संक्षिप्त विवरण - कुण्डलिनीयोग

कुण्डलिणी की सात्त्विक और धार्मिक उपासनाविधि रूद्रयामलतन्त्र नामक ग्रंथमे वर्णित है , जो साधक को दिव्य ज्ञान प्रदान करती है ।


कुण्डलिनीयोग , कुण्डलिनीशक्ति , षट‌चक्र आदि का पतञ्जलि के योगसूत्रों में कहीं उल्लेख नहीं है , किन्तु यह निश्चित है कि कुण्डलिनीयोग प्राचीन भारतीय योग की एक विशिष्ट पद्धति है । आगम और तन्त्रशास्त्र की विभिन्न शाखाओं में इसका वर्णन मिलता है । कुछ आचार्य ‘अष्टा चक्रा नवद्वारा ’ (१०।२।३१ ) इत्यादि अथर्ववेदीय मन्त्र में कुण्डलिनी योग योग का उल्लेख मानते हैं । प्रायः सभी आगमिक और तान्त्रिक आचार्य प्रसुप्तभुजगाकारा , सार्धत्रिवलाकृति , मृणालतन्तुनीयसी मूलाधार स्थित शक्ति को कुण्डलिनी के नाम से जानते हैं । जिस योगपद्धति की सहायता से इस कुण्डलिनी शक्ति को जगाकर सुषुम्णा मार्ग द्वारा षट्‌चक्र का भेदन कर सहस्त्रारकचक्र तक पहुँचाया जाता है और वहाँ उसका अकुल शिव से सामरस्य सम्पादन कराया जाता है , उसी का नाम कुण्डलिनीयोग है । आधारों अथवा चक्रों आदि के विषय में मतभेद होते हुए भी मूलाधार स्थित कुण्डलिनी शक्ति का सहस्त्रार स्थित अपने इष्टदेव से सामरस्य का सम्पादन सभी मतों में निर्विवाद रुप से मान्य है ।

कुण्डलिनीयोग की विधि ---

यहाँ संक्षेप में उसकी विधि इस प्रकार वर्णित है -यम और नियम के नित्य -नियमित आदरपूर्वक निरन्तर अभ्यास में लगा योगी साधक गुरुमुख से मूलाधार से सहस्त्रार -पर्यन्त कुण्डलिनी के उत्थापन क्रम को ठीक से समझ लेने के उपरान्त , पवन और दहन के आक्रमण से प्रतप्त कुण्डलिनी शक्ति को , जो कि स्वयम्भू लिंग को वेष्टित कर सार्धत्रिवलयकार में अवस्थित , है हूँकार बीज का उच्चारण करते हुए जगाता है और स्वयम्भू लिंग के छिद्र से निकाल कर उसे ब्रह्यद्वार तक पहुँचा देता है । कुण्डलिनीशक्ति पहले मूलाधार स्थित स्वयम्भू लिंग का , तब अनाहतचक्र स्थित की सहायता से सहस्त्रदल चक्र में आज्ञाचक्र स्थित इतर लिंग का भेद करती हुई ब्रह्मनाडी की सहायता से सहस्त्रदल चक्र मे प्रविष्ट होकर इतर लिंग का भेद करती हुई ब्रह्मनाडी की सहायता से सहस्त्रदल चक्र में प्रविष्ट होकर परमानन्दमय शिवपद में प्रतिष्ठित हो जाती है । योगी अपने जीवभाव के साथ इस कुलकुण्डलिनी को मूलाधार से उठाकर सहस्त्राचक्र तक ले जाता है और वहाँ उसको परबिन्दु स्थान में स्थित शिव (पर लिंग ) के साथ समरस कर देता है । समरसभावापन्न यह कुण्डलिनीशक्ति सहस्त्रारचक्र में लाक्षा के वर्ण के समान परमामृत का पान तृप्त हो जाती है और इस परमानन्द की अनुभूति को मन में संजोये वह पुनः मूलाधारचक्र में लौट आती है । यही है कुण्डलिनीयोग की इतिकर्तव्यता । इसके सिद्ध हो जाने योगी जीवभाव से मुक्त हो जाता है और शिवभावापन्न (जीवन्मुक्त ) हो जाता है ।

कुलकुण्डलिनी शक्ति कैसे सहस्त्रार स्थित अकुलशिव की ओर उन्मुख होती है और वहाँ शिव के साथ सामरस्य भाव का अनुभव कर पुनः कैसे अपने मूल स्थान में आ जाती है , इसकी अति संक्षिप्त प्रक्रिया नित्याषोडशिकार्णव (४ ।१२ -१६ ) में वर्णित है । इसी प्रकार चार पीठों और चार लिंगो का स्वरुप हमें योगिनी ह्रदय (१ ।४१ -४७ ) में अधिक स्पष्ट रुप में मिलता है ।

कुण्डलिनीशक्ति

मानवलिंग शरीर में सुषुम्नानाडी के सहारे ३२ पद्‍मों की स्थिति मानी गई है । सबसे नीचे और सबस ऊपर दो सहस्त्रापद्‍म स्थित हैं । नीचे कुलकुण्डलिनी में स्थित अरुण वर्ण सहस्त्रापद्‌म ऊर्ध्वमुख तथा ऊपर ब्रह्मारन्ध्र स्थित श्वेत वर्ण सहस्त्रारपद्‌म अधोमुख हैं । इनमें से अधः सहस्त्रार को कुलकुण्डलिनी और ऊर्ध्व सहस्त्रार को अकुण्डकुण्डलिनी कहा जाता है । अकुलकुण्डलिनी प्रकाशात्मक अकारस्वरुपा और कुलकुण्डलिनी विमर्शात्मक हकारस्वरुण मानी जाती है ।

इन दो कुण्डलिनियों के अतिरिक्त तन्त्रशास्त्र के ग्रन्थों में प्राणकुण्डलिनी का भी वर्णन मिलता है । मूलाधार में जैसे कुण्डलिनी का निवास है , उसी तरह से ह्रदय में भी ‘सार्धत्रिवलया प्राणकुण्डलिनी ’ रहती है । मध्यनाडी सुषुम्ना के भीतर चिदाकाश (बोधगमन ) रुप शून्य का निवास है । उससे प्राणशक्ति निकलती है । इसी को अनच्क कला भी कहते हैं । इसमें अनच्क (अच् ‍ =स्वर से रहित ) हकार का निरन्तर नदन होता रहता है । यह नाद भट्टारक की उन्मेष दशा है , जिससे कि प्राणकुण्डलिनी की गति ऊर्ध्वोन्मुख होती है , जो श्वास -प्रश्वास , प्राण -अपान को गति प्रदान करती है और जहाँ इनकी एकता का अनुसन्धान किया जा सकता है । मध्यनाडी में स्थित बिना क्रम के स्वाभविक रुप से उच्चरित होने वाली यह प्राणशक्ति को कुण्डलिनी इसलिये कहते हैं कि मूलाधार स्थित कुण्डलिनी की तरह इसकी भी आकृति कुटिल होती है । जिस प्राणवायु का अपान अनुवर्तन करता है , उसकी गति होकर की लिखावट की तरह टेढी -मेढी होती है । प्राणशक्ति अपनी इच्छा से ही प्राण के अनुरुप कुटिल (घुमावदार ) आकृति धारण कर लेती है । प्राणशक्ति की यह वक्रता (कुटिलता =घुमावदार आकृति ) परमेश्वर की स्वतन्त्र इच्छाशक्ति का खेल है । प्राणशक्ति का एक लपेटा वाम नाडी इडा में और दूसरा लपेटा दक्षिण नाडी पिंगला में रहता है इस तरह से इसके दो वलय (घेरे ) बनते हैं । सुषुम्ना नाम की मध्य नाडी सार्ध कहलाती है । इस प्रकार यह प्राणशक्ति भी सार्धत्रिवलया है । वस्तुतः मूलाधार स्थित कुण्डलिनी में प्राणशक्ति का भी निवास है , किन्तु ह्रदय में इसकीं स्पष्ट अभिव्यक्ति होने से ब्राह्मणवसिष्ठन्याय से उसका यहाँ पृथक् ‍ उल्लेख कर दिया गया है । इसका प्रयोजन अजपा (हंसगायत्री ) जप को सम्पन्न करना है ।

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Last Updated : March 28, 2011

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