संक्षिप्त विवरण - उन्मेष एवं निमेषावस्था

कुण्डलिणी की सात्त्विक और धार्मिक उपासनाविधि रूद्रयामलतन्त्र नामक ग्रंथमे वर्णित है , जो साधक को दिव्य ज्ञान प्रदान करती है ।


इतने बडे दीर्घमार्ग के अतिक्रमण करने पर वास्तव -पूर्णता का उदय होता है , किन्तु उदय -मात्र होता है , उसका स्तायित्व नहीं रहता ; क्योंकि उस समय भी उन्मेष निमेष का व्यापार चलता रहता है । इस व्यापार के प्रभाव से स्थिति रहती है ईश्वर के सदृश । उस समय उन्मेष विद्यमान रहता है , और किसी समय उसकी स्थिति रहती है सदाशिव के सदृश , जब उसमें निमेष विद्यमान रहता है । इन दोनों ही अवस्थाओं में सभी समय महाप्रकाश अनावृत रहता है । शिवादि -धरान्त विश्व का भान कभी रहता हैं , कभी नहीं रहता । जब विश्व का भान रहता है , तब प्रकाशात्मक रुप से ही उन्मेष रहता हैं और जब नहीं रहता तब प्रकाशात्मक रुप से ही निमेष रहता है , इसके बाद पूर्णता को स्थायित्व प्राप्त होता हैं।

उन्मनी अवस्था --- वस्तुतः पूर्णत्व का स्फुरण बताया गया है। वह पूर्णत्व होते हुए भी स्थायी नहीं हो सका , क्योंकि उसके साथ मन का सम्बन्ध था । मन के रहने के समय उसके सम्बन्धे से उन्म्ष होता है और मन के निमग्न हो जाने पर मन का सम्बन्ध न रहने से निमेष रहता हैं । मन के रहने के कारण ही उन्मेष या निमेष की संभावन बनी हुई थी । उसके बाद मन भी उत्क्रान्त हो जाता हैं इस अवस्था में उन्मनी अवस्था का आविर्भाव हो जाता है , और उसके प्रभाव से पूर्णत्व सिद्ध हो जाता है । इसे ही आगमवित् ‍ सुपबुद्ध अवस्था के रुप के रुप में गणना करत हैं । इस अवस्था में आत्मा का जागरण पूर्ण हुआ यह कहा जा सकता है । इस समय इच्छामात्र विभूति की सिद्धि या आविर्भाव होता है ।

सिद्धि के रहस्य के संबंध में भी कुछ विवेचन करना चाहिए । यह स्मरण रखना होगा कि तत्त्व और अर्थ दोनों में किसी एक का आश्रय करके ही सिद्धि का उदय हो सकता हैं । जागतिक दृष्टि से जाग्रत् ‍ के प्रत्येक पदार्थ का कोई विशिष्ट क्रियाकारित्व है , योगी गण संयम के द्वारा तत्तद् ‍ अर्थो से भिन्न -भिन्न कर्म संपादन कर सकते हैं ।

तत्त्वमूलक सिद्धि के दो प्रकार हैं १ .परा तथा २ . अपरा । पातञ्जल योग में भी तत्त्व -त्रय के आधार पर सिद्धियों का विवरण मिलता है । अर्थ विशेष में आत्म -भावना करके योगी तद्रूप होते है और उस कार्य का संपादन करते हैं । जो देवता जिस अर्थ का संपादन करता है योगी उस देवभाव में अहंभाव करके उस अर्थ का संपादन उस देवता से कर लेता है । इसका तात्पर्य यह हुआ कि किसी तत्त्व में अहन्ता का अभिनिवेश करने पर तदनुरुप सिद्धि का उदय हो सकता है । माया पर्यन्त ३१ तत्त्वों का अवलम्बन करके इसी प्रकार की सिद्धियाँ की जाती हैं । इन सिद्धियों का नामान्तर गुन्हा -सिद्धि है , ‘गुहा ’ माया का ही पर्याय है । मायातीत शुद्ध विद्या अथवा सरस्वती का आश्रय करके जिन सिद्धियों का उदय होता है उनका नाम तत्त्वमूलक परा -सिद्धि है । लौकिक कार्यो की सिद्धि के लिए अपरा -सिद्धियाँ की जाती हैं ।

ये परा एव्म सिद्धियाँ खण्ड सिद्धियाँ ही हैं । महासिद्धि नहीं । महासिद्धि इनसे भी उत्कृष्ट है । ये दो प्रकार की है - एक सकलीकरण और अन्तिम महासिद्धि जिससे शिवत्व लाभ करते हैं । उसके बाद ही आती है शान्त स्निग्ध शीतलता । जिस समय कालाग्नि योगी के देह में अवस्थित सभी पाशों को दग्ध करता है , उस समय षडध्वजा का दाह हो जाता है । उसी अवस्था में भीषण ताप का अनुभव होता है । योगी अपने शरीर में इस ताप का अनुभव करता है । इसके बाद स्निग्ध अमृत रस से मानों योगी की सकल सत्ता आप्लावित हो जाती है । इसी समय योगी पूर्णतया इष्टदेवता का साक्षात्कार लाभ करते है । उस समय योगी शोधित अध्वा या समग्र विश्व का अनुग्राहक बन जाता है , यह जो अमृत -प्लावन है इसी का नाम ‘पूर्णाभिषेक ’ है । योगी इस अवस्था में प्रतिष्ठित होकर जग‍द -गुरु पद में अधिष्ठित होते हैं । इस प्रकार का पूर्णत्व प्राप्त करने पर भी उसे भी अतिक्रम करके उठना पडता है क्योंकि यह अपूर्ण स्थिति है। इसके बाद यथार्थकः पूर्ण ख्याति का उदय होता हैं । उसी का नाम शिवत्व या परम शिव की अवस्था है। यही वास्तविक पूर्णत्व है , इस अवस्था में पूर्णस्वातन्त्र्य का अविर्भाव होता है । इस अवस्था में इच्छा -मात्र से भुवन -रचना का अर्थात् ‍ विश्व -रचना के अधिकार की प्राप्ति होती है , पञ्चकृत्यकारित्व का आविर्भाव भी इसी समय होता है ।

बौद्धशास्त्र में सुखावती की रचना अमिताभ बुद्ध के द्वारा हुइ थी , कहा जाता है कि यह इसी स्थिति के अनुरुप व्यापार है । विश्वमित्र प्रभृतियों की जगद् ‍ रचना का विवरण -प्रकार भी शास्त्र में परिचित है । तान्त्रिक अध्यात्म संस्कृति का लक्ष्य इसी परिपूर्ण अवस्था को प्राप्त करना है , केवल मात्र स्वर्गादि ऊर्ध्व लोक तथा लोकान्तरों में गति या कैवल्य अथवा निञ्जन भाव की प्राप्ति अथवा मायातीत अधिकारी पद का है । इस प्रकार यह तान्त्रिक -संस्कृति का अवदान तुच्छ नहीं समझा जा सकता है ।

रुद्रयामल और अष्टाङयोग --- बिना यौगिक क्रियाओं के शरीर शुद्ध नहीं होता है और बिना शरीर शुद्धि के कुण्डलिनी जागरण या लय योग असम्भव है । अतः रुद्रयामल के २३वें से लेकर २७ पटलों में सक्षिप्त रुप से अष्टाङु योगगत प्राणायाम की चर्चा की गई है । इनका विस्तृत विवरण होना अत्यन्त आवश्यक है । इनमें भी सर्वप्रथम हमे प्राणवायु (जिससे शरीर संचालित है ) को समझना चाहिए क्योंकि प्राणायाम के द्वारा योगी योग में प्रवेश करता है ।

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Last Updated : March 28, 2011

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