शिवानन्दलहरी - श्लोक ३६ ते ४०

शिवानंदलहरी में भक्ति -तत्व की विवेचना , भक्त के लक्षण , उसकी अभिलाषायें और भक्तिमार्ग की कठिनाईयोंका अनुपम वर्णन है । `शिवानंदलहरी ' श्रीआदिशंकराचार्य की रचना है ।


३६

भक्तो भक्तिगुणावृते मुदमृतापूर्णे प्रसन्ने म नः -

कुम्भे साम्ब तवाडि‍ .घ्रपल्लवयुगं संस्थाप्य संवित्फलम् ।

सत्त्वं मन्त्रमुदीरयत्रिजशरीरागारशुद्विं वहन्

पुण्याहं प्रकटीकरोमि रुचिरं कल्याणमापादयन् ॥३६॥

 

३७

आम्नायांबुधिमादरेण सुम नः सं घाः समुद्यन्मनो

मन्थानं दृढभक्तिरज्जुसहितं कृत्वा मथित्वा त तः ।

सोमं कल्पतरुं सुपर्वसुरभिं चिन्तामणिं धीमतां

नित्यानन्दसुधां निरंतररमासौभाग्यमातन्वते ॥३७॥

 

३८

प्राक्पुण्याचलमार्गदर्शितसुधाम र्तिः प्रस न्नःशि वः

सो मःसद्गगुणसेवितो मृगध रःपूर्णस्तमोमोच कः ।

चे तःपुष्करलक्षितो भवति चेदानन्दपाथोनि धिः

प्रागल्भ्येन विजृम्भते सुमनसां वृत्तिस्तदा जायते ॥३८॥

 

३९

धर्मो मे चतुरड्‍ .ध्रि कः सुचरि तःपापं विनाशं गतं

कामक्रोधमदादयो विगलि ताः का लाः सुखाविप्कृ तः ।

ज्ञानानन्दमहौष धिः सुफलिता कैवल्यनाथे सदा

मान्ये मानसपुण्डरीकनगरे राजावतंसे स्थिते ॥३९॥

 

४०

धीयन्त्रेण वचोघटेन कविताकुल्योपकुल्याक्रमै

रानीतैश्व्च सदाशिवस्य चरितांभोराशिदिव्यामृतैः ।

ह्रत्केदारयुताश्च भक्तिकल माः साफल्यमातन्वते

दुर्भिक्षान्मम सेवकस्य भगवन् विश्वेश भी तिःकु तः ॥४०॥

हे भवानीशंकर ! मैं , आपका भक्त , इस शरीररुपी निवास स्थान की शुद्वि और मड्र .ल कामना के लिये ’पुण्याह वाचन ’ करता हूँ । इस पुण्याहवाचन में भक्तिरुपी सूत्र से आवद्व , प्रसन्नतारुपी अमृतजल से भरे हुए निर्मल मनरुपी कुम्भ में , आपके चरणरुपी आम के पत्तों से युक्त ज्ञानरुपी श्रीफल को स्थापित कर पच्चाक्षर मन्त्र रुपी आहुति दे रहा हूँ । ॥३६॥

( यहाँ समुद्र मंथन के पौराणिक आख्यान के रुपक का आश्रय लेकर यह बताया है कि शिव भक्ति से समस्त मनोरथ पूरे होते हैं , नित्यानन्दरुपी अमृत ( मुक्ति ) प्राप्त होती है । )

देवताओं और दानवों ने सुमेरु पर्वत को मथानी और वासुकि सर्प को रस्सी बनाकर समुद्रमंथन किया और चौदह रत्न -चन्द्रमा , कल्पवृक्ष , कामधेनु , चिन्तामणि आदि -प्राप्त किये । उसी प्रकार दृढ़ संकल्प और अविचल भक्ति की मथानी और रस्सी की सहायता से वेदों का मन्थन कर मनीषी सारी कामनाओं को पूर्ण करते हैं , और नित्य आनन्दरुपी अमृत -मुक्ति प्राप्त करते हैं । ॥३७॥

इस सुन्दर पद्य में श्लेष अलंकार है । इसके दो अर्थ हो सकते हैं -एक शिव -सम्बन्धित और दुसरा चन्द्रमा से सम्बन्धित ।

जब प्रशान्त मड्र .लकारी उमाशंकर (स +उमा = सो मः ) जिनके हाथ में दौड़ता हुआ हरिण (मानव मन का प्रतिक ) अवरुद्व है , और जो -संसार के अज्ञानरुपी अंधकार को दूर करने वाले हैं , और अपने गणॊं से सेवित हैं , पूर्व जन्मों के पुण्य -पर्वतों से प्रकट होते हैं , तो साधु पुरुषों हे ह्रदय ब्रह्य आनंद से भर जाते हैं । ॥३८॥

जब राजशिरोमणी एकाधिपत्य के स्वामी कैवल्यनाथ (मुक्तिदाता ) भगवान् शिव मेरे ह्रदय -कमल रुपी नगरी के अधिपति हैं तब धर्म के चारों पैर सुदृढ हो जाते हैं । उस शिवराज्य में पाप नष्ट हो जाते हैं , और काम -क्रोध -लोभ -मोह -मद -मत्सरता आदि मनोविकार गल जाते हैं । उस राज्य में सुख का समय प्रकट होता है , तथा ज्ञान और आनन्दरुपी रोगनिवारक वनस्पति फलने -फूलने लगती हैं । ॥३९॥

बुद्विरुपी कुँए से पानी खींचने के पानीपेच से , वाणीरुप घड़े से , कविता रुपी छोटी -बड़ी नहरों द्वारा आते हुए पानी से , भगवान् सदाशिव के चरित्रों रुपी सरोवर के दिव्य अमृत जैसे जल द्वारा ह्रदयरुपी पानीभरे खेत में ध्यान के हरे पौधे फल -फूल रहे हैं। फीर , भगवन् विश्वनाथ ! मुझे दुर्भिक्ष का डर कहाँ ? आत्मा के सिंचन के लिये शिवकथाओं का अमृत (मुक्ति देने वाला ) मिलने पर ह्रदय की भूख का डर कहाँ ॥४०॥


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Last Updated : November 11, 2016

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