शिवानन्दलहरी - श्लोक ४६ ते ५०

शिवानंदलहरी में भक्ति -तत्व की विवेचना , भक्त के लक्षण , उसकी अभिलाषायें और भक्तिमार्ग की कठिनाईयोंका अनुपम वर्णन है । `शिवानंदलहरी ' श्रीआदिशंकराचार्य की रचना है ।


४६

आकीर्णे नखराजिकान्तिविभवैरुद्यत्सुधावैभवै

राधौतेऽपि च पद्मरागललिते हंसब्रजैराश्विते ।

नित्यं भक्तिबधूगणैश्च रहसि स्वेच्छाविहारं कुरु

स्थित्वा मानसराजहंस गिरिजानाथाड्‍ .घ्रिसौधान्तरे ॥४६॥

 

४७

शंभुध्यानवसन्तसड्रि .नि ह्रदारामेऽघजीर्णच्छदाः

स्त्रस्ता भक्तिलताच्छटा विलसि ताः पुण्यप्रवालश्रि ताः ।

दीप्यन्ते गुणकोरका जपव चः पुष्पाणि सद्वासना

ज्ञानानन्दसुधामरन्दलहरी संवित्फलाभ्युत्र तिः ॥४७॥

 

४८

नित्यानन्दरसालयं सुरमुनिस्वान्तांबुजाताश्रयं

स्वच्छं सद्दद्विजसेवितं कलुषह्रत्सद्वासनाविष्कृतम् ।

शंभुध्यानसरोवरं ब्रज मनोहंसावतंस स्थिरं

किं क्षुद्राश्रयपल्वलभ्रमणसंजातश्रमं प्राप्स्यसि ॥४८॥

 

४९

आनन्दामृतपूरिता हरपदांभोजालवालोद्यता

स्थैर्योपघ्नमुपेत्य भक्तिलतिका शाखोपशाखान्विता ।

उच्चैर्मानसकायमानपटलीमाक्रम्य निष्कल्मषा

नित्याभीष्टफलप्रदा भवतु मे सत्कर्मसम्बर्धिता ॥४९॥

 

५०

संध्यारम्भविजृम्भितं श्रुतिशिरःस्थानान्तराधिष्ठितं

सप्रेमभ्रमराभिराममसकृत्सद्वासना शोभितम् ।

भोगीन्द्राभरणं समस्तसुमनःपूज्यं गुणाविष्कृतं

सेवे श्रीगिरिमल्लिकार्जुनमहालिड्र . शिवालिड्रि .तम् ॥५०॥

हे मेरे मन के राजहंस ! गिरिजापति भगवान् शिव के चरणरुपी प्रासाद में विश्राम कर , और स्वेच्छाविहार का आनन्द ले । यह महल भगवान् शिव के चरणों के नखॊं की पंक्ति की कान्ति से शोभायुक्त है , और उगते हुए चन्द्रमा की किरणों से नहाया हुआ है । यह लाल माणिक्यों से सुभोभित है , और हंसों के समूह इसमें विश्वाम करते हैं । यहाँ भक्ति के विविध रुपों का एकान्त में परमानन्द प्राप्त कर । ॥४६॥

ह्रदयरुपी उद्यान में , शंभुध्यान रुपी बसन्त के आगमन से , पापरुपी पुराने पत्ते झड़ गये हैं । पुण्यरुपी किसलयों से ढ़की हुई भक्तिलता खिल रही है । सद्‍गुणों की कलियाँ से युक्त जपवाणी दिखाई दे रही हैं । सद्ववासनाओं के फूल खिले रहे हैं । ज्ञान -आनन्दामृत की रस तरंगों से संबोधि का फल आ रहा है । ॥४७॥

हे मेरे मनरुपी राजहंस ! भगवान् शिव के ध्यानरुपी निर्मल प्रशान्त सरोवर को जा । यह सरोवर नित्यानन्दरुपी पानी से भरा हुआ है । देवता और मुनियों के ह्रदयकमल इसमें खिले हुए हैं । सद्‍विप्र इसमें भजन करते हैं । इसमें पाप -कल्मष धुल जाते हैं , और शुभ वासनाएँ प्रकट होती हैं । छोटे -छोटे लोगों की शरणरुपी गन्दी पोखरों में घूमने के व्यर्थ श्रम को क्यों अंगीकार करता है ॥४८॥

भक्तिरुपी कल्पलता मेरे लिये अभीष्ट फल -मुक्ति -दायिनी हो । इस भक्तिलता का आनन्दरुपी जल से सिंचन होता है , और भगवन् शिव के चरणकमलों की थाम से यह उत्पन्न होती हैं । अविचल निष्ठरुपी दृढ़ आधार का सहारा लेकर शाखा -प्रशाखाओं में फैलती हुई , एक ऊँचे पंडाल (मन ) पर लिपट कर , यह निर्मल भक्तिलता सत्कर्मो से बढ़ती है । ॥४९॥

मैं शिवा आलिड्रि .त मल्लिकार्जुन महालिड्र . की पूजा करता हूँ । जिस संध्या समय , जब अर्जुन के फूल खिलते हैं , तो भगवान् नटराज प्रसन्न होकर नृत्य करते हैं । भगवान् शिव वैदिक ज्ञान के चूडान्त पर स्थित हैं , उसी प्रकार जैसे अर्जुन के पुष्पों को शिर और कानों पर धारण किया जाता है। भगवान् शिव भ्रमराम्बिका के साथ सुशोभित होते है ः अर्जुन गुंजार करते भ्रमरों से आच्छादित रहता है । भगवान् शिव की सत्पुरुष आराधना करते हैं ; अर्जुन के पुष्प सब फूलों में सुन्दर दिखते हैं । भगवान् शिव सतोगुण , रजोगुण , तमोगुण को प्रकट करते हैं ; अर्जुन के पुष्प सुगंध , रंग आदि से बडॆ कमनीय दिखाई देते हैं । भगवान् शिव श्रीशैल पर मल्लिकार्जुन महालिड्र . के रुप में विराजमान हैं ; अर्जुन शैल शिखर पर सुशोभित है । भगवान् शिव शिवा द्वारा उसी भाँति आलिड्रि .त हैं जैसे अर्जुन मल्लिका द्वारा । ॥५०॥


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Last Updated : November 11, 2016

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