

( चौखट चढानेका मु . ) घरके मुख्यद्वारकी चौखट चढानेमें अश्विनी . उ . ३ ह . पुष्य . श्र . मृ . स्वा . रे . रो . यह नक्षत्र शुभ हैं ॥८६॥

प्रतिपदाको करे तो दुःख हो , द्वितीयाको धनकी हानि हो , तृतीया रोग करे , चौथे भंग करे , छठे कुलक्षय करे , दशमी धननाश करे ॥८७॥८८॥

अमावास्या , पूर्णिमा विरोध करे , बाकीकी तिथि संपूर्ण शुभ हैं , पंचमी धन देवे , सप्तमी , नौमी , अष्टमी शुभ हैं । ॥८९॥

( लग्नशुद्धि ) शुभग्रह केंद्र १ । ४ । १० त्रिकोण ९ । ५ । में हों , पापग्रह ३ । ६ । ११ स्थानोंमें हों और ७ । १० यह स्थान ग्रहरहित हों तब चौखट रोपना शुभ है ॥९०॥

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Last Updated : November 11, 2016

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