अध्याय तेरहवाँ - श्लोक ६१ से ८०

देवताओंके शिल्पी विश्वकर्माने, देवगणोंके निवासके लिए जो वास्तुशास्त्र रचा, ये वही ’ विश्वकर्मप्रकाश ’ वास्तुशास्त्र है ।


जैसे रक्तकेशी लम्बोष्ठी पिंग ( पीले ) नेत्री कृष्ण तालुका जो कन्या है वह शीघ्र भर्ताको नाश करती है. इसी प्रकार याम्यादिशाके घरसे पुर भी नष्ट हो जाता है ॥६१॥

जैसे आलस्यसे देह, कुपुत्रसे कुल और दरिद्रसे जन्म वृथा होते है. ऐसे ही याम्यगृहसे पुर नष्ट होता है ॥६२॥

जहां प्रथम उत्तर दिशामें घर बनाये जांय और दक्षिणदिशामें पीछे बनाये जांय ऐसा घर जहां हो वहां पुत्र और दारा आदिका नाश होता है ॥६३॥

ईशानमें छाग ( बकरा ) का स्थापन करे. छाग सिंहका भक्षण नहीं कर सकता अग्निकोणका घर काक होता है. वायव्यदिशामें स्थित घर श्येन होता है ॥६४॥

वह श्येन प्रथम काकको भक्षण करता है । पीछे नैऋत्य दिशाके कृत्यको बनवावे. ईशानमें भी छागके समान चिन्ह बनवावे. नैऋत्यका घर सिंहके नामसे होता है ॥६५॥

सिंह श्येनको भक्षण करता है, काक श्येनको भक्षण नहीं कर सकता. अग्निकोण आदिके क्रमसे अन्त्यज और वर्ण सकरोंको बनावे ॥६६॥

जातिसे भ्रष्ट ( पतित ) वा चौर हैं वे विदिशाओंमें स्थित होयँ तो दोषदायी नहीं होते इससे विपरीत भावसे स्थित होंय तो उनके गृहोंके विरोधसे दोष होता है ॥६७॥

घरसे उत्तरदिशामें द्विगुण भूमि और पूर्वमें घरके समान भूमि और पश्चिममें तिगुनी भूमि और दक्षिणमें एक कोशभर भूमि रिक्त ( खाली ) श्रेष्ठ कही है ॥६८॥

जो घर मेखलापर स्थित हो जो द्वारके संमुख हो वह घर यदि सौम्य और उत्तरदिशामें स्थित होय तो शुभ नहीं कहा ॥६९॥

दश हाथकी घरके दतुर्थाशकी मेखला होती है. शुभका अभिलाषी पुरुष नगरसे दूनी भूमिको त्याग दे ॥७०॥

अन्यथा नगरको बनवावे तो उसमें वेधको देखे जिस मार्गसे मरेहुए मनुष्य यमलोकको जाते हैं ॥७१॥

वही मार्ग जानना. शेष मार्ग देशांतरोंके होते हैं. जो गृहस्थियोंके घर घरोंकी भित्तियोंसे मिलेहुए हैं ॥७२॥

वे भयके दाता और पुत्रोंको दु:खके दाता होते हैं इससे जैसा घर याम्य ( दक्षिण ) में बनावे वैसाही वायु ( पश्चिम ) में बनावे. जैसा वायुदिशामें हो वैसाही उत्तरदिशामें बनवावे ॥७३॥

जैसा उत्तरमें हो तैसाही पूर्वमें बनवावे तो साम्य ( इकसा ) फ़ल कहा है. जैसे-मनुष्य भवन पर चढकर धनुष्यका आकर्षण ( खींचना ) ॥७४॥

बाहिरके मनुष्योंको देखसके वा बाणसे लक्ष्यवालेका भेदन करसके और मूलसे उसके ईश ( स्वामी ) की दशापर्यंत स्थल जलसे भरा हुआ हो ॥७५॥

जो कहीं भी छिद्रमें विलीन ( छिपा ) न हो ऐसे स्थलके मध्यका घर दोषदायी नहीं होता. कूप उद्यान प्रपा वापी तडाग और जलाशय ॥७६॥

मन्दिर देवस्थान चैत्य प्राकार तोरण इनमें निरन्तर वास्तु वसता है उनके मध्यमें स्थित घर शुभ होता है ॥७७॥

दक्षिण उत्तरमें तैसेही पश्चिम पूर्वमें इन चारोंमें जहां मार्गोंका मेल हो उस चतुष्पथ ( चौराहा ) कहते हैं ॥७८॥

पहिला घर दक्षिणभागमें स्थित हो, पश्चिमका घर उत्तर भागमें स्थि हो इनके मध्यस्थानमें किया हुआ जो घर है वह कदाचितभी दूषित नहीं होता ॥७९॥

तैसेही पश्चिम और पूर्व घरोंके मध्यमें गत जो घर है वहभी तिसी प्रकार सुखदाता है तैसेही पश्चिमदिशामें स्थित सदन ( घर ) सुखदायी होता है ॥८०॥

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Last Updated : January 20, 2012

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