संक्षिप्त विवरण - बृहत्तर भारत में तान्त्रिक सम्प्रदाय

कुण्डलिणी की सात्त्विक और धार्मिक उपासनाविधि रूद्रयामलतन्त्र नामक ग्रंथमे वर्णित है , जो साधक को दिव्य ज्ञान प्रदान करती है ।


बृहत्तर भारत में किसी समय में भारतवर्ष के एक प्रान्त से दूसरे प्रान्तों तक और देश से बाहर भी तन्त्रों का व्यापक विस्तार हुआ था । तन्त्रों में कादि और हादि मत ५६ प्रदेशों में प्रचलित थे । इन दोनों मतों की स्थानसूचिओं को परस्पर मिलाने पर पता चलता है कि किसी -किसी प्रदेश में कादि -हादि दोनों मत प्रचलित थे । ये सब देश भारतवर्ष के चारों ओर और मध्यभाग में अवस्थित हैं यथा --(१ ) पूर्व में अंग , वंग , कलिंग , विदेह , कामरुप , उत्कल , मगध , गौड , सिलहट्ट , कैकट आदि ; (२ ) दक्षिण में -- केरल , द्रविण , तैल ~उ , मलयाद्रि , चोल , सिंहल , आदि ; (३ ) पश्चिम में -सौराष्ट्र , आभीर , कोंकण , लाट , मत्स्य , सैन्धव , आदि ; (४ ) उत्तर में -काश्मीर , शौरसेन , किरात , कोशल आदि ; (५ ) मध्य में - महाराष्ट्र विदर्भ , मालव , आवन्तक आदि। (६ ) भारत के बाहर हैं - वाहलीक , कम्बोज , भोट , चीन , महाचीन , नेपाल , हूण , कैकय , मद्र , यवन आदि।

कादि या हादि दोनों मतों में नाना प्रकार के अवान्तर विभाग भी थे ।

तन्त्र -विस्तार का जो यत्किञ्चित् ‍ परिचय दिया गया है , उससे ज्ञात होता है कि भारतवर्ष के प्रायः सभी क्षेत्रों में वैदिक -संस्कृति के समानान्तर तान्त्रिक संस्कृति का विस्तार भी था । कभी - कभी इसकी स्वतन्त्र पृथक् ‍ सत्ता थी । कभी तटस्थ रुप में और कभी अंगीभूत रुप में । कभी - कभी तो प्रतिकूल रुप में भी इस संस्कृति का प्रचार हुआ । किन्तु सदा और सर्वत्र यह भारतीय संस्कृति के अंश में ही परिगणित होता था । भारतवर्ष के बाहर पूर्व तत्था पश्चिम में भारतीय संस्कृति का प्रभाव फैला हुआ था । वह केवल बौद्ध संस्कृति के स्त्रोत से ही नहीं , ब्राह्मण्य -संस्कृति की धाराअं से भी । प्रायः १२सौ वर्ष पूर्व जयवर्मा द्वितीय के राज्य काल में कम्बोज अथवा कम्बोडिया में भारतवर्ष से तन्त्र -ग्रन्थ पहुँचे थे । ये तन्त्र बौद्ध -तन्त्र नहीं थे , अपितु ब्राह्मण -तन्त्र थे , इन्हें शिवागम कहा जा सकता है । इन ग्रन्थों के नाम हैं --- (१ ) नयोत्तर (२ ) शिरश्च्छेद (३ ) विनय -शीख और (४ ) सम्मोह । ऐतिहासिकों ने प्रमाणित किया है कि नयोत्तर संभवतः निःश्वास -संहिता के अन्तर्गय ‘नय ’ है और उत्तर सूत्र के साथ अभिन्न है । अष्टम शतक का लिखा निःश्वासतत्त्वसंहिता गुप्त लिपि में दरबार पुस्तकालय नेपाल में अभी भी उपलब्ध है । ये ग्रन्थ प्रायः षष्ठ या सप्तम शतक के माने जाते हैं । प्रतीत होता है कि शिरश्छेद -तन्त्र जयद्रथयामल का ही नामान्तर है । जयद्रथयामल की एक प्रति नेपाल दरबार पुस्तकालय में है । विनयशीख को कोई कोई जयद्रथयामल का परिशिष्ट मानते हैं । सम्मोहन -तन्त्र भी प्रकार से परिशिष्ट ही माना जाता है । यह प्रचलित सम्मोहन -तन्त्र का प्राचीन रुप है ।

जैसे भारत तन्त्र या तान्त्रिक -संस्कृति के बाहर जाने बात कही गयी है , इसी प्रकार बाहर से भी किन्हीं तन्त्रों का भारत में आने विवरण सुना जाता है । इस विषय में कुब्जिका -तन्त्र का नाम लिया जा सकता है । वशिष्ठ के उपाख्यान के प्रसंग में चीन अथवा महाचीन से भारत में उपासक -क्रम के आने की किंवदन्ती सुनी जाती है । तारा , एकजटा तथा नीलसरस्वती से अभिन्न है । तारातन्त्र नामक ग्रन्थ में संक्षिप्त विवरण निर्दिष्ट है ।

पहले जो बात कम्बोज के विषय में कही गयी है , वह केवल कम्बोज ही नहीं , निकटवर्ती देशोम में भी लागू है । देवराज नाम से शिव की उपासना तथा विभिन्न प्रकार की शक्तियों की उपासना भारतवर्ष से बाहर जाकर प्रचलित हुई । इन देव -देवियों के नाम हैं - भगवती , महादेवी , उमा , पार्वती , महाकाली , महिषमर्दिनी , पाशुपत भैरव आदि -आदि । चीनी भाषा में लिखित प्राचीन इतिहासों से इसका पूर्ण विवरण जाना जा सकता है । इस दिशा आन्ध्र हिस्टारिकल सोसाईटी थोडा - बहुत कार्य कर रही है ।

अब कुछ तन्त्र -पीठ , विद्या -पीठ , मन्त्र -पीठ आदि के सम्बन्ध में भी विवेचन करना चाहिए । १ कामकोटि , २ .जालन्धर , ३पूर्णगिरि तथा . ४ .उड्डियान इन चतुष्पीठों के सम्बन्ध मे कुछ परिचय लोगों को ज्ञात है । कामह्रद के साथ मत्स्येन्द्रनाथ का सम्बन्ध था , जालन्धर -पीठ के साथ अभिनवगुप्त के गुरु शम्भुनाथ का सम्बन्ध था , जो आजकाल ज्योतिर्लिङ का स्थान माना जाता है । ये सभी प्राचीनकाल में विद्या -क्रेन्द्र कि स्वयं नागार्जुन भी अन्तिम समय में यही तिरोहित हुए। विभिन्न तान्त्रिक विद्याओं की साधन , उसका प्रत्यक्षीकरण तथा योग्य आधार में अर्पण इन सभी पीठों में होता था । परवर्तीकाल में बौद्ध लोगों दे द्वारा नालन्दा , विक्रमशील , उदन्तपुरी प्रभृति स्थानों में इन प्राचीन पीठों का अनुवर्तन किया गया । तक्षशिला का नाम तो सर्वत्र प्रसिद्ध ही है । सम्पूर्ण भारत देश में ४९ या ५० पीठ हैं जिनका विस्तार से विवरण तन्त्र -शास्त्रों में उपलब्ध होता है । इस विषय पर डा०डी०सी सरकार ने कुछ आलोचना की है । पीठ -तत्त्व का रहस्य अति गम्भीर है । वास्तव में पीठ का तात्पर्य है ---वह स्थान है जहाँ शक्ति जागृत हैं और जहाँ मन , बुद्धि , चित्त , अहंकार आदि का विषय अलिङु परमतत्त्व ज्योति रुप है ।

देह में भी चतुष्पीठ माने जाते है , अम्बिका और शान्ता शक्तियों का सामरस्य जहाँ है , वह प्रधान पीठ है , वहाँ अलिङु अव्यक्त महाप्रकाश परम ज्योति रुप से अभिव्यक्त होता है । इस पीठ का पारिभाषिक नाम है --परावाक् ‍ । इसी प्रकार जहाँ इच्छा , ज्ञान , क्रिया तथा वामा ज्येष्ठा एवं रौद्री शक्तियों का सामरस्य हुआ है , अस्तु , रहस्य -विस्तार यहाँ अनावश्यक है ।

अब तक जो कुछ कहा गया है , वह तान्त्रिक -संस्कृति के बाह्य -अंगो की एक लघु चित्र -छाया है , मात्र विहङावलोकन है , किन्तु स्मरण रखना चाहिए कि संस्कृति का महत्त्व उसके बाह्य अवयवों के चयन तथा आडम्बरों पर निर्भर नहीं है । संस्कृति के महत्त्व का परिचायक है ---मानव आत्मा की महनीयतां का आदर्श -प्रदर्शन । जिस संस्कृति में आत्मा का स्वरुप -स्वातन्त्र्य और सामर्थ्य की अतिशयता जितनी अधिक व्यक्त हुई , उस संस्कृति का गौरव उतना अधिक मानना होगा । वैदिक संस्कृति के प्रतिनिधि के रुप में आर्य ऋषियों ने यह गाया था ---

श्रृन्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्राः आ ये धामानि दिव्यानि तस्थुः ॥ (ऋ० १० .१३ .१ )

वेदाहमेतं पुरुषं महान्तम् ‍, आदित्यवर्ण तमसः परस्तात् ‍ ॥ (वाज०३१ .१८ )

मानव आत्मा ही वह महान् ‍ आदित्यवर्ण पुरुष है , जो ज्ञान -भेद या अपरोक्षानुभव कर अतिमृत्यु -अवस्था का लाभ करता है ।

तान्त्रिक -संस्कृति का निर्णय भी इसी मान -दण्ड से करना होगा । आत्मा का स्वरुप -गत और सामर्थ्य -गत पूर्णता का आदर्श ही इसके महत्त्व को प्रकट करता है । आगम शास्त्रों में इसका स्पष्ट निर्देश है कि यद्यपि आत्मा स्वरुपतः नित्यशुद्ध है , किन्तु उसकी अप्रबुद्ध अवस्था श्रेष्ठ है । अप्रबुद्ध अवस्था के चित् ‍ स्वरुप होने पर भी चेतन न होने के कारण वह अचित् ‍ कल्प ही है । विमर्शहीन चित् ‍ या प्रकाश चित् ‍ होने पर भी अचित् ‍ के ही सदृश है , प्रकाश होने पर अप्रकाशवत् ‍, शिव होने पर भी शववत् ‍ है । इसीलिए भर्तृहरि ने कहा है ---

वागरुपता चेदुत्क्रामेत् ‍ अवबोधस्य शाश्वती ।

न प्रकाशः प्रकाशेत सा हि प्रत्यवमर्शिनी ॥

( वाक्यपदीय १ . १२४ )

इसीलिए आणव -मल को आदि मल माना जाता है और उसके अपनयन न होने से चित्स्वरुप अवस्था को शिवत्व -हीन पशु -कल्प अवस्था कहते हैं । उस समय आत्मा साञ्जन न होते हुए भी निरञ्जन पशुमात्र है ।

इसी आधार पर तान्त्रिक -संस्कृति की उदात्त घोषणा यह है कि मनुष्य के सुप्त रहने से काम नहीं चलेगा , उसे जागना चाहिए ---

प्रबुद्धः सर्वदा तिष्ठेत् ‍ ।

मानव -जीवन का लक्ष्य जिस पूर्णत्व को माना जाता है , उसकी उपलब्धि के लिए सबसे पहले आवश्यक है ---अनादि निद्रा से जागना अर्थात् ‍ प्रबोधन , उसके बाद आत्मा की क्रमिक ऊर्ध्व -गति मार्ग से परम शिव या परा संवित् ‍ या परा सत्ता का साक्षात्कार करना और यही रुद्रयामल का उद्देश्य है ।

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Last Updated : March 28, 2011

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