संक्षिप्त विवरण - रुद्रयामलगत स्वरयोग

कुण्डलिणी की सात्त्विक और धार्मिक उपासनाविधि रूद्रयामलतन्त्र नामक ग्रंथमे वर्णित है , जो साधक को दिव्य ज्ञान प्रदान करती है ।


एकादश पटल में स्वरोदय पर विचार प्रस्तुत किया गया है । इस सम्बन्ध में द्वादश चक्रों का निर्माण और उनके स्वरज्ञान एवं वायु की गति को जानकर अपने प्रश्नों का विवेचन करना चाहिए । स्वर -योग के अन्य ग्रन्थों से इसे लेकर यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है ---

नरपतिजयचर्या स्वरोदयः के ‘मात्रास्वराऽध्यायः ’ में मात्रा स्वरों के विषय में इस प्रकार कहा गया है ---

अथातः सम्प्रवक्ष्यामि ख्याता ये ब्रह्मयामले ।

मात्रादिभेदभिन्नानां स्वराणां षोडशोदयान् ‍ ॥१॥
मातृकायां पुरा प्रोक्ताः स्वराः षोडशसंख्यया ।

अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ लृ लृ इ ए ऐ ओ औ अं अः ।

तेषां द्वावन्तिमौ (अंअः ) त्याज्यौ -चत्वारश्च (ऋ लृ लृ ) नपुंसकौ ॥२॥
शेषा दश स्वरास्तेषु स्यदेकैको द्विके द्विके ।

ज्ञेयास्तत्र स्वरा आद्या द्दस्वाः (अ इ उ इ ओ ) पञ्च स्वरोदये ॥३॥
लाभलाभं सुखं दुःखं जीवितं मरणं तथा ।

जयः पराजयश्चेति सर्व ज्ञेयं स्वरोदये ॥४॥
स्वरादिमात्रिकोच्चारो मातृव्याप्तं जगत्त्रम् ‍ ।

तस्मात्स्वरोद्धवं सर्व त्रैलोक्यं सचराचरम् ‍ ॥५॥
अकाराद्याः स्वराः पञ्च ब्रह्माद्याः पञ्चदेवताः ।

निवृत्याद्याः कलाः पञ्च इच्छाद्याः शक्तिपञ्चकम् ‍ ॥६॥

अब मैं ब्रह्मयामल में कहे हुये मात्राभेद से भिन्न मातृकाचक्र में कहे हुये सोलह स्वरों को कह रहा हूँ । अ , आ , इ , ई , उ , ऊ , ए , ऐ , ओ , औ , अं , अः --ये सोलह स्वर हैं । इनमें दो अन्त के अं अः त्याग देना चाहिए और चार ऋ ऋ लृ लृ - ये नपुंसक स्वर हैं । शेष दशस्वर (अ , आ , इ , ई , उ , ऊ , ए , ऐ , ओ , औ )हैं । इनमें दो दो स्वरों का एक ही स्वर मानना चाहिए --जैसे अ आ को केवल अ मानना चाहिये । इस प्रकार पाँच ही अ , इ , उ , ए ओ स्वर मुख्य हैं ।सभी चराचर पदार्थो के नामोच्चारण करने में अकारादि मातृका के बिना वर्णो का उच्चारण नहीं हो सकता है । इसलिये मातृका से तीनोम जगत् ‍ व्याप्त है ।अतःशुभाशुभ फल के कहने के लिये स्वरों की ही प्रधानता है । अकारादि अ , इ , उ , ए ओ स्वरों के क्रम से ब्रह्मा , विष्णु , रुद्र , सूर्य और चन्द्रमा स्वामी हैं , अर्थात् ‍ अकारादि स्वरों के उदयकाल में प्रश्नकर्त्ता इन्हीं देवताओं का स्मरण कर कार्य को करे एव्म इन्हीं स्वरों के उदयकाल में प्रश्नकर्ता इन्हीं देवताओं का स्मरण कर कार्य को करे एवं इन्हीं स्वरों के उदयकाल में निवृत्ति आदि क्रम से पाँच कलायें होती है । (निवृत्ती , प्रतिष्ठा , विद्या , शान्ति और अतिशान्ति ) ये पाँच कलाओं के नाम है और इन्हीं स्वरों के उदयकाल में इच्छादि पाँच शक्तियाँ भी होती है । उनके नाम इच्छा , ज्ञान , प्रभा , श्रद्धा और मेधा है ॥१ -६॥

मायाद्याश्चक्रभेदाश्च धराद्यं भूतपञ्चकम् ‍ ।

शब्दादिविषायास्ते च कामबाणा इतीरिताः ॥७॥
पिण्ड पदं तथा रुपं रुपातीतं निरञ्जनम् ‍ ।

स्वरभेदस्थित ज्ञानं ज्ञायते गुरुतः सदा ॥८॥

अकाराद्याः स्वराः पञ्च तेषामष्टविधास्त्वमी ।

मात्रा वर्णो ग्रहो जीवो राशिर्भ पिण्डयोगकौ ॥९॥

प्रसुप्तो बुध्यते येन येनाच्छति शब्दितः ।

तत्र नामाद्यवर्णे या मात्रा मात्रास्वरः स हि ॥१०॥

अ , इ , उ , ए , ओ , ये प्रसिद्ध पाँच स्वर (ज्यौतिषशास्त्र के स्वर भाग में ) हैं । इन्हीं पाँच स्वरों के मायादि पाँच (चतुरस्त्र , अर्धचन्द्र , त्रिकोण , षट्‌कोण , वर्तुल ) चक्रभेद हैं , अर्थात् ‍ इन स्वरों के उदय वाले अपने अपने चक्रों का पूजन करें या ग्रहण करें । ये ही स्वर गन्धादि पाँच विषय वाले है , अर्थात् ‍ अकार के उदय में गन्ध विषयक , इकारोदय में रसविषय , उकार में रुपविषय , एकारोदय में स्पर्शविषय और ओकार में शब्दविषय हैं । इन्हीं पाँच स्वरों के धरा आदि (पृथ्वी , जल , अग्नि , वायु , आकाश ) पाँच तत्त्व है , अर्थात् ‍ अकार स्वर के उदय में पृथ्वीगत प्रश्न , इकार के उदय में जलगत , उकार में अग्निगत , एकार में वायुगत और ओकर के उदय में आकाशगत अर्थात् ‍ ऊर्ध्वगत प्रश्न है । इन्हीं पाँच स्वरों के पाँच कामबाण (शोषण , मोहन , दीपन , संतापन , प्रमथन ) हैं । पिण्ड अर्थात् ‍ शरीर का जो तत्त्व , उसका जो स्वरुप , उसके ज्ञान को रुपाततीत कहते हैं । उसको भी अतिक्रमण करने को निरंजन अर्थात् ‍ शून्य कहते हैं ।

अथवा इन पाँच स्वरों की जो पाँच (बाल , कुमार , युवा , वृद्ध मृत्यु या शून्य ) अवस्थायें हैं । उन्हीं को क्रम से पिण्ड , पद , रुप , रुपातीत और निरंजन कहते हैं । यही पाँच अवस्थायें जीवधारियों की भी होती है । वेदान्तशास्त्र के पृथ्वी , अप् ‍, तेज , वायु और आकाश इन पञ्चतत्त्वों के पञ्चकरण से जैसे ब्रह्म प्राप्ति होती है , वैसे ही यहाँ भी योगाभ्यास और गुरुमुख से अध्ययन द्वारा रहस्यमय उक्त ज्यौतिषशास्त्र का एवं रहस्यमय स्वरशास्त्र का ज्ञान भी परमार्थप्राप्ति का परम साधन बताया गया है । किन्तु इन पाँच स्वरों का भेद स्वरों में ही स्थित है जो कि गुरुमुख से ही जाना जा सकता है । जैसे सदानन्द के नाम मेम अकार है । अतः सदानन्द का अकार मात्रास्वर हुआ । शेष चक्र से स्पष्ट ॥७ -१०॥

कादिहान्तं लिखेद्वर्णान् ‍ स्वराधो ङञणोज्झितान् ‍ ।

( ककारादिहकारान्ताल्लिखेद्वर्णान्स्वराधो ङञणोज्झितान् ‍)

तिर्यक्पंक्तिक्रमेणैव पञ्चत्रिंशत्प्रकोष्ठके ॥११॥

नरनामादिमो वर्णो यस्मात्स्वरादधः स्थितः।

स स्वरस्तस्य वर्णस्य वर्णस्वर इहोच्यते ॥१२॥

न प्रोक्ता ङञणा वर्णा नामादौ सन्ति ते नहि ।

चेद्धवन्ति तदा ज्ञेया गजडास्ते यथाक्रमम् ‍ ॥१३॥

यदि नाम्नि भवेद्वर्णः संयुक्ताक्षरलक्षणः ।

ग्राह्यस्तदादिमो वर्ण इत्युक्तं ब्रह्मयामले ॥१४॥

श्लोक ११ -१४ को समझने के लिये आचार्य ने चक्र बनाने का संकेत दिया है , उसे देखकर विषय अतिस्पष्ट हो जाता है । अकारादि पाँचो स्वरों के नीचे क्रम से आरम्भ कर ह पर्यन्त वर्णो को तिर्यक् ‍ क्रम से ३५ कोष्ठों में लिखे । किन्तु ङ ञ ण वर्णो को न लिखे । मनुष्य के नाम का प्रथम वर्ण , जिस स्वर हो वही उसका वर्णस्वर होता है । ङ ञ ण , वर्णो को नहीं कहा गया है क्योंकि प्रायः मनुष्य के नाम के आदि में ये वर्ण नहीं पाये जाते हैं । यदि कहीं किसी के नाम के आदि में हो तो इनके स्थान में क्रम से ग , ज ,ड वर्णो को समझना चाहिये , अर्थात् ‍ ग , ज , ड वर्णो के जो वर्णस्वर हों वही उन वर्णो के होंगे । यदि नाम के आदि में संयुक्ताक्षर हो तो वहाँ संयुक्ताक्षर में पहला वर्ण लेना चाहिये --ऐसा ब्रह्मयामल में कहा है । जैसे सदानन्द के नाम में आदि वर्ण स है । वह चक्र में ए स्वर के नीच है । अतः सदानन्द का एकार वर्णस्व है । इसी प्रकार श्रीपति के नाम में संयुक्ताक्षर का प्रथम वर्ण श है और वह इकार के नीचे है । इसलिये श्रीपति का इकार वर्णस्वर है । वर्णो में विशेष - स्वरशास्त्र में अ ब , श , स , च , ख , ङ , ञ , ये सजातीय माने जाते हैं । इतिवर्णस्वरः ॥११ -१४॥

यदि एक व्यक्ति के दो तीन नामोपनाम हों तो कौन नाम से स्वर विचारा जाय ? इसका यही समाधान शास्त्र में है । प्रसुप्तो भासते येन येनागच्छति शब्दितः अर्थात् ‍ सोया हुआ पुरुष जिस नाम के उच्चारण से जागरुक हो उसके उसी नाम से स्वर विचारना चाहिए ।

मात्रास्वरचक्रम् ‍

बाल

कुमार

युवा

वृद्ध

मृत

अवस्था

 

स्वराः

कि

कु

के

को

 

खि

खु

खे

खो

 

गि

गु

गे

गो

 

घि

घु

घे

घो

 

चि

चु

चे

चो

 

छि

छु

छे

छो

 

जि

जो

 

झि

झु

झे

झो

 

टी

टु

टे

टो

 

ठि

ठु

ठे

ठो

 

डि

डु

डे

डो

 

ढि

ढु

ढे

ढो

 

ति

तु

ते

तो

 

थि

थु

थे

थो

 

दि

दु

दे

दो

 

धि

धु

धे

धो

 

पि

पु

पे

पो

 

फि

फु

फे

फो

 

बि

बु

बे

बो

 

भि

भु

भे

भो

 

मि

मु

मे

मो

 

यि

यु

ये

यो

 

रि

रु

रे

रो

 

लि

लु

ले

लो

 

वि

वु

वे

वो

 

शि

शु

शे

शो

 

षि

षु

षे

षो

 

सि

सु

से

सो

 

हि

हु

हे

हो

 

 

 

मात्रास्वरचक्रम् ‍

बाल

कुमार

युवा

वृद्ध

मृत

अवस्था

 

ब्रह्मा

विष्णु

रूद्र

सूर्य

चन्द्र

देवता

निवृत्ति

प्रतिष्ठा

विद्या

शान्ति

अतिशान्ति

कलाः

इच्छा

ज्ञान

प्रभा

श्रद्धा

मेधा

शक्ति

चतुरस्त्र

अर्द्धचन्द्र

त्रिकोण

षट्‍कोण

वर्तुल

चक्र

धरा

जल

अग्नि

वायु

आकाश

पंचभूत

गंध

रस

रूप

स्पर्श

शब्द

विषय

पिण्ड

पद

रूप

रूपातीत

निरंजन

संज्ञा

 

 

वर्णस्वरचक्रम्

बाल

कुमार

युवा

वृद्ध

मृत

 

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Last Updated : March 28, 2011

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